सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

दिसंबर 27, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ऋतु माँ

उस दिन आँख खुली बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी बारिश की बूंदे मेरे घर की खिड़कियाँ पीट रही थीं मानो कह रही हों- उठो मेरा स्वागत करो. मैं उठा, खिड़की खोलने की हिम्मत नहीं हुई तेज़ बूंदे अन्दर आकर घर को भिगो सकती थीं. इसलिए बालकॉनी पर आ गया बारिश के धुंधलके के बीच कुछ देखने का प्रयास करने लगा तभी बारिश के शोर को चीरती हुई बच्चे के रोने की आवाज़ कानों में पड़ी मैंने ध्यान से दखा सामने के फूटपाथ  पर एक औरत बैठी थी उसकी गोद में एक बच्चा था चीथड़ों में लिपटा हुआ औरत खुद को नंगा कर किसी तरह बचा रही थी अपने लाल को और बच्चा था कि हाथ पांव फेंकता हुआ आँचल से बाहर आ जाता मानों बारिश का स्वागत कर रहा हो बूंदों को अपनी नन्हे सीने में समेट लेना चाहता हो कुछ बूंदे चहरे पर पड़ती तो बूंदों के आघात और ठण्ड के आभास से बच्चा थोडा सहम जाता और फिर खेलने लगता बारिश बीती सर्दी आई औरत कि मुसीबत कुछ ज्यादा बढ़ गयी थी वह खुद को ढके या लाल को कहीं से एक फटा कम्बल मिल गया था शायद वह साबुत हिस्सा बच्चे को उढ़ा देती मैंने देखा रात में कई बार वह फटे कम्बल में ठिठुरती...