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सोमवार, 28 जुलाई 2025

इकन्नी !



रात काफी  गहरी हो चली थी।  मैं पैदल ही घर की ओर चल  पड़ा।  यद्यपि, मेरी जेब में घर तक जाने  के लिए पर्याप्त पैसा था।  किन्तु, मैं पैदल ही क्यों चल पड़ा था ! रिक्शा क्यों नहीं पकड़ा मैंने?


मैं उस समय १२-१४ साल का रहा होऊंगा। आठवी कक्षा में पढ़ रहा था।  सरकारी स्कूल में दाखिला था। इसलिए  फीस कम थी।  किन्तु, अन्य अभाव तो थे ही। कभी खाने पीने की चीज़ का । कभी जूतों कपड़ों का। 


पिताजी को पेंशन मिलती थी। उससे सात  जनों के परिवार का गुजारा कैसे होता! अभाव तो बना ही रहता था।  किसी न किसी वस्तु की।  यह अभाव मुझे बहुत सालता था।  मैं किसी न किसी प्रकार से पैसे बचाने या बनाने की जुगत में रहता।


यह आदत मेरी स्कूल में भी थी।  माँ, मुझे इंटरवल में लैया चना खाने के लिए  इकन्नी  दिया करती थी। वह मेरी हाफ निक्कर की जेब में पड़ी रहती।  इंटरवल होता।  मैं खोमचे के पास आता।  तमाम बच्चे  खोमचे को घेरे अपनी लैया चने की पुड़िया का इंतज़ार करते।  पुड़िया मिलते ही खुशी खुशी खाने लगते। 


मैं उन्हें खड़ा देखता रहता।  मन ललचाता।  सोचता एक पुड़िया ले कर खा ही लूँ। किन्तु, मैं खोमचे तक जाने की हिम्मत ही नहीं कर पाता।  इकन्नी, मेरी जेब में हाथ की  उँगलियों के बीच गोल गोल घूमती रहती।  यह सिलसिला तब तक चलता, जब तक इंटरवल ख़त्म होने की घंटी न बज जाती।  मैं चैन की सांस लेता क्लास की ओऱ बढ़ जाता। अब मैं कैसे खा सकता था ! 


मैं आज भी, जेब में एक रुपये का सिक्का डाले चला जा रहा था।  सीतापुर बस स्टैंड से कब डालीगंज पार हो गया पता ही नहीं चला। क्यों? है न सोचने में बड़ी शक्ति होती है!  समय और दूरी का पता ही नहीं चलता।  कितना कदम, कितना मील,  कितना समय, कितने दिन हफ्ते और महीने साल गुजर जाते है!


गोमती पर बना डालीगंज का पुराना पुल पार हो गया।  अब मेरा दिल सहम गया था।  दिल का सहमना उस आसन्न भय के कारण था, जो कुछ कदम चलने के बाद, कुछ मिनटों में आना था। 


उस समय, लखनऊ का यह क्षेत्र इतना भरापूरा नहीं हुआ करता था।  पुल के बाद, दोनों तरफ खेतों की शृंखला थी। इन खेतों में अधिकतर सब्जियां उगाई जाती थी।  यह ताजा सब्जियां, उखाड़ कर  किसानों द्वारा रकाबगंज सब्जी मंडी में बेचीं जाती थी।  हम लोगों को अच्छी ताजा सब्जी सस्ते में मिल जाया करती थी।


किन्तु, इन खेतों के कारण रात बड़ी  डरावनी हो जाया करती थी। इतनी रात को कोई इधर से नहीं गुजरता था।  लोग  कहते थे कि यहाँ रात में चोर डकैत छुपे रहते हैं और  लूटपाट करते है।  किन्तु, मैं तो इस डरावनी रात में भी गुजर रहा था!


होता यह था कि हमारे घर में एक सज्जन आया करते थे। सीतापुर में उनकी फ्लोर मिल थी।  उसके काम के सिलसिले में उन्हें लखनऊ आना होता था।  वह जब भी लखनऊ आते, हमारे घर जरूर आते। देर शाम,वह बस पकड़ने निकलते तो मुझे ले लेते।  बस में बैठने के बाद वह मुझे रिक्शा के लिए एक रूपया थमा देते। कभी फिल्म देखने के बहाने भी पैसे दे देते थे । मैं फिल्म देखने का बड़ा शौक़ीन था।  वह इस बात को अच्छी तरह से जानते थे।  कभी फिल्म देखने साथ ले भी जाते।


खेतों के बीच से गुजरती सड़क पर मैं तेज कदमों से चला जा रहा था।  डाकुओं का डर भी था और एक रुपया छिन जाने का भी।  मार देंगे इसका भय उतना नहीं था।  एक छोटे बच्चे कोई कौन डकैत मारेगा !


