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2011 को

मैंने 2011 को अपनी यादों के फ्रेम में सँजो कर रख लिया है। क्यूंकि इस पूरे साल हर दिन मुझे याद आता रहा कि, एक और एक मिलकर दो नहीं होते ग्यारह होते हैं। इसीलिए जब मैं एक प्रयास में असफल हुआ तो मैंने अगला प्रयास ग्यारह गुना जोश से किया और सफल हुआ। यही कारण है कि अगले साल में मेरा एक अंक बढ़ गया है।

ऋतु माँ

उस दिन आँख खुली बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी बारिश की बूंदे मेरे घर की खिड़कियाँ पीट रही थीं मानो कह रही हों- उठो मेरा स्वागत करो. मैं उठा, खिड़की खोलने की हिम्मत नहीं हुई तेज़ बूंदे अन्दर आकर घर को भिगो सकती थीं. इसलिए बालकॉनी पर आ गया बारिश के धुंधलके के बीच कुछ देखने का प्रयास करने लगा तभी बारिश के शोर को चीरती हुई बच्चे के रोने की आवाज़ कानों में पड़ी मैंने ध्यान से दखा सामने के फूटपाथ  पर एक औरत बैठी थी उसकी गोद में एक बच्चा था चीथड़ों में लिपटा हुआ औरत खुद को नंगा कर किसी तरह बचा रही थी अपने लाल को और बच्चा था कि हाथ पांव फेंकता हुआ आँचल से बाहर आ जाता मानों बारिश का स्वागत कर रहा हो बूंदों को अपनी नन्हे सीने में समेट लेना चाहता हो कुछ बूंदे चहरे पर पड़ती तो बूंदों के आघात और ठण्ड के आभास से बच्चा थोडा सहम जाता और फिर खेलने लगता बारिश बीती सर्दी आई औरत कि मुसीबत कुछ ज्यादा बढ़ गयी थी वह खुद को ढके या लाल को कहीं से एक फटा कम्बल मिल गया था शायद वह साबुत हिस्सा बच्चे को उढ़ा देती मैंने देखा रात में कई बार वह फटे कम्बल में ठिठुरती...

किताब

कुछ लोग जीवन को किताब समझते हैं, मैं जीवन को किताब नहीं समझता क्यूंकि, किताब दूसरे लोग लिखते हैं, दूसरे लोग पढ़ते हैं. फेल या पास होते हैं. किताब खुद को खुद नहीं पढ़ती. मैं खुद को पढ़ता हूँ कहाँ क्या रह गया क्या गलत या क्या सही था समझने की कोशिश करता हूँ. कोशिश ही नहीं करता उसे सुधारता भी हूँ और खुद भी सुधरता हूँ किताब ऐसा नहीं कर पाती वह जैसी लिखी गयी है या रखी गयी है, रहती है. मैं अपनी कोशिशों से निखर आता हूँ इसलिए मैं खुद को किताब नहीं पाता हूँ.

समय, संदेश और पाँव

क्या समय किसी को छोड़ता है? बेशक समय सबको पीछे छोड़ता हुआ बहुत आगे और आगे निकल जाता है. हम लाख चाहें उसे पकड़ना, उसके साथ साथ कदमताल मिलाना, केवल उसका पीछा ही करते रह जाते हैं उसके आँखों से ओझल हो जाने तक. लेकिन समय का हर साथ हमें एक सबक सिखा जाता है. उसी ख़ास सबक के कारण हम याद रखते उस समय को जब हमें यह सबक मिला था.          (२) सुबह सुबह पक्षियों का चहचहाना ठंडी ठंडी हवा का बहना पूरब से उषा की लालिमा का सर उठाना संकेत है जीवन का कि उठो, चल पड़ो कर्तव्य पथ पर पूरे करो उस दिन के अपने कर्तव्य प्राप्त कर लो अपना लक्ष्य इससे पहले कि शाम हो जाए.             (३) जब हम सड़क पर चलते हैं हमारे दोनों पैर ज़मीन पर होते हैं हमें वास्तविकता का बोध कराते हैं ताकि सावधान रहे चलते हुए. इसीलिए जब हम गिरते हैं तब लोग हंसते हैं हम पर उस समय हमारे पाँव हवा में होते हैं.

पत्थर

जब कोई पत्थर हवा में उछलता हैं न ! मैं समझ जाता हूँ कि इसे आम आदमी ने उछाला है. इसलिए नहीं कि आम आदमी ही पत्थर चलाते हैं आम आदमी  पत्थर क्या चलाएगा इतनी हिम्मत नहीं। पत्थर क्या उछालेगा वह  तो ढंग से मुद्दे उछालना तक नहीं जानता वह सब कुछ सहता रहता है बेआवाज़ क्यूंकि उसके पास जुबां नहीं है. उनके कानों तक पहुँच जाये इतना चीख कर बोलने की ताक़त नहीं अपनी बात समझाने के लिए मुहावरेदार भाषा और मज़बूत शब्द नहीं. मैं तो बस पत्थर देखता हूँ और अंदाजा लगाता हूँ क्यूंकि इतना कमज़ोर पत्थर कोई आम आदमी ही उछाल सकता है, जो उसके सर पर ही वापस गिरे और खूनम खून कर दे उसे.

नया साल पुराना साल

              नया साल मैंने साल के हर दिन को गिना है उन्हें हफ़्तों और महीनों में पिरोया है. फिर अनुभवों की तिजोरी में बंद कर बही खाता बनाया है. इस बही खाते में दर्ज है हर सेकंड हर मिनट का हिसाब कि पिछले साल मैंने क्या खोया और क्या पाया. खोने ने मायूसी दी और पाने ने ख़ुशी . आज जब बही खाता पलट रहा हूँ, मायूसी से खुशी को घटा रहा हूँ तो पाता हूँ कि मुझे मायूसी का लाभ हुआ है और खुशियों का घाटा इसीलिए गए साल की ओर पीठ पलटा कर मैं नए साल को हैप्पी न्यू इयर कर रहा हूँ.             पुराना साल मैं व्यस्त था नए साल का स्वागत करने दोस्तों के साथ खुशियाँ मनाने की तैयारी में . कुछ ही मिनट शेष थे नए साल के आने में कि पीछे से कोई फुसफुसाया- सुनो . मैंने पलट कर देखा होंठों पर फीकी मुस्कान लिए उपेक्षित सा खड़ा था पुराना साल. बोला- याद है तीन सौ पैंसठ दिन पहले तुमने इसी तरह मेरा स्वागत किया था अपने दोस्तों के साथ. पर आज मेरी ...

