सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

दिसंबर 5, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

त्रिकट

हमारे शरीर में दो आँखे होती हैं, जो देखती हैं. दो कान होते हैं, जो सुनते हैं. नाक के दो छेद होते हैं, जो सूंघते हैं. दो हाथ होते हैं, जो काम करते हैं. दो पैर होते हैं, जो शरीर को इधर उधर ले जाते हैं. सब पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं, शरीर को चौकस रखने के लिए. लेकिन मुंह जो केवल एक होता है वह केवल खाना चबाता नहीं. वह आँखों देखी को नकारता है. कान के सुने को अनसुना कर देता है. हाथ पैरों का किया धरा बर्बाद कर देता है. पेट अकेला होता है, जुबान उसकी सहेली होती है. जुबान स्वाद और लालच पैदा करती है पेट ज़रुरत से ज्यादा स्वीकार कर शरीर को बीमार और नकारा बना देते हैं. और मुंह इसमें सहयोग करता ही है. हे भगवान् ! यह तीन त्रिकट अकेले अंग शरीर का कैसा विनाश करते हैं. मानव को बना देते  हैं वासनाओं का दास.

मेरे पाँच हाइकु

   (१) पपीहा बोला विरह भरे नैन पी कहाँ ...कहाँ.   (२) शंकित मन  गरज़ता बादल बिजली गिरी .   (३) घोर अँधेरा निराश मन मांगे आशा- किरण.   (४) पीड़ित मन गरमी में बारिश थोड़ी ठंडक.   (५) रंगीन फूल हंसती युवतियां भौरे यहाँ भी.