सहसा मैं एक कुत्ता ऊंची आवाज में रोया।  उसकी आवाज बंद होती, इससे पहले ही सिटी स्टेशन से चलने की तैयारी कर रही ट्रेन के इंजन ने सीटी बजाई। इन दोनों आवाजों ने मेरे शरीर में भय का संचार कर दिया।  मैं लगभग काँप उठा।  तेज तेज कदमों से चलने लगा। थोड़ा चैन तब आया, जब सिटी स्टेशन पर पहुँच गया।  अब घर नजदीक था। मैं खुश था कि मैंने एक रुपया बचा लिया था।


इंटरवल ख़त्म हो जाता तो मैं क्लास में पढ़ने लगता।  पूरा समय सोचता रहता कि आज मैंने इकन्नी बचा ली।  माँ को दे दूंगा।  घर खर्च में काम आएंगी।


घर पहुँच कर मैंने बस्ता किनारे रखा। माँ ने मुझे देखा तो पूछा- आज पढ़ाई कैसी हुई?


मैंने जवाब दिया - ठीक। 


फिर मैंने निक्कर की जेब में हाथ डाला।  इकन्नी निकाल कर माँ के हाथ में रख दी।


माँ ने हथेली में इकन्नी देखी। माँ  बिलख पड़ी - खरूंड़ा इकन्नी भी नहीं खर्च कर पाया तू।



मैं चुप रहा ।


रात घर पहुंचा।  माँ मेरी प्रतीक्षा कर रही थी।  मैंने उनके पास जा कर एक रुपये का सिक्का उन्हें थमा दिया।  माँ  बोली - रिक्शा क्यों नहीं कर लिया बेटा? 


मैं इस बार भी चुप रहा। 

सोमवार, 14 जुलाई 2025

कही कोई किसी के बच्चे के लिए ऐसे कहता है !




कभी अतीत के पृष्ठ पलटो तो कुछ खट्टी, कुछ मीठी यादें कौंध जाती है। जीवन है।  समाज है।  हेलमेल। आना जाना। सम्बन्ध है। क्रिया प्रतिक्रिया होती रहती है।  इस प्रक्रिया में कुछ ऐसे अनुभव हो ही जाते है।





हम ऎसी कुछ स्मृतियाँ याद रखते हैं। कुछ बिसार दिया जाना चाहते  हैं। कुछ ऐसे अनुभव होते हैं, जिन्हे पुनः पुनः स्मरण करना बड़ा भला लगता है।  कुछ को विस्मृत कर देने का मन करता है।






किन्तु, इस अनुभव को क्या कहें ? क्या इन्हे भुला दिया जाए या याद रखा जाये ! यह मेरा निजी अनुभव या जिया हुआ क्षण नहीं है।इसे मुझे बताया गया। मेरी माँ ने बताया।  अपना अनुभव।  जिसे मैंने अनुभव किया।






मैं अपने इस अनुभव को एक कथा के रूप में आपके समक्ष रखता हूँ। कदाचित इस प्रकार से आप सुनना या पढ़ना चाहेंगे। स्मृतियों या विस्मृतियों का इतना आकर्षण नहीं, जितना कथा का होता है।






कथा एक माँ और उसके बच्चे की है।






बच्चा कोई बड़ा नहीं। अबोध शिशु।  कठिनाई से कुछ महीने का होगा।  माँ के आँचल में स्वयं को सुरक्षित अनुभव करने वाला। पूरा पूरा दिन, माँ के साथ खेलता, किलकारी भरता और रोता -खाता !






हुआ यह कि उस अबोध बालक के मूत्र थैली के निकट एक लाल दाना सा उभरा।  माँ ने नहलाते समय उसे साफ़ किया।  फिर कुछ लगा दिया।





कुछ दिन ठीक।  अचानक फिर उभरा।  इसे के बाद, एक के बाद एक कई दाने उभरते चले गए। वह लाल दाने फैलते गए।  दर्द करने वाले बन गए। बालक दर्द से बिलखता।  माँ उससे अधिक बिलख जाती।





घरेलु ईलाज से कोई लाभ न होता देख कर, माँ उसे डॉक्टर के पास ले गई। डॉक्टर ने जांच की।  पाया कि यह एक्जिमा था।  डॉक्टर ने दवा लिख दी।  किन्तु, दवा से कोई लाभ नहीं हुआ।  एक्जिमा पूरे शरीर में फैलता चला गया। एक समय ऐसा आया कि अबोध शिशु का पूरा बदन सड़ गया।  माँ उसको हाथ में उठती तो खाल हाथ में आ जाती।  माँ बच्चे की इस दशा पर रो पड़ती। बच्चे का रुदन माँ को एक पल भी चैन न लेने देता।





पैसे कम थे।  निजी चिकित्सक को दिखाना संभव नहीं हो पा रहा था। उस पर दवा से लाभ भी नहीं हो रहा था। इसलिए, माँ ने बच्चे को मेडिकल कॉलेज दिखाने का निर्णय लिया। कुछ शुभचिंतकों ने बताया भी था कि मेडिकल कॉलेज में स्किन डिपार्टमेंट बहुत अच्छा है। सटीक ईलाज हो जायेगा। कोई पैसा भी नहीं देना पड़ेगा।  सब निःशुल्क।