त्रिकट

हमारे शरीर में दो आँखे होती हैं, जो देखती हैं. दो कान होते हैं, जो सुनते हैं. नाक के दो छेद होते हैं, जो सूंघते हैं. दो हाथ होते हैं, जो काम करते हैं. दो पैर होते हैं, जो शरीर को इधर उधर ले जाते हैं. सब पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं, शरीर को चौकस रखने के लिए. लेकिन मुंह जो केवल एक होता है वह केवल खाना चबाता नहीं. वह आँखों देखी को नकारता है. कान के सुने को अनसुना कर देता है. हाथ पैरों का किया धरा बर्बाद कर देता है. पेट अकेला होता है, जुबान उसकी सहेली होती है. जुबान स्वाद और लालच पैदा करती है पेट ज़रुरत से ज्यादा स्वीकार कर शरीर को बीमार और नकारा बना देते हैं. और मुंह इसमें सहयोग करता ही है. हे भगवान् ! यह तीन त्रिकट अकेले अंग शरीर का कैसा विनाश करते हैं. मानव को बना देते  हैं वासनाओं का दास.

मेरे पाँच हाइकु

   (१) पपीहा बोला विरह भरे नैन पी कहाँ ...कहाँ.   (२) शंकित मन  गरज़ता बादल बिजली गिरी .   (३) घोर अँधेरा निराश मन मांगे आशा- किरण.   (४) पीड़ित मन गरमी में बारिश थोड़ी ठंडक.   (५) रंगीन फूल हंसती युवतियां भौरे यहाँ भी.

बंदी

क्या आप जानते हो कि क़ैद क्या होती है? यही न कि ऊंची ऊंची दीवारें मोटी सलाखों के पीछे बना ठंडी सीमेंट का बिस्तर और ओढ़ने को फटे पुराने कंबल या चादर? पूरी तरह से ड्यूटी पर मुस्तैद मोटे तगड़े बंदी रक्षक बात बेबात उनकी गलियाँ और बेंतों की मार? ठंडा उबकाई पैदा करने वाला भोजन और जली रोटियाँ? मेरी क़ैद इससे अलग भावनाओं की क़ैद है जहां शरीर की कोमल दीवारें हैं, साँसों के बंदी रक्षक है रिश्ते हैं नाते हैं, अपने हैं पराए हैं उनके स्वार्थ हैं और निःस्वार्थ भी। वह मुझे चाहते हैं और नहीं भी वह मेरा जो कुछ भी है पाना चाहते हैं वह मुझसे लड़ते झगड़ते और कोसते भी हैं। इसके बावजूद मैं एक कैदी होते हुए भी खुश हूँ। मोह के बंदी गृह का बंदी हूँ मैं।

बच्चा

बच्चा जब रोता है चुपके चुपके सुबकता सा सबसे छुपता छुपाता क्यूंकि माँ देख लेगी या कोई और देख कर माँ को बताएगा तो माँ डांटेगी- क्यूँ रोता है न मिलने वाली हर चीज़ के लिए जिद्द करते हुए ? बच्चा फिर भी रोता रहता है जानते हुए भी,  कि, उसे वह चीज़ नहीं मिल सकती ऐसे में उसे चीज़ न मिल पाने का दुःख रुलाता है . बड़े हो जाने के बावजूद आज भी वह बच्चा रोता है चुपचाप सुबकता हुआ इसलिए नहीं, कि, उसे मनचाही चीज़ नहीं मिल सकती बल्कि इसलिए कि वह छुपाना चाहता है अपने दुःख को जिसे वह सब को दिखा नहीं सकता इसी व्यक्त न कर पाने की  मजबूरी का दुःख उसे रुलाता है एक बच्चे की तरह.

हारने का दर्द लँगड़ाना

यह कविता मैंने अभिव्यक्ति समूह की वाल पर ११ नवम्बर २०११ को लिखी थी. आज ब्लॉग में अंकित कर रहा हूँ. हारने का दर्द उसे क्या मालूम जो कभी जीता ही नहीं. यह कविता मैंने १९ नवम्बर को लिखी थी कभी कभी लंगड़ाना भी अच्छा होता है. आप इच्छाओं की दौड़ में भाग नहीं ले पाते.

पाँच बचपन

जानते हो बच्चा इस बेफिक्री से हंस कैसे लेता है? क्यूंकि, वह जानता नहीं कि रोना क्या होता है. क्यूंकि रोना तो उसके लिए माँ को पास बुलाने का उसका वात्सल्य पाने का एक मासूम बहाना है. जबकि हम रोने को रोते हैं रोने की तरह कुछ न पाने और कुछ खो देने के कारण . यही तो फर्क है माँ और मान पाने के लिए रोने का !      (२) एक दिन मैंने ज़िंदगी से मनो-विनोद किया  उस दिन मैं  ऑफिस से जल्दी आ गया था।  मेरा नन्हा  सोया न था।        (३) नन्हें से मैंने पूछा- तुम मुझे कितना प्यार करते हो? उसने अपने दोनों हाथ फैला दिये दूसरे पल सारी दुनिया का प्यार मेरी सीने से चिपका था। (४) मैंने  सिसकते बेटे से पूछा- रो क्यूँ रहे हो? बोला- माँ ने मारा। मैंने कृत्रिम क्रोध दिखाया-   अभी मैं उसे मारता हूँ। बेटे ने तुरंत आँसू पोछ लिए बोला- नहीं तुम नहीं मारो। मैंने पूछा- क्यूँ? तो बोला- नहीं, तुम माँ नहीं हो।   (५) बच्चा घुटनों...

