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शायद मैं थक गया हूँ!

  पैर उठते नहीं  शरीर को सहन नहीं कर पा रहे  शायद मैं थक गया हूँ  मस्तिष्क साथ नहीं दे रहा  अंग किसी की नहीं सुन रहे  शायद मैं थक गया हूँ  अतीत बहुत याद आता है  वर्तमान मुझे सताता है  शायद मैं थक गया हूँ!

लेख कविताएँ और हास्य व्यंग्य

 

यह कैसी दूरियां !

उस दिन बेटी को  ऑफिस से कन्फर्मेशन लेटर मिला था। दो तीन दिन से घर का माहौल टेंस था।  ऐसा लगा कि ऑफिस में सब कुछ ठीक नहीं है। कदाचित इसलिए तनावपूर्ण वातावरण स्वाभाविक भी था।  ऐसे में कौन अप्रभावित रह सकता है! माँ भी अछूती नहीं थी।  माँ , अपनी बेटी के साथ , पति की इच्छा के विरुद्ध अपना प्रदेश , अपना नगर छोड़ कर , प्रदेश प्रदेश , नगर नगर साथ साथ या पीछे पीछे चल रही थी।   बेटी के जीवन को सुगम और सुचारु चलाने के लिए।   ऐसे में बच्चों से अपेक्षाएं भी हो जाती है।   यहाँ बता दूँ कि बेटी विवाहित थी।   एक बेटी की माँ।   आठ साल की बेटी।   स्कूल जाने वाली। माँ इन सब को सम्हाले रहती।   अस्वस्थता और शारीरिक कष्ट के बाद भी चौका बर्तन सम्हाले रहती।   नातिन को पुचकारती , सम्हालती , स्कूल के लिए तैयार करती।   ऐसे में स्वाभाविक था कि दूसरी ओर से भी अपेक्षाएं   होना   ।   उस दिन बेटी को कन्फर्मेशन मिला। उस दिन   वह घर आई।   खाना खाया। और   पति और बेटी के साथ घर से बाहर निकल गई।   पैर का कष्ट झेल रही...

किसान से डायरेक्ट गेहूं खरीदने के बाद बेताल !

किसान आन्दोलन के पक्ष और विपक्ष में देखे और सुनने के बावजूद फेसबुक पर लटके वेताल ने हठ न छोड़ा. वह कंधे पर बोरा टांग कर मंडी की ओर निकल पड़ा. तभी झोले में स्थित काग्रेसी जिन्न ने कहा , " हे वेताल , तू मंडी जा कर क्या साबित करना चाहता है कि किसानों को भरपूर दिया जा रहा है , उनका शोषण नहीं हो रहा. अगर तुझमे किसानों के प्रति थोड़ी भी इज्ज़त है तो किसान से सीधे खरीद. यह सोच कर वेताल सुर से हट कर बेताल हो गया. वह अपने बोर को लेकर एक किसान के खेत जा पहंचा. किसान खेत में गेहूं की कटाई कर रहा था. एक तरफ दाने अलग किया हुआ गेहूं भी था. बेताल ने किसान से एक बोरा गेहूं देने के लिए कहा. बाज़ार भाव पर एक बोरा गेंहूं भर कर , कंधे पर लाद कर बेताल घर जा पहुंचा. बेताल परम संतुष्टि भाव से बेतालनी और जूनियर बेतालिनियों से बोला , " देखो मैं बिचौलियों को पीछे छोड़ कर सीधे किसान से गेहूं खरीद लाया  हूँ. अब तुम लोग इसे भलीभांति साफ़ कर आटा बनाने के लिए कनस्तर में रख कर पिसा लाओ. इतना सुनते ही , बेतालनी  और जूनियर बेतालानियों ने झाडुओं की बारिश कर बेताल को आम आदमी पार्टी का चुनाव चिन्ह बना दिया. वह बोली , ...