मेडिकल कॉलेज घर से दूर था।  पैसे की कमी थी। किन्तु, माँ को इसकी चिंता नहीं थी।  उसे अपने बच्चे को किसी भी प्रकार से ठीक करना ही था।  इसलिए वह उसे हाथों के बीच रख कर मेडिकल कॉलेज निकल पड़ी।






जैसा कि बताया कि पैसे की कमी थी। घर से मेडिकल कॉलेज पांच किलोमीटर से अधिक दूर था। रिक्शा पर ले जाना खर्चीला था। किन्तु, माँ को इससे कोई सरोकार नहीं था। उसे तो बस मेडिकल कॉलेज जाना ही थी।





माँ ने बच्चे को एक बारीक कपडे से ढका और पैदल ही निकल पड़ी मेडिकल कॉलेज की ओर। कड़ी धुप थी। सड़क तप रही थी। माँ पसीना पसीना हो रही थी।  किन्तु, उसे किंचित भी कष्ट अनुभव नहीं हो रहा था। पर वह उस समय बिलख उठती, जब बच्चा धुप की गर्मी से बेचैन हो कर रोने लगता। माँ उसे सीने से लगा कर कहती - बेटा बस पहुँच ही रहे है।





अस्पताल में लम्बी लाइन थी।  डॉक्टर के कमरे के बाहर लम्बी लाइन लगी थी।  माँ परचा बनवा कर लम्बी लाइन में खडी हो गई।





कुछ औरतों ने देखा।  पूछा - किसे दिखाने आई हो ?





अपने बेटे को - माँ ने संक्षिप्त उत्तर दिया।





औरतों में उत्सुकता बढ़ी।  एक गोद के बच्चे को एक्जिमा !!!





 देखें ज़रा।  माँ ने कपड़ा हटा दिया।





औरतें चीख उठी।  बच्चे के सड़े हुए चेहरे के बीच केवल दो काली काली आँखे जीवंत दिखाई दे रही थी।  अत्यंत वीभत्स दृश्य था।





औरते स्तब्ध। बिलख उठी।  बच्चा रो पड़ा।





औरतें हाथ जोड़े, आकाश की ओर देख कर कह रही थी - हाय हाय ऎसी औलाद देने से अच्छा होता यदि न ही देता।





माँ ने क्रोधित  दृष्टि से उन्हें भस्म कर देना चाहा।  औरतें सहम कर हट गई।




                               X                   X              X

कहानी अब ख़त्म।





इसके आगे क्या! बच्चा आज भी जीवित है।  माँ की उम्र से बड़ा हो गया है। किन्तु, माँ स्वर्गवासी हो चुकी है।





बच्चे ने माँ के दुःख को उनके मुंह से सुना है।  एक बार नही बार बार सुना है। माँ का ऐसा दुखद  अनुभव! इसे अनुभव कर ही वह बिलख उठता है।  सहम जाता है। उद्विग्न हो जाता है।





कही कोई किसी के बच्चे के लिए ऐसे कहता है !

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

१ जुलाई १९५३

१ जुलाई १९५३। भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न सन्दर्भ। किसी के लिए यह मात्र एक तिथि माह या सन। संभव है कि कई लोग इस तिथि की महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर दृष्टिपात करना चाहें। करते भी है।





किन्तु मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है। इस लिए कि सरकारी दस्तावेजों के अनुसार इस तिथि को मेरा जन्म हुआ था। इसी तिथि के अनुसार मुझे सेवा निवृत होना था। ३० जून २०१३ को। क्या मैं सेवानिवृत हुआयह किसी और समय पर हल करने वाला प्रश्न है।




मैं, सरकारी सेवा पुस्तिका का अनुसार, १ जुलाई १९५३ को जन्मा था।  यद्यपि, यह पूर्ण सत्य नहीं था। कारण यह कि हम लोगों के समय में घर आकर पढ़ाने वाले मास्टर ही विद्यालय में प्रवेश दिलाते थे।  उन्होंने ही, ७ जुलाई को स्कूल खुलने की तिथि के आधार पर ही मेरी जन्मतिथि १ जुलाई १९५३ लिखवा दी थी।  कहते हैं की कि उस समय बच्चों के स्कूल में भर्ती होने की आयु ५ या छह साल से कम नहीं होनी चाहिए थी। इसलिए १ जुलाई १९५३ मेरी जन्मतिथि मान ली गई। किसी जन्मकुंडली की आवश्यकता नहीं पड़ी।




इस जन्मतिथि की यात्रा, स्कूल की टीसी से निकल कर, कॉलेज, यूनिवर्सिटी और फिर प्रतियोगिता परीक्षा से होती हुई, सरकारी सेवा अभिलेखों में पसर गई। मैं प्रत्येक १ जुलाई को इसी तिथि पर बड़ा होता चला गया। और एक दिन सेवानिवृत भी होना था। अर्थात ३० जून १९१३ को।