एक सौ हम

हम दोनों के बीच लम्बे समय की संवादहीनता के कारण बड़ा सा शून्य बन गया था. पर हम इस शून्य में उलझे नहीं इससे खुद को गुणा नहीं किया शून्य से खुद को घटाया नहीं शून्य को बांटने की कोशिश भी नहीं की क्यूंकि हर दशा में हम खुद शून्य हो जाते हम खुद भी   शून्य के पीछे नहीं लगे हमने शून्य को अपने पीछे लगाया तब शून्य के कारण दस गुणा समझदार हो गए हम फिर हम मिले न किसी को घटाया बढाया न अपने से बांटा जोड़ा भी नहीं सिर्फ एक दूसरे को गुणा किया और एक सौ हो गए.

क्यूँ ???

क्या ईश्वर ने बीज,पौंधे, पेड़, पशु-पक्षी और मनुष्य इसलिए बनाये कि पौंधा पेड़ बन कर बीज को सुखा दे? शेर मेमने को निगल ले, बाज मैना को झपट जाए? ताक़तवर कमज़ोर को सताए मनुष्य जीवित मनुष्य को मृत कर दे? अगर ब्रह्मा को अपनी पृकृति यूँ ही ख़त्म करनी होती तो पालने और रक्षा करने वाले विष्णु क्यों बार बार जन्म लेते ब्रह्मा ही खुद शंकर बन कर अपनी पृकृति स्वयं नष्ट न कर देते?

मैदान की लड़की

बेटी अब माँ बन गयी थी सुबह सुबह उठ कर बच्चों, पति और खुद के लिए नाश्ता बनाना बच्चों को उठा कर ब्रश कराना, नहलाना धुलाना, पति को बेड टी देना फिर बच्चों को टिफिन दे कर स्कूल भेजना और फिर अपना नाश्ता करना इसी बीच पति और अपना खाना बनाना और पैक करना खुद और पति के नहाने के बाद उनके कपड़े निकाल देना पति के तैयार हो जाने के बाद उन्हें उनका टिफिन पकड़ाना और दरवाज़े तक विदा करना बिलकुल माँ की तरह सब करती थी बेटी अब खुद तैयार होने के लिए वह आईने के सामने है बालों पर कंघी करते हुए उसे यकायक माँ याद आ जाती हैं जब भी वह माँ की कंघी करती तो उनके सर के बीचो बीच पाती बालों का अभाव वह माँ से मज़ाक करती पूछती माँ तुम्हारे सर यह गड्ढा कैसे हुआ? माँ गहरी सांस लेकर कहती- बेटा पहाड़ की ज़िन्दगी बेहद कठिन होती है हम औरतों को ही दूर से पानी भर कर और लकड़ियाँ बटोर कर उनका भार सर पर ढो कर लाना पड़ता है जिस सर पर हर दिन इतने भार रखे जाएँ उस सर पर बाल कैसे हो सकते हैं? तुम भाग्यशाली हो बेटी मैदान में हो, ज़िन्दगी इतनी कठिन नहीं हैं फिर तुम्हारे सर पर बाल भी कितने लम्बे और घने हैं . बे...

भिखारन माँ

फटे गंदे कपड़ों वाली मैली कुचैली भिखारन उसके हाथों के बीच छाती से चिपकी नन्ही बच्ची बिलकुल गुलाब की कली जैसी सुन्दर कपड़ों में लिपटी हुई बरबस ध्यान आकृष्ट कर रही थी आते जाते लोगों का- इस मैली भिखारन की गोद में                                फूल जैसी गोरी बच्ची कैसे कपडे भी देखो कितने सुन्दर हैं एक का ध्यान गया तो दूसरे से कहा ऐसे ही काफी लोगों की भीड़ इक्कट्ठा हो गयी किसकी हैं बच्ची ? इसकी तो नहीं ही है. कही से उठा लायी है, तभी तो सुन्दर कपड़ों में है. भिखारन को सशंकित निगाहें शूल सी चुभने लगीं क्या यह लोग मुझसे मेरी बच्ची छीन लेना चाहते हैं ? इसलिए भागी लोगों का शक सच साबित हो गया वह पीछे पीछे दौड़े पकड़ो पकड़ो ! बच्ची चोर को पकड़ो कमज़ोर भिखारन भाग न सकी पकड़ ली गयी पोलिस आ गयी, पूछ ताछ करने लगी मालूम पड़ा- भिखारन के साथ किसी अमीर शराबी ने बलात्कार किया था बच्ची इसी बलात्कार की देन थी अस्पताल ...

इंतज़ार

मैंने देखा है प्रतीक्षा करती आँखों को जो बार बार दरवाजे से जा चिपकती थीं। यह मेरी माँ की आंखे थी जो पिता जी की प्रतीक्षा किया करती थीं। वह हमेशा देर से आते माँ बिना खाये पिये उनका इंतज़ार करती हम लोगों को खिला देतीं खुद पिता के खाने के बाद खातीं। पिता आते, खाना खाते फिर 'थक गया हूँ' कह कर अपने कमरे में जा सो जाते। माँ से यह भी न पूछते कि तुमने खाया या नहीं यह तक न कहते कि अब तुम खा लो। मुझे माँ की यह हालत देख कर पिता पर और ज़्यादा माँ पर क्रोध आता कि वह खा क्यूँ नहीं लेतीं। क्यूँ प्रतीक्षा करती हैं उस निष्ठुर आदमी की जो यह तक नहीं कहता कि तुम खा लो। आज कई साल गुज़र गए हैं माँ नहीं हैं फिर भी दो जोड़ी आंखे दरवाजे से चिपकी रहती हैं अपने पति के इंतज़ार में मेरी।