बच्चे ने कहा

बच्चे ने पूछा - नाना , तुम्हारे नाना कहाँ हैं ? नाना- मेरे पास मेरे नाना नहीं हैं। बच्चा- तुम्हारे नाना तुम्हारे पास क्यों नहीं  हैं ? नाना- वह भगवान् के पास चले गए है। बच्चा- भगवान् के पास क्यों चले गए हैं ? नाना- भगवान् ने उन्हें बुला लिया था । बच्चा- भगवान् ने उन्हें क्यों बुला लिया ? नाना- जो लोग अच्छे काम करते हैं , भगवान् उन्हें बुला लेते हैं। बच्चा- भगवान उन्हें क्यों बुला लेते हैं ? नाना- क्योंकि , उन्हें भी अच्छे लोगों की ज़रुरत होती है। बच्चा (कुछ सोचने के बाद) - लोग अच्छे काम क्यों करते हैं! नाना , तुम अच्छे काम नहीं करना। वरना भगवान् तुम्हे भी बुला लेंगे।

बूढ़ा- कोना

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ईमानदारी की पोटली

भागता आ रहा एक आदमी बदहवास, निराश और भयभीत कुछ लोग पीछे भाग रहे हैं उसके कृशकाय शरीर वाला वह व्यक्ति भाग नहीं पाता, गिर पड़ता है भीड़ उसे घेर लेती है । वह गिड़गिड़ाता है- छोड़ दो मुझे जीने दो क्या बिगाड़ लूँगा मैं तुम सबका अकेले ! लोग चीखने लगते हैं- मारो नहीं छीन लो इससे पोटली । कृशकाया थरथराने लगती है- नहीं, मुझसे इसे मत छीनो मैंने इसे परिश्रम से तिनका तिनका करके बटोरा है बरसों सँजो कर रखा है यही तो मेरी पूंजी है । उस कमजोर पड़ चुकी काया के बगल से दबी हुई थी ईमानदारी की पोटली, जो थी उसकी प्रतिष्ठा, मान सम्मान और संपत्ति । कैसे यूं ले जाने देता उन्हे । भीड़ आरोप लगाती है- इसने धीरे धीरे चुरा ली है जमाने की ईमानदारी और बना ली है अपनी पोटली कैसे रख सकता है यह हम सभी बेईमानों के बीच सहेज कर अपनी ईमानदारी की पोटली ?

दादी

''माँ तुम तो राजू के लिए कुछ ज्यादा प्रोटेक्टिव हो. वह अब इतना बच्चा भी नहीं रहा कि हर समय देखना पड़े. बच्चा है. खेलेगा तो गिरेगा भी, चोट भी लगेगी. तुम इतना फ़िक्र क्यों करती हो?'' पिताजी दादी से कह रहे थे. मुझे बहुत अच्छा लगा. दादी हर समय टोकती रहती है. यह न करो, वह न करो. तो करो क्या. साथ के बच्चे मज़ाक उड़ाते हैं 'क्या हाल हैं यह न करो बच्चे के'. मैं खिसिया जाता. दादी से मना करता पर  वह कहाँ सुनने वाली थीं. दादी मुझे फूटी आँख न सुहाती. सच कहूँ मुझे उनका झुर्रियों भरा चेहरा बिलकुल अच्छा नहीं लगता. वास्तविकता तो यह थी कि मैं खुद के बुड्ढे हो जाने के ख्याल से घबरा जाता था. शीशे में चेहरा देखता, झुर्रियों की कल्पना करता तो सिहर उठता. क्यों जीते हैं लोग इतना कि चेहरे पर समय की मार नज़र आने लगती है. दादी का चेहरा छोटा था. झुर्रियां होने के कारण मुझे बड़ा अजीब सा लगता. जैसे किसी अख़बार के कागज़ को बुरी तरह से मसल कर फेंक दिया गया हो. इस चिढ का एक बड़ा कारण यह भी था कि दादी हर दम मेरे पीछे लगीं रहती. वैसे वह मेरी पैदायश से मेरा ख्याल रखती रही हैं. माँ नौकरी करती थी...