किन्तु, झोल यहाँ है।




एक दिन मैं पुराने कागज पत्र टटोल रहा था।  पुराने कागजों को देखते हुए, मुझे एक कागज के टुकड़े में पिता की लिखाई दिखाई पड़ी। उत्सुकतावश मैंने उसे उठा लिया।




मैंने उसमे लिखा पढ़ा तो मैं चौंक गया। अरे, मेरी जन्मतिथि तो गलत दर्ज हुई है। पिता की लिखाई के अनुसार मेरा जन्म १ जुलाई १९५३ नहीं, १७ जुलाई १९५१ को हुआ था। अर्थात मैं आज ७२ साल का पूरा हो कर ७३वें में नहीं, ७४ साल पूरा हो कर, ७५वे प्रवेश करने में १५ दिन पूर्व की तिथि में था।





मैंने आगे पढ़ा तो मालूम हुआ कि १७ जुलाई १९५१ को बुद्धवार के दिन मैं जन्मा था। मैंने इसका फैक्ट चेक किया। इसके अनुसार, १७ जुलाई १९५१ को, बुद्धवार नहीं, मंगलवार था।  अर्थात पिताजी गलत थे। उन्होंने १७ जुलाई १९५१ को दिन बुद्धवार होना बताया था। १७ जुलाई १९५१ की तिथि याद रखने वाले पिता जी दिन के लिखने में असफल साबित हो रहे थे।





अब मैंने अपनी सरकारी जन्मतिथि १ जुलाई १९५३ के दिन का फैक्टचेक किया। इस तारीख़ को बुद्धवार था। मैंने सोचा। सोचा क्या तय ही कर लिया कि पिताजी ने तिथि १७ और सन गलत लिखा।  जुलाई उनको ठीक याद रहा। किन्तु, दिन भी गलत लिख गए।  




पिताजी ने तीन तीन गलतियां की थी। तिथि सन और दिन की।  जबकि, मेरी सरकारी अभिलेखों में लिखी १ जुलाई १९५३ की तिथि मंगलवार होने के कारण सही थी।





इस प्रकार से, मेरी जन्मतिथि के मामले में मास्टर, सरकारी दस्तावेज और मैं सही साबित हुए। पिता गलत।  

शनिवार, 28 सितंबर 2024

शायद मैं थक गया हूँ!

 


पैर उठते नहीं 

शरीर को सहन नहीं कर पा रहे 

शायद मैं थक गया हूँ 

मस्तिष्क साथ नहीं दे रहा 

अंग किसी की नहीं सुन रहे 

शायद मैं थक गया हूँ 

अतीत बहुत याद आता है 

वर्तमान मुझे सताता है 

शायद मैं थक गया हूँ!

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

यह कैसी दूरियां !

उस दिन बेटी को ऑफिस से कन्फर्मेशन लेटर मिला था।





दो तीन दिन से घर का माहौल टेंस था।  ऐसा लगा कि ऑफिस में सब कुछ ठीक नहीं है। कदाचित इसलिए तनावपूर्ण वातावरण स्वाभाविक भी था।  ऐसे में कौन अप्रभावित रह सकता है! माँ भी अछूती नहीं थी। 



माँ, अपनी बेटी के साथ, पति की इच्छा के विरुद्ध अपना प्रदेश, अपना नगर छोड़ कर, प्रदेश प्रदेश, नगर नगर साथ साथ या पीछे पीछे चल रही थी।  बेटी के जीवन को सुगम और सुचारु चलाने के लिए।  ऐसे में बच्चों से अपेक्षाएं भी हो जाती है।

 


यहाँ बता दूँ कि बेटी विवाहित थी।  एक बेटी की माँ।  आठ साल की बेटी।  स्कूल जाने वाली। माँ इन सब को सम्हाले रहती।  अस्वस्थता और शारीरिक कष्ट के बाद भी चौका बर्तन सम्हाले रहती।  नातिन को पुचकारती, सम्हालती, स्कूल के लिए तैयार करती।  ऐसे में स्वाभाविक था कि दूसरी ओर से भी अपेक्षाएं  होना 

 


उस दिन बेटी को कन्फर्मेशन मिला। उस दिन  वह घर आई।  खाना खाया। और  पति और बेटी के साथ घर से बाहर निकल गई।  पैर का कष्ट झेल रही माँ थोड़ी देर में सो गई।

 


सुबह आँख खुली।  मोबाइल पर दृष्टि गई।  व्हाट्सएप्प पर सन्देश का चिन्ह दिखाई दिया।  मैसेज खोला ।  सात पेज का, जेपीजी फाइल वाला।  उन फाइलों में, ऑफिस के उच्च अधिकारियों ने मूल्यांकन किया था।  अंत में उसे कन्फर्म किये जाने की बात कही गई थी। माँ का मन प्रसन्न हो गया।  बेटी को बधाई सन्देश लिखित में भी भेज दिया।

 