सात बेतुक

मैंने एक कविता लिखी मित्र ने पढ़ा और पूछा- भाई यह क्या लिखा है? मैंने कहा- जो तुमने समझा वही रही बात मेरी तो मैं अभी समझ रहा हूँ।       (२) मैंने कसम खाई कि मैं शराब नहीं पीऊँगा पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ लोगो के मेरे प्रति इस अविश्वास से मैं इतना दुखी हुआ कि पिछले सप्ताह से लगातार पी रहा हूँ।         (३) मैंने पत्नी से कहा- तुम बच्चों को सम्हालती नहीं बहुत शरारती हो गए हैं। पत्नी एक शरारती मुस्कान के साथ बोली- शरारती बाप के बच्चे और क्या होंगे।                (४) अंधे को नाच दिखाना बहरे को गीत सुनाना ही जनता और नेता का रिश्ता है .              (५ ) नेता जी मेरे पास आए, हाथ जोड़ कर बोले- भाई, वोट ज़रूर देना मुझे भूल मत जाना मैंने कहा- नेता जी, भूलना साझी बीमारी है आप वोट लेने के बाद हमे भूल जाते हो हम आपके जाने के बाद आपको भूल जाते हैं। ...

उस्ताद

मैं अक्षरों को तर्क के अखाड़े में उतार देता हूँ अक्षर लड़ते रहते हैं एक दूसरे को जकड़ते और छोड़ते , शब्द बनाते और उनसे वाक्यों के जाल बुनते मैं इन  तर्कों को उछाल देता हूँ लोगों के बीच। लोग मेरे बनाए तर्क जाल में उलझते, निकलने के फेर में और ज़्यादा उलझते हैं मैं बस दूर से देखता रहता हूँ तर्क के  पहलवानों से लड़ते पिद्दियों को सुनता हूँ संतुष्ट लोगों को मुंह से अपने लिए जय जयकार मैं खुश होता हूँ अपने शागिर्दों की विजय पर मैं  तर्क के अखाड़े का उस्ताद जो हूँ ।

छेद

एक बार मैंने आसमान में छेद कर दिया मैंने आसमान से कुछ गिरने के अंदेशे से सावधानीवश अपने सर पर हाथ रख लिया मगर कुछ न हुआ, ना आसमान गिरा, न कुछ और. इससे मैं उत्साहित हुआ आसमान में छेद करने में सफल होने के उत्साह में मैंने अपने घर की छत में छेद कर दिया थोड़ी देर बाद, बदल घिर आये जम कर बरसे छत पर मेरे बनाये छेद से बारिश का पानी धार बन कर मेरे सर को चोट पहुंचा रहा था.

आदमी घड़ी नहीं

आदमी समय के साथ नहीं बदलते समय के साथ मौसम बदलते हैं, महीने हफ्ते बीतते हैं, दिन और रात होती हैं घड़ी की सुइयां सरकते हुए स्थान बदलती है। मगर आदमी ! ऐसा नहीं करता वह समय से अनुभव लेता है इस अनुभव से सीख कर खुद को मौसम के अनुकूल ढालता है हफ्ते महीने बीतने के बाद हर साल जन्मदिन की खुशियां मनाता है दिन में अपने काम करता है रात में घर को समय देता है आराम करता है वह घड़ी की सुई नहीं है क्यूंकि घड़ी की सुइयां समय नहीं बताती बेटरी के इशारे पर चलती है। आदमी किसी के इशारों का ग़ुलाम नहीं है भाई।

पाँच बातें

 (1) छोटे पैर वालों पर हँसना कैसा ! तीन लोक नापने वाले वामन ऐसे ही होते हैं। (2) हम राम नहीं हो सकते क्यूंकि, शबरी ने राम को जूठा कर वह बेर खिलाये जो सचमुच मीठे थे। राम ने इसमे भक्ति देखी हमने शबरी की जाति देखी। (3) इंसान और फल का फर्क पेड़ से फल गिरता है लोग उठा कर खा जाते हैं लेकिन जब इंसान गिरता है तो उसे कोई उठाता तक नहीं, सभी हँसते है। क्यूंकि, जहां गिरा फल मीठा होता है वहीं गिरा इंसान विषैला होता है। (4) नन्ही चींटी का रेंगना सबक है वह रेंग रेंग कर भी भोजन मुंह मे दबा कर घर ही जाती है। (5) जीवन कितना है ? एक सौ साल या हजार साल अगर सांस लेते रहो हर सांस के साथ सौ साल तक अगर कुछ करते रहो तो हजारों हज़ार साल भी। (6) 'जाने दो' 'हटाओ' 'फिर देखेंगे' 'हम ही हैं क्या' दोस्त टालने के लिए ज़्यादा शब्द ज़रूरी नहीं।

ढाबे के गुलाब

ये वह फूल नहीं हैं जो चाचा नेहरु की जैकेट के बटन होल से टंगा नज़र आता है. कहाँ चाचा के दिल से सटा सुर्ख गुलाब कहाँ पसीने और गंदगी से बदबूदार पीले चेहरे और खुरदुरे हाथों वाले ढाबे पर बर्तन मांजते बच्चे ! उनके चारों ओर रक्षा करने वाले गुलाब के कांटे नहीं उन्हें बींध देने वाले नागफनी काँटों की भरमार है. ऐसे बच्चे चाचा के गुलाब कैसे हो सकते हैं? फिर, क्या कभी किसी ने देखे हैं चाचा की नेहरु जैकेट पर सजा मुरझाया गुलाब?

अमर जीवन

अगर जीवन सिर्फ इतना होता कि मरने के साथ खत्म हो जाता तब वह लोग अमर क्यूँ हुए होते जो सदियों से हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हम उन्हे आज भी उनकी वर्षगांठ या पुण्य तिथि पर याद करते हैं.

सपने

मैं कई दिन सोया नहीं खुली आँख लिए जागता रहा होता यह था कि मैं सोते हुए सपने बहुत देखता था फिर यकायक आँख खुल जाती थी सपने खील खील हो बिखर जाते थे. मुझे सपनों का टूटना बड़ा ख़राब लगता था. ऐसे ही कई दिन बीत गए,   मुझे जगे हुए कि एक दिन ख्वाब मेरे सामने आ गया बोला- तुम सो क्यूँ नहीं रहे ? मैंने पूछा- तुम कौन हो पूछने वाले यह मेरा निजी मामला है. ख्वाब बोला- यही तो कमी है तुम ख्वाब देखने वालों की कि आँख खुलते ही तुम मुझे भूल जाते हो. अरे, अगर तुम्हे जागने के बाद मैं याद रहूँगा तभी तो तुम मुझे साकार कर पाओगे भाई, सपने जाग कर भूल जाने के लिए और टूटने पर रोने के लिए मत देखा करो.