मालती

मेरे हाथों में मालती का ख़त है. उसने लिखा है- तुम हमेशा मेरे दिल में ही थे राजेश!         #        #          #         #        #      # हम दोनों कॉलेज के दिनों में मिले थे. को-एजुकेशन वाला कॉलेज था. मालती मेरे ही क्लास में ही पढ़ती थी. बेहद खूबसूरत थी और उतनी ही चंचल भी. अपनी सहेलियों के साथ दिन भर हंसी मज़ाक करना उसका शगल था. लेकिन, थी वह पढ़ने में तेज़. क्लास टेस्ट में भी वह हम लड़कों से अव्वल आती। . वह मेरी और कब आकृष्ट हुई पता नहीं. पर मैं पहले ही दिन से उस पर फ़िदा हो गया था।  यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि कॉलेज का हर लड़का उस पर फ़िदा था. कुछ कम फ़िदा थे तो कुछ ज्यादा और कुछ तो बहुत ज्यादा. जान देने वाले भी थे एक दो. ऐसे विरल जीवों में से एक मैं भी था. लेकिन वक़्त आने पर यह स्पीसीज जान देने में पीछे हट जाती है. हाँ तो मैं बता रहा था ...

सपना

सपना श्रीमती थीं या कुमारी कोई नहीं जानता था।  सरनेम तक पता नहीं था किसी को।  कॉलोनियों की खासियत होती है कि वहां एक दूसरे को कोई अच्छी तरह से जानता नहीं या जानने की कोशिश भी नहीं करता। ऎसी जगहों में परपंच को जगह मिलती है।  यह परपंच किसी बाई या नौकर के जरिये एक कान से दूसरे कान तक फैलते हैं। कुछ सजग निगाहें भी ऎसी मुआयनेबाज़ी करती रहती हैं।  सपना की भी होती होगी। तभी तो यह बात फैली कि वह सजी तो ऐसे रहतीं जैसे मिसेज हों। लेकिन कोई स्थायी आदमी उसके घर में रहता नहीं दिखता था। हाँ, रोज कोई न कोई नया आदमी या फिर पुराना ही आता और देर रात तक जाता दीखता था। अमूमन, सपना  इनमे से किसी के साथ सजी धजी निकल जाती, कभी किसी कार में या टेक्सी में। कब लौटती ! कोई नहीं जानता था। लेकिन सुबह उसे दूध उठाते, बालकनी में टहलते या अखबार पढ़ते ज़रूर देखा जाता था।  उसके रोज के चलन को देखते हुए लोगों ने यह तय कर लिया था कि वह बदचलन हैं। या साफ़ साफ़ यह कि वह कॉल गर्ल या वेश्या थी।  लेकिन मुंह के सामने कहने की किसी में हिम्मत नहीं थी। ...

साँवली

मोलहू की बेटी सांवली का रंग सांवला था. शायद इसी रंग के कारण मोलहू ने उसका नाम सांवली रखा था. वैसे सांवली के रंग को सांवला नहीं कहा जा सकता. काफी पका हुआ था उसका रंग. बिलकुल दहकते तांबे के बर्तन  जैसा. नाक नक्श तीखे थे. आँखों के लिहाज़ से उसे मृगनयनी कहा जा सकता था. कुल मिला कर बेहद आकर्षक लगती थी सांवली. एक दिन कुछ दिलफेंक लड़कों ने कह भी दिया था , '' आये हाय ! बिपाशा बासु. '' सांवली फ़िल्में नहीं देख पाती थी. कभी गाँव के किसी अमीर के घर जहां माँ काम करने जाती थी , देख लिया तो बात दूसरी है. यह इत्तेफाक ही था की सांवली ने बिपाशा बासु की एक फिल्म इसी प्रकार से  देखी भी थी. उसे अच्छी तरह से याद है बिपाशा बासु को देख गाँव के लौंडे तो काबू में रहे थे , लेकिन काफी बुड्ढों को सुरसुरी जैसी लग रही थी. अजीब आवाजें निकल रही थी. इनका मतलब न समझ पाने के बावजूद सांवली को शर्म लगी थी. लेकिन जब गाँव के लड़के उसे सेक्सी और बिपाशा कह कर पुकारते तो उसे महसूस होता कि वह बहुत ज्यादा खूबसूरत है. सेक्सी का इससे बड़ा अर्थ जानने की ज़रुरत उसने महसूस भी नहीं की थी. उसे अच्छा लगता जब गाँव के ज...