यकायक माँ विचलित हो गई। यकायक विचार आया।  मैं पिछले दस सालों से बेटी के साथ अपना प्रदेश और नगर छोड़ कर पति की इच्छा के विरुद्ध प्रदेश प्रदेश नगर नगर जा रही हूँ।  स्पष्ट है कि भावनात्मक लगाव है।  माँ के साथ ऐसा होना स्वाभाविक भी है।

 


पर...पर... बेटी भी माँ है।  बेटी माँ से और माँ बेटी से भावनात्मक सम्बन्ध रखती होगी। नातिन जब भी स्कूल में कुछ अच्छा करती तो सबसे पहले माँ को आ के बताती।  माँ भी बेटी से सबसे पहले ऐसा सुना जाना पसंद करती।

 


पर क्या बेटी को यह समझ नहीं।  क्या वह नहीं समझती कि जैसे वह चाहती है कि उसकी बेटी  अपना शुभ सबसे पहले माँ को बताये तो वह यह क्यों नहीं समझती कि वह अपना शुभ सबसे पहले माँ को न सही, बाद में, माँ को भी बताये।


 

पर... बेटी तो ऑफिस से आई।  चौके से खाना परोसा और ड्राइंग रूम में खा कर अपने पति और बेटी के साथ सेलिब्रेशन को निकल गई। उससे चार फुट की दूरी पर कर कमरे में आ कर माँ को अपना शुभ बताना नहीं हो सका।  कैसे है यह दूरी।  कैसे उपज गई !!


 

माँ सोचती रही देर तक !!!

बुधवार, 2 दिसंबर 2020

किसान से डायरेक्ट गेहूं खरीदने के बाद बेताल !

किसान आन्दोलन के पक्ष और विपक्ष में देखे और सुनने के बावजूद फेसबुक पर लटके वेताल ने हठ न छोड़ा. वह कंधे पर बोरा टांग कर मंडी की ओर निकल पड़ा. तभी झोले में स्थित काग्रेसी जिन्न ने कहा, "हे वेताल, तू मंडी जा कर क्या साबित करना चाहता है कि किसानों को भरपूर दिया जा रहा है, उनका शोषण नहीं हो रहा. अगर तुझमे किसानों के प्रति थोड़ी भी इज्ज़त है तो किसान से सीधे खरीद. यह सोच कर वेताल सुर से हट कर बेताल हो गया. वह अपने बोर को लेकर एक किसान के खेत जा पहंचा. किसान खेत में गेहूं की कटाई कर रहा था. एक तरफ दाने अलग किया हुआ गेहूं भी था. बेताल ने किसान से एक बोरा गेहूं देने के लिए कहा. बाज़ार भाव पर एक बोरा गेंहूं भर कर, कंधे पर लाद कर बेताल घर जा पहुंचा. बेताल परम संतुष्टि भाव से बेतालनी और जूनियर बेतालिनियों से बोला, "देखो मैं बिचौलियों को पीछे छोड़ कर सीधे किसान से गेहूं खरीद लाया  हूँ. अब तुम लोग इसे भलीभांति साफ़ कर आटा बनाने के लिए कनस्तर में रख कर पिसा लाओ. इतना सुनते ही, बेतालनी  और जूनियर बेतालानियों ने झाडुओं की बारिश कर बेताल को आम आदमी पार्टी का चुनाव चिन्ह बना दिया. वह बोली, "हमें तूने मज़दूर समझ रखा है कि हम गेंहूं साफ़ करेंगी और पिसाने के लिए जायेंगी.

सूना है इस झाडू पूजा के बाद मोहल्ले वालों बेताल को कंधे पर कनस्तर लादे हुए किसी बीनने-पछोरने वाली को ढूढते हुए देखा.

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

बच्चे ने कहा

बच्चे ने पूछा - नाना, तुम्हारे नाना कहाँ हैं ?

नाना- मेरे पास मेरे नाना नहीं हैं।

बच्चा- तुम्हारे नाना तुम्हारे पास क्यों नहीं  हैं ?

नाना- वह भगवान् के पास चले गए है।

बच्चा- भगवान् के पास क्यों चले गए हैं ?

नाना- भगवान् ने उन्हें बुला लिया था ।

बच्चा- भगवान् ने उन्हें क्यों बुला लिया ?

नाना- जो लोग अच्छे काम करते हैं, भगवान् उन्हें बुला लेते हैं।

बच्चा- भगवान उन्हें क्यों बुला लेते हैं ?