आसमान गिरा

एक दिन आसमान मेरे सर पर गिर पड़ा आसमान के बोझ से मैं दबा और फिर उबर भी गया. आसमान हंसा- देखा, तुम मेरे बोझ से दब गए मैंने कहा- लेकिन गिरे तो तुम !!!

शहर के लोग

तुमने देखा मेरे शहर में मकान कैसे कैसे हैं कुछ बहुत ऊंचे कुछ बहुत छोटे और कुछ मंझोले इनके आस पास, दूर कुछ गंदी झोपड़ियाँ पहचान लो इनसे मेरे शहर के लोग भी ऐसे ही हैं.

माँ और नदी

माँ कहती थीं- बेटा, औरत नदी के समान होती है आदमी उसे कहीं, किसी ओर मोड़ सकता है इस नहर उस खेत से जोड़ सकता है वह नहलाती और धुलाती है अपने साथ सारी गंदगी बहा ले जाती है मैंने पूछा- माँ, नदी को क्रोध भी आता है तब वह बाढ़ लाती है सारे खेत खलिहान और घर बहा ले जाती है  !!! माँ काँप उठीं, बोली- ना बेटा, ऐसा नहीं कहते नदी को हमेशा शांत रहना चाहिए उसे कभी किसी का नुकसान नहीं करना चाहिए । एक दिन, पिता नयी औरत ले आए घर के साथ माँ के दिन और रात भी बंट गए माँ क्रोधित हो उठी पर वह बाढ़ नहीं बनीं उन्होने खेत  खलिहान और घर नहीं बहाये उन्होने आत्महत्या कर ली चार कंधों पर जाती माँ से मैंने पूछा- माँ तुम खुद क्यूँ सूख गईं विनाशकारी  बाढ़ क्यूँ नहीं बनी कम से कम विनाश के बाद का निर्माण तो होता. लेकिन यह याद नहीं रहा मुझे कि माँ केवल नदी नहीं औरत भी थीं.

अर्जुन

यह शब्द तब तक हमारे हैं जब तक यह मुंह के तरकश से निकल कर जिव्हा की कमान से छोड़े नहीं जाते लेकिन यह तब घातक हो जाते हैं, जब अनियंत्रित और खतरनाक तरीके से सामने वाले पर छोड़े जाते हैं उस समय इनसे घायल हो कर न जाने कितने भीष्म पितामह इच्छा मृत्यु की बाट जोहते हैं लेकिन तब भी घमंड भरा अर्जुन अपने  गाँडीव का रक्त पोंछता हुआ अगले कुरुक्षेत्र की  तैयार में जुट जाता है.  

निराश उम्मीद

पहली तारीख को वह बहुत खुश खुश ऑफिस जाता है। क्यूंकि आज तनख्वाह का दिन है आज उसे अपनी गृहस्थी चलाने बच्चे को कपड़े दिलाने की उम्मीद पूरी करने के लिए रुपये मिलेंगे । वह तनख्वाह जेब में धरकर बाहर निकलता है यकायक वह निराश हो उठता है सामने खड़ा हुआ साहूकार, उसे देख कर मुस्कुरा रहा है मगर उसके चेहरे की खुशी यकायक गायब हो जाती है क्यूंकि अब साहूकार उसके बच्चे की नए कपड़े की उम्मीद छीनने वाला है।

पाँच रोटियाँ

        (१) भाई रोटी दो प्रकार की होती हैं, एक जो हम पूरी खा जाते हैं, दूसरी जो हम थोड़ी खा कर फेंक देते हैं. यह जो हम थोड़ी रोटी फेंक देते है ना.... उसे कुछ भूखे लोग हमारी पहली रोटी की तरह पूरी खा जाते हैं बिलकुल भी नहीं फेंकते.         (२) मैं बचपन में रोटी को लोती बोलता था. फिर बड़ा होकर मैंने उसे रोटी कहना सीख लिया लेकिन मैं आज भी रोटी कमाना नहीं जान पाया हूँ.          (३) मैं सोचता हूँ कि अगर भूख न होती तब रोटी की ज़रुरत नहीं होती तब ऐसे में क्या होता ? आदमी क्या करता क्या तब आदमी सबसे संतुष्ट होता क्यूंकि रोटी के लिए ही तो मेहनत कर कमाता है आदमी. लेकिन मेरे ख्याल से आदमी तब भी मेहनत करता रोटी कमाने के लिए नहीं, सोना बटोरने के लिए अपनी तिजोरी भरने के लिए क्यूंकि सोना बटोरने की भूख तब भी ख़त्म नहीं होती.           (४) जब मैंने अपने पैसे से ...

अपने

                  जीवन में कई ऐसे पल आते हैं, जब अपने हमको छल जाते हैं. घन सा चल जाता है दिल पर, आँखों में आंसू आ जाते हैं, हम चाहें उनको जितना भी, वह हमको उतना तड़पाते हैं. सूर्योदय सूर्यास्त सा जीवन है, हर रात के बाद अँधेरे आते हैं. दुःख सुख में क्यूँ फर्क करे हम, जिन्हें मिलना है वह मिल जाते हैं.

दीपावली पर

मैंने दीपावली की रात एक दीपक जलाया ही था कि तभी तेज़ हवा का झोंका आया लगा, नन्हा दीपक घबराकर काँप रहा है, बुझने बुझने को है । मैंने घबराकर, उसके दोनों ओर अपनी हथेलियों की अंजुरी लगा दी। हवा के प्रहार के साथ थोड़ा झूलने के बाद दीपक की लौ स्थिर हो गयी मैंने आश्वस्त होकर हथेलियाँ हटा ली। यह देख कर दीपक ने पूछा- तुम इतना घबरा क्यूँ गए थे? अमावस की इस रात को भरसक उजाला देने का दायित्व मेरा है मुझे पूरी रात जलते रहने की कोशिश करनी है रात भर ऐसे ही हवा के झोंके चलते रहेंगे अभी तुम चले जाओगे तब भी हवा के ऐसे तेज़ झोंके आते और जाते रहेंगे मुझे बुझाने की कोशिश करते रहेंगे उस समय, मुझे ही स्थिर रहना है, विपत्तियों के इन झोंकों का सामना करना है, इन्हे परास्त करना है। हो सकता है कि जब तुम सुबह आओ तो मुझे अधजला पाओ मेरा तेल थोड़ा बचा, इधर उधर गिरा नज़र आए ऐसे में तुम निराश मत होना। बस इतना करना बचे खुचे तेल में नया तेल डाल कर फिर से मुझे जला देना आखिर अंधकार को भगाने का प्रयास कल भी तो करना है।          (२) जब दीवाली का...

लकड़ी

मैं सीली लकड़ी नहीं कि, खुद तिल तिल कर सुलगूँ और दूसरों को धुआं धुआं करूँ . मैं सूखी लकड़ी हूँ धू धू कर सुलगती हूँ खुद जलती हूँ और किसी को भी जला सकती हूँ अब यह तुम पर है कि तुम मुझसे अपना चूल्हा जलाते हो या किसी का घर !

आसमान

करोड़ों सालों से आसमान तना हुआ है हम सब के सर पर होते हुए भी वह हम पर गिरता नहीं है क्या आपने सोचा कि ऐसा क्यूँ? क्यूंकि वह बिल्कुल हल्का है अपने अहम के भार के बिना तब हम क्यूँ करोड़ों साल के इस सत्य को स्वीकार नहीं करते क्यूँ अपने ही भार से गिर गिर पड़ते हैं?

डरपोक बिल्ली

मुझे छेड़ो नहीं, मुझे घेरो नहीं, मैं डरपोक बिल्ली सा हूँ। तुम्हारी छेड़ छाड़ और घेर घार से भागता हुआ। मेरे पास लंबे नुकीले, मजबूत नाखून हैं इसके बावजूद मैं पलटवार नहीं करता तुम पर प्रहार नहीं करता क्यूंकि मैं खुद भी जीना चाहता हूँ और तुम्हें भी जीने देना चाहता हूँ लेकिन ख्याल रहे अगर तुमने मेरा पीछा न छोड़ा मुझे घेरना ना छोड़ा तो मैं डर जाऊंगा इतना डर जाऊंगा कि मर जाऊंगा ऐसे में जबकि मुझे जीना है तो मुझे तुम्हें मारना होगा अपने तीखे नाखूनों से फाड़ना होगा क्यूंकि मैं एक डरपोक बिल्ली हूँ।

गांधी

गांधी हमारे देश के नहीं थे भाई गांधी हमारे देश के कैसे हो सकते हैं। कहाँ हम लक़दक़ कपड़ों में घूमने वाले इंडियन कहाँ लंगोटी बांधे भारत की गली गली घूमता फकीर कहाँ हम महंगी घड़ी बांधे फॉरवर्ड कहाँ लाठी पकड़े अंग्रेजों को हकाने वाला बॅकवर्ड कहाँ हम फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने पर गर्व करने वाले अँग्रेज़ीदाँ कहाँ भारतीय भाषाओं के बल पर अंग्रेजों को झुकाने वाला हिंदुस्तानी। वह इंडिया के लायक नहीं था तभी तो आज़ादी के बाद गोडसे ने उसे शरीर से मारा हमने उसे विचारों से भी मार दिया। अरे भाई कह दिया न गांधी हमारे देश के लिए नहीं थे गांधी जयंती २ अक्टूबर

हे राम

                    हे राम !!! हे राम, तुम वन गए सीता को साथ लेकर. सीता ने चौदह बरस तक मिलन और विछोह झेला लेकिन जब तुम अयोध्या वापस आये, तो सीता को फिर से वन क्यूँ भेज दिया. क्या पुरुषोत्तम का उत्तम पौरुष यही है कि वह अपनी स्त्री की इच्छा न जाने? अहिल्या सति थीं, इसलिए राम के चरण का स्पर्श पाकर फिर से पत्थर से नारी बन गयीं लेकिन रावण के बंदीगृह से छूटी सीता राम का स्पर्श पाकर भी पत्नी क्यूँ नहीं बन सकी.

मेरे चार वचन

मेरे चाहने वाले मेरी राहों पर कांटे बिखेरते  है मैं बटोरते चलता हूँ कि कहीं उन्हे चुभे नहीं। २. अगर लंबाई पैमाना है तो लकीर सबसे लंबी है, आदमी जितनी चाहे लंबी लकीर खींच सकता है। ३. मुझे बौना समझ कर हंसों नहीं ऐ दोस्त, मैं वामन बन कर तीनों लोक नाप सकता हूँ। ४. उन्होने पिलाने का ठेका नहीं लिया है, तभी तो लोग पीने को ठेके पर जाते हैं।  

मेरा अंदाज़

        मेरा अंदाज़ मेरी चाहत से कुछ नहीं होता, तुम्हारे चाहने वाले बहुत से हैं। तुम्हें वफाओं से फर्क नहीं पड़ता, पर दुनिया में बेवफा बहुत से हैं। तुम लाख न मानो, मानना पड़ेगा, मेरे जैसे लोग कहाँ बहुत से हैं। बेशक मेरे पास वह अंदाज़ नहीं, पर बेअंदाज राजा यहाँ बहुत से हैं

हाइकु

हँसता सूर्य राक्षस से पहाड़ हिम्मत मेरी   २- नदी की धार गोरी की कमरिया मुग्ध देखूं मैं. ३- बहती हवा ममता का आँचल मेरा सुकून ४- चुभती धूप भीष्म की शर शैया मैं हूँ बेचैन ५- आ गयी रात रो रहे हैं कुत्ते बच्चे सो गए. 6- शीत लहरी पत्ते पीले हो गए बुड्ढा मरेगा. 7-   सूना आकाश उड़ते चील कौव्वे मेरी तमन्ना   ८- काले बादल विधवा रो रही है   जल ही जल ९-   प्रिय  न आये शाम बीत रही है आँखों में रात १०- रात आ गयी जुगनू उड़ रहे दिखती राह १३. दुल्हन आई   आँगन में बौछार बौराया मन .   १४. बौर आ गयी बारात आ रही है खुशी की बात .