नाना- क्योंकि, उन्हें भी अच्छे लोगों की ज़रुरत होती है।


बच्चा (कुछ सोचने के बाद) - लोग अच्छे काम क्यों करते हैं! नाना, तुम अच्छे काम नहीं करना। वरना भगवान् तुम्हे भी बुला लेंगे।

शनिवार, 15 सितंबर 2012

बूढ़ा- कोना


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गुरुवार, 5 जुलाई 2012

ईमानदारी की पोटली

भागता आ रहा एक आदमी
बदहवास, निराश और भयभीत
कुछ लोग पीछे भाग रहे हैं उसके
कृशकाय शरीर वाला वह व्यक्ति
भाग नहीं पाता, गिर पड़ता है
भीड़ उसे घेर लेती है ।
वह गिड़गिड़ाता है-
छोड़ दो मुझे
जीने दो
क्या बिगाड़ लूँगा मैं तुम सबका
अकेले !
लोग चीखने लगते हैं-
मारो नहीं छीन लो इससे पोटली ।
कृशकाया थरथराने लगती है-
नहीं, मुझसे इसे मत छीनो
मैंने इसे परिश्रम से
तिनका तिनका करके बटोरा है
बरसों सँजो कर रखा है
यही तो मेरी पूंजी है ।
उस कमजोर पड़ चुकी काया के
बगल से दबी हुई थी
ईमानदारी की पोटली,
जो थी उसकी प्रतिष्ठा, मान सम्मान
और संपत्ति ।
कैसे यूं ले जाने देता उन्हे ।
भीड़ आरोप लगाती है-
इसने धीरे धीरे चुरा ली है
जमाने की ईमानदारी
और बना ली है
अपनी पोटली
कैसे रख सकता है यह
हम सभी बेईमानों के बीच
सहेज कर अपनी
ईमानदारी की पोटली ?