समानता

                                       समानता गरीब बच्चे को अमीर बच्चे की आधुनिक माँ में अपनी माँ नज़र आती हैं. क्यूंकि उसकी माँ की तरह अमीर बच्चे की आधुनिक माँ भी अधनंगी नज़र आती है.

बाबा दुल्हन और वह

पतझड़ में याद आते हैं  सूखे खड़खडाते पत्तों की तरह खांसते बाबा .   मेरी खिड़की से झांकता सूरज जैसे झिझकती शर्माती दुल्हन. मैंने उन्हें पहली बार देखा छत पर खड़े हुए दूर कुछ देखते हुए ढलते सूरज की रोशनी में उनके भूरे बाल गोरे चेहरे पर सोना सा बिखेर रहे थे मैं ललचाई आँखों से सोना बटोरता रहा तभी उनकी नज़र मुझ पर पड़ी आँखों में शर्म कौंधी वह ओट में हो गए इसके साथ ही बिखर गया सांझ में सोना.

छह बीज

सुना है मेरे पड़ोस में आंधी बड़ी आई थी. धुल से अटे पड़े हैं, मेरे घर के कमरे भी.          -२- संध्या और श्याम का साथ दोनों अँधेरे में डूबते हैं साथ.         -३- अलसाई हसीना, सुबह की अंगडाई दोनों करेंगी तय गली और फूटपाथ में दिन भर का सफ़र .         -४- मैं तपते सूरज के नीचे कंक्रीट के जंगल में डामर की सड़क के साथ होता हूँ पसीना पसीना.          -५- जब पीछे चलती परछाई आगे  आकर चलने लगती है, मैं घबराकर मुड़ कर देखता हूँ शाम पीछे खडी है.          -६- रात की तरह काली रंगत वाली माँ पर दोनों ही थपक कर सुलाती हैं- ना!  

दोषी चाकू

एक वीराने स्थल पर एक इंसान का मृत शरीर पाया गया उस मृत शरीर को देख कर पहला प्रश्न यही था- उसे किसने मारा- पशु ने या किसी इंसान ने? मृत शरीर पर नाखूनों की खरोंच के, दांतों से चीर फाड़ के कोई निशान नहीं थे इसलिए यह तय हो गया कि उसे किसी पशु ने नहीं मारा. पास में रक्त से भीगा एक बड़ा चाकू पड़ा हुआ था. इसलिए यह तय पाया गया कि चाकू से उस इंसान का क़त्ल  किसी इंसान ने ही किया है. पर कोई साक्ष्य नहीं था कि उसे किसने मारा उस दिन उस क्षेत्र में दो सम्प्रदायों के बीच धार्मिक उन्माद पैदा हुआ था इसलिए वह इंसान  धर्म युद्ध में मारा गया  माना गया  मौक़ा ए वारदात पर मौजूद चाकू को पहला कातिल माना गया.

पिता और माँ

         पिता   मैंने दर्पण में अपना चेहरा देखा. बूढा, क्लांत, शिथिल और निराश. सहसा मुझे याद आ गए अपने पिता.        माँ उस भिखारिन ने कई दिनों से खाना नहीं खाया था. दयाद्र हो कर मैंने उसे दो रोटियां और बासी दाल दे दी. अभी वह बासी दाल के साथ रोटी खाती कि उसके मैले कुचैले दो बच्चे आ गए. आते ही वह बोले- माँ भूख लगी है. भिखारिन ने दोनों रोटियां बच्चों में बाँट दी. बच्चे रोटी खा रहे थे. भिखारिन अपने फटे आँचल से हवा कर रही थी, उन्हें देखते हुए उसके चहरे पर ममतामयी मुस्कान थी. मुझे सहसा याद आ गयी अपनी माँ.           

इच्छा

     इच्छा मनुष्य जीना क्यूँ चाहता है? क्या इसलिए कि वह मरना नहीं चाहता है? नहीं खोना नहीं, केवल पाना चाहता है.

तुम्हारा पन्ना फिर भी

          तुम्हारा पन्ना उस दिन मैं यादों की किताब के पन्ने पलट रहा था. उसमे एक पृष्ठ तुम्हारा भी था. बेहद घिसा हुआ अक्षर धुंधले पड़ गए थे. पन्ना लगभग फटने को था. मगर इससे तुम यह मत समझना कि मैंने तुम्हारे पृष्ठ की उपेक्षा की. नहीं भाई, बल्कि मैंने तुम्हे बार बार खोला है और पढ़ा है.       फिर भी मैंने पाया कि जीवन के केवल दो सत्य हैं- जीना और मरना. मैंने यह भी पाया कि लोग मरना नहीं चाहते,   जीना चाहते हैं . पर जीते हैं मर मर के.

माँ की याद

                                                           माँ की याद कल मुझे यकायक अपनी माँ की याद आ गयी. मुझे ही नहीं घर में सभी को यानि पत्नी और बेटी को भी याद आई. वजह कुछ खास नहीं. हम लोग घूमने निकल रहे थे. .. ठहरिये, आप यह मत सोचना कि हम उन्हें अपने साथ ले जाना चाहते थे. नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं था. क्यूंकि वह अब इस दुनिया में नहीं रहीं. अगर होती भी तो भी हम साथ नहीं ले जाते. कभी ले भी नहीं गए थे. बड़ी चिढ पैदा करने वाली माँ थी वह. दिन भर बोलती रहती. यह ना करो, वह न करो. बेटी को रोकती कि अकेली मत जा, ज़माना बड़ा ख़राब है. बेटी चिढ जाती. नए जमाने की आधुनिक, ग्रेजुएट लड़की थी वह.  उसे टोका  टाकी बिलकुल पसंद नहीं थी. चिढ जाती. भुनभुनाते हुए उनके सामने से हट जाती. माँ खाने में भी मीन मेख नि...