शनिवार, 14 अप्रैल 2012

दादी

''माँ तुम तो राजू के लिए कुछ ज्यादा प्रोटेक्टिव हो. वह अब इतना बच्चा भी नहीं रहा कि हर समय देखना पड़े. बच्चा है. खेलेगा तो गिरेगा भी, चोट भी लगेगी. तुम इतना फ़िक्र क्यों करती हो?'' पिताजी दादी से कह रहे थे.
मुझे बहुत अच्छा लगा. दादी हर समय टोकती रहती है. यह न करो, वह न करो. तो करो क्या. साथ के बच्चे मज़ाक उड़ाते हैं 'क्या हाल हैं यह न करो बच्चे के'. मैं खिसिया जाता. दादी से मना करता पर  वह कहाँ सुनने वाली थीं.
दादी मुझे फूटी आँख न सुहाती. सच कहूँ मुझे उनका झुर्रियों भरा चेहरा बिलकुल अच्छा नहीं लगता. वास्तविकता तो यह थी कि मैं खुद के बुड्ढे हो जाने के ख्याल से घबरा जाता था. शीशे में चेहरा देखता, झुर्रियों की कल्पना करता तो सिहर उठता. क्यों जीते हैं लोग इतना कि चेहरे पर समय की मार नज़र आने लगती है.
दादी का चेहरा छोटा था. झुर्रियां होने के कारण मुझे बड़ा अजीब सा लगता. जैसे किसी अख़बार के कागज़ को बुरी तरह से मसल कर फेंक दिया गया हो.
इस चिढ का एक बड़ा कारण यह भी था कि दादी हर दम मेरे पीछे लगीं रहती. वैसे वह मेरी पैदायश से मेरा ख्याल रखती रही हैं. माँ नौकरी करती थीं. मैं पैदा हुआ तो पिता ने अपनी माँ यानि मेरी दादी को अपने पास  बुला लिया. पिताजी के पिताजी यानि मेरे दादाजी काफी पहले गुज़र गए थे. माँ गाँव में घर में अकेले रहती थी. वह कहती रहती कि बेटा अपने पास कुछ दिन बुला ले, यहाँ अकेले मन नहीं लगता. तेरा और बहु का चेहरा देख कर जी लूंगी. पर पिताजी ने कभी नहीं बुलाया. आज- कल और कल-आज कह कर टालते रहे. माँ भी कहाँ चाहती थीं कि उनकी सास साथ रहे. वैसे माँ पिताजी जब चाहते घर आते थे. पिक्चर देखते, बाहर खाते. खूब खरीदारी करते. माँ के आने पर यह सब बंद हो जाता. बूढ़े लोग टोका टाकी बहुत करते हैं, यह माँ मुझसे काफी पहले से जानती थीं. इसके बावजूद उन्होंने पता नहीं क्यूँ दादी को घर आने दिया. खुद उन्होंने ही पिताजी से कहा कि माँ आ जायेंगी तो बहुत मदद हो जाएगी.
ऐसा हुआ भी. दादी आयी, माँ पहले की तरह छड़ी जैसी हो गयीं. उनका काम मुझे दूध पिलाने तक सीमित था. उसके बाद सब दादी करतीं. मुझे नहलाना धुलाना, टट्टी साफ़ करना, कपडे बदलना, मुझे बाँहों में डुलाते हुए सुलाना, सब कुछ दादी करतीं. माँ इत्मीनान से हो गयी थीं. केवल ऑफिस जाती और घर आकर खाना खा कर इधर उधर के काम में जुट जाती. वह बेहद खुश थी दादी के आने से. क्यूंकि उनके आने से माँ की जो आज़ादी कथित तौर पर छिन सकती थी, वह नहीं छिनी थी. दादी मुझ में ही खो गयीं थीं. कहते हैं न कि मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है. दादी को अपने बेटे का बेटा ज्यादा प्यारा था. माँ का तो जैसा सारा भार कम हो गया था.
लेकिन मेरी मुसीबत थी. जब तक मैं चल फिर नहीं सकता था, तब तक दादी की उंगलिया या बढे हाथ भले लगे. लेकिन अब मैं चल फिर सकता था. दौड़ भी सकता था. मुझे किसी सहारे की ज़रुरत नहीं थी. यह तो इंसानी फितरत है कि जब तक डगमगाता है, सहारा ढूढता है. जैसे ही संतुलन बना लेता है, सहारे की तरफ से मुंह फेर लेता है. मैं भी तो इंसान की औलाद था.
हाँ तो बात दादी की हो रही थी. दादी को गठिया था. बैठी बैठी कराहती रहती थीं. सब उनकी कराह को सुन कर अनसुना कर देते. मैं भी. कभी दादी से तफरी करने का मन होता तो मैं कहता- क्या पैर दबा दूं. दादी ढेरों आशीर्वाद देते हुए कहती- तू खूब जिए. अपने बाप से बड़ा आदमी बने. मुझे यह आशीर्वाद समझ नहीं आता. पिता से बड़ा बनने में कौन सा फायदा है. पिताजी पाल ही रहे हैं. मैं उनसे बड़ा हो जाऊंगा तो मुझे उन्हें पालना पड़ेगा. दादी को भी पालना पड़ेगा. कौन उठाएगा इतना भार. यह सोच कर मैं दादी के पास आता. दादी टांगे आगे कर देती. मैं उनके पाँव में चढ़ जाता. पहले धीरे धीरे दबाता. फिर, यकायक जोर से दबा देता. दादी दर्द से बिलबिला जातीं. मैंने देखा कि कभी उनकी आँखों में आंसू भी छलक आते. पर वह जोर से नहीं चिल्लाती. मैं सोचता, पिताजी से डरती हैं कि डांटेंगे कि बेकार बैठी रहती हो. पैर में दर्द होता है तो चिल्लाती हो. मैं इंसान की औलाद इतना भी नहीं समझ पाता था कि वह मुझे डांट पड़ने के डर से नहीं चिल्लाती थीं. मैं उन्हें दर्द पहुंचा कर हँसता हुआ भाग जाता. लेकिन अगले दिन या थोड़ी देर बाद दादी फिर कराहते हुए मिलतीं.