पीठ

वह मुझे जानते थे, अच्छी तरह पहचानते  थे उस दिन उन्होने मुझे देखा पहचाना भी, फिर मुंह फेर कर दूसरों से बात करने लगे। फिर भी मैं खुश था। क्यूंकि, मतलबी यारों की पीठ ही अच्छी लगती है।

दस्तक

देखो, सामने वाला दरवाज़ा बंद है. तुम उसे खटखटाओ. आम तौर पर लोग बंद दरवाज़े नहीं खटखटाते क्यूंकि, अजनबी दरवाज़े नहीं खटखटाए जाते. इसलिए कि पता नहीं कैसे लोग हों बुरा मान जाएँ. लेकिन इस वज़ह से कहीं ज्यादा कि, हम अजनबियों से बात करना पसंद नहीं करते. लेकिन मैं, बंद दरवाज़े खटखटाता हूँ, पता नहीं, बंद दरवाज़े के पीछे के लोगों को मेरी ज़रुरत हो. मगर इससे कहीं ज्यादा, मैं नए लोगों को जान जाता हूँ. मैं उन्हें जितना दे सकता हूँ. उससे कहीं ज्यादा पाता हूँ. इसी लिए, बंद दरवाज़े खटखटाता हूँ.

काश

आसमान पर  ऊंचे, ऊंचे और बहुत  ऊंचे उड़ते हुए पंछियों को कोई कुछ नहीं कहता. मगर लोग मुझसे कहते हैं-  बहुत उड़ रहे हो, इतना ऊंचा न उड़ो  नहीं तो गिर जाओगे. जंगल में स्वछन्द विचरते कूदते फांदते पशुओं को कोई मना नहीं करता  पर लोग मुझसे क्यूँ कहते हैं इतना स्वछन्द क्यूँ विचरते हो अपनी ज़िम्मेदारी समझो, इतनी लापरवाही ठीक नहीं . ऐसे में  मैं सोचता हूँ- काश मैं खुले आसमान के नीचे जंगल में होता.

यह बड़े

               एक पार्क में छोटे बच्चे पार्क में खेलते हैं. उनके बड़े उनसे दूर बैठ कर, गपियाया करते हैं .  कभी कभी चिल्ला देते हैं- यह न करो, लड़ों नहीं, यह गन्दी बात है, मिटटी में क्यूँ लोट रहे हो ? आदि आदि, न जाने क्या क्या .  मुझे समझ में नहीं आता, यह बड़े दूर बैठ कर बच्चो को उपदेश क्यूँ देते हैं? उनकी तरह लड़ते हुए, मिटटी में लोटते और सब कुछ करते हुए खेलते क्यूँ नहीं ?

मेम और फादर

                मैम और फादर ओ मेरे मास्टर जी, हम छात्र तुम्हे मास्टर जी कहते थे, टीचर जी नहीं. इसके बावजूद तुमने हमें टीच भी किया.  इसी टीच यानि शिक्षा का परिणाम है कि मैं ईमानदारी से नौकरी कर सका, निष्ठा से अपना काम कर सका मेहनत करके जन सेवा की. पर अब कोई,  मास्टर या मास्टरनी नहीं . अब फादर या मैम हैं, जो सिखाते हैं- बच्चों आपसे कोई बड़ा नहीं, आप सभी के फादर यानि बाप हो, कोई हम नहीं  सभी 'मैं' हैं जिनके आगे 'मैं' लगा हो, वह मैम और क्या सिखाएंगी. इसीलिए, आज मैं की संख्या ज्यादा है, जनता के सेवक कम बाप ज्यादा हैं .

बादल का श्राप

              बादल का श्राप एक बार बेहद सूखा पड़ा, अनाज पैदा होना बंद हो गया . पानी के बिना धरती का सीना तक फट गया लोग दुआ करने लगे, आसमान की ओर हाथ उठा कर,  जार जार रोने लगे . यह देख, आसमान द्रवित हो उठा. उसने बादल को बुलाया धरती पर बरसने की आज्ञा दी.  बादल पानी बरसाने लगा, पानी इतना बरसा, इतना बरसा की बाढ़ आ गयी.  धरती  जलमग्न हो गयी. मवेशी मरने लगे पहले घर डूबे, फिर लोग डूबने लगे प्रकृति का प्रकोप देख कर लोग बिलखने लगे, आसमान को कोसने लगे मनुष्य का ऐसा चरित्र देख कर आसमान ग्लानी से भर गया उसकी आँखों में, सतरंगी आंसूं झिलमिला रहे थे.  यह देख कर बादल  फूट फूट कर रोने लगा .

आंसुओं का खिलखिलाना

                      आंसुओं का खिलखिलाना मुझे रोते रोते खिलखिलाना अच्छा लगता है. तुम भी देखो ऐसा करके, सामने के तमाम दृश्य तुम्हारे आंसुओं के बीच से होते हुए, तुम्हारी खिलखिलाहट के साथ, झिलमिलाने लगते हैं.

गंदे बच्चे

                 गंदे बच्चे मैंने देखा, वह मैले कुचैले बच्चे गालियाँ बकते हैं, एक दूसरे की माँ बहन से नाता जोड़ते हैं . बिना यह जाने कि उस सामने वाले बच्चे की माँ भी उतनी ही ग़रीब और असहाय है, जितनी उसकी अपनी माँ. इसके बावजूद  वह बच्चे एक दूसरे की माँ बहन को बेईज्ज़त करते रहते हैं . क्यूंकि वह इतना तो अच्छी तरह से जानते हैं कि जिसकी माँ बहन की वह बेईज्ज़ती कर रहे हैं वह उतना ही कमज़ोर और असहाय है,  जितने वह खुद हैं.