दादी की सबसे ख़राब आदत यह थी कि जैसे ही मैं खेलने के लिए घर से बाहर निकलता, वह धीरे धीरे चलते हुए, बाहर निकल आतीं और चबूतरे पर बैठ जातीं. लगातार मुझे देखती रहतीं. मैं एक पल उनकी आँखों से ओझल हो जाता तो चिल्लाने लगतीं- अरे राजू, तू कहाँ गया. साथ के बच्चे चिल्लाने लगते- अरे राजू, तू कहाँ चला गया. मैं शर्मिंदा होता हुआ दादी के सामने आ जाता. दादी मेरे सर पर हाथ फेरतीं. मैं सर झटक कर फिर खेलने में लग जाता. मैं दौड़ता तो उसके साथ ही दादी की जुबां भी दौड़ने लगती- धीरे बेटा धीरे. गिर जायेगा. चोट लग जायेगी. घुटने रगड़ खा गए तो बहुत दर्द होगा. धीरे खेल धीरे. ऐ किसना बेटा, धीरे खेलो. राजू गिर जायेगा. किसना दादी के सामने कुछ न बोलता. पर अन्य बच्चों के  सामने कहता- भैया धीरे खेलो राजू गिर जायेगा. फिर व्यंग्य मारता हुआ कहता- हम लोग तो अपने माँ बाप की औलाद हैं ही नहीं. मैं कुछ ज्यादा खिसिया जाता.
मेरे खेलने में दादी के इस ज्यादा हस्तक्षेप ने मुझे दादी का छोटा मोटा दुश्मन बना दिया. अब मैं उन्हें सताने की जुगत में रहने लगा. बच्चे दादी के पीछे जाकर उनके धोती खींच देते. कभी उनकी लकड़ी उठा कर फेंक देते. उन्हें मिल कर चिढाते- दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ. पोपला मुंह बंद करो न, अब न सताओ.
एक दिन माँ ने मुझे दादी को परेशान करने के लिए बच्चों को उकसाते हुए देख लिया. उन्होंने मेरे कान पकड़ कर एक चपत लगायी- अब ऐसा किया तो तेरे पापा से शिकायत कर मार लगवाऊंगी.
मुझे कतई विश्वास नहीं था कि कोई माँ किसी बुड्ढी के लिए अपने बेटे को मार लगवायेगी. वह भी उस औरत के लिए, जिसे उन्होंने अपनी ज्यादा ज़िन्दगी पसंद ही नहीं किया, पास नहीं फटकने दिया.
इसका नतीजा यह हुआ कि मैं दादी का कुछ ज्यादा बड़ा दुश्मन बन गया. बच्चों के लिए जब कोई दुश्मन बन जाता है, जो वह उससे डरने लगते हैं. लेकिन यदि वह घर का हो दादी जैसा, तो उसका इन्तेकाम बढ़ जाता हैं. मैं भी हर समय दादी से इन्तेकाम लेने की फिक्र में रहने लगा.
एक दिन मैंने साथ के बच्चों को सिखाया कि मुझे दादी के कारण बहुत डांट पड़ती है. उनसे बदला लेना है. तय यह पाया गया कि जब दादी खडी हों तो उनको धक्का दे  दिया जाये. उन्हें चोट लगेगी तो वह हमारा पीछा नहीं कर पाएंगी, घर में ही दुबकी रहेंगी. मैंने दोस्तों से कहा कि मैं दादी की और दादी दादी कहता हुआ भागूंगा. जैसे ही मैं उनके पास पहुंचूंगा, तुम लोग मुझे उन पर धक्का दे देना और भाग जाना. सभी तैयार हो गए.
दादी से बदला लेने का सुनहरा दिन आज ही आ गया. दादी की कमर में दर्द कुछ ज्यादा था. हवा भी ठंडी चल रही थी. इसलिए वह अन्दर जाने के लिए खडी हुई .  मैंने बच्चों को इशारा किया. बच्चों ने हां  में सर हिला  दिया. मैं दादी दादी कहता दादी की तरफ भागा.  बच्चे मेरे पीछे थे. जैसे ही मैं पास पहुंचा, मुझे लगा कि अब वह मुझे पीछे से धक्का मारेंगे, मैं दादी को धकेल दूंगा. तभी दादी ने पीछे पलट कर देखा. लेकिन यह क्या बच्चे भाग गए थे. लेकिन मैं दादी को धक्का देने के ख्याल में इतना खोया  हुआ  था कि खुद को दादी पर गिरा  देने में नहीं हिचकिचाया. दादी एक चीख के साथ जमीन पर गिर पड़ी. तभी मेरी निगाह घर के दरवाज़े पर पड़ी. माँ खडी हुई  मुझे घूर रही थीं. डर के कारण मैं रोता हुआ भाग निकला.
शाम को अन्धेरा होने पर घर पहुंचा. पिताजी आ गए थे. घर का माहौल काफी गंभीर था. पिताजी शायद तभी आये थे. माँ उनसे मेरी शिकायत कर रही थीं. पिताजी ने मुझे घूर कर देखा. वह चीखे- राजू यहाँ आओ.
मैं कांपता हुआ उनके सामने जा खड़ा हुआ. पिताजी क्रोध से काँप रहे थे. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा. उनकी हथेली मेरे गालों पर पड़ने के लिए हवा में थी कि दादी आ गयीं. वह कराहते हुए बोली- रुक जा बेटा. उसे ना मार. इसमें उसकी इतनी गलती नहीं. वह बड़ा हो गया है. मैं बेकार ही उसको हर बात पर टोकती रहती थी. साथी बच्चे चिढाते थे. इसलिए उसने ऐसा किया. बच्चा है. बड़ा हो कर ही समझेगा कि उसने क्या गलती की थी.
दादी कराहते हुए जमीन पर बैठ गयीं थीं.
माँ और पिताजी दादी की और दौड़ पड़े. दोनों ने उठा कर कमरे में चारपायी पर बैठाया. दादी बेहाल थी. मुझे पहली बार बेहद दुःख हुआ. अगर दादी मना नहीं करती तो शायद मुझे बहुत मार पड़ती. लेकिन दादी ही तो कह रही थीं कि मैं बड़ा हो गया हूँ, साथी बच्चों के चिढाने का मुझे बुरा लगता है. मगर क्या मैं इतना बड़ा  नहीं हुआ हूँ कि समझ सकूं कि दादी जो मेरी इतनी फ़िक्र करती हैं तो मुझे प्यार करने के कारण करती हैं. उन्हें फिक्र है. वह  मेरी सुरक्षा के ख्याल से हर समय साथ रहती हैं. जबकि मैं उन्हें अपना दुश्मन समझता रहता हूँ.
मेरी आँखों में अनायास आसूं आ गए. मैं दादी से रोता  हुआ लिपट गया. मुझे रोता  देख कर दादी मेरे आंसू पोछने लगीं. वह बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेर रही थीं.
लेकिन मैं एक बात नहीं समझ पाया हूँ कि मेरे आंसू पोंछ रही दादी अपने आंसू क्यों नहीं रोक पा रही थीं.

अकबर के सामने अनारकली का अपहरण, द्वारा सलीम !

जलील सुब्हानी अकबर ने हठ न छोड़ा।  सलीम से मोहब्बत करने के अपराध में, अनारकली को फिर पकड़ मंगवाया। उसे सलीम से मोहब्बत करने के अपराध और जलील स...