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अक्टूबर 31, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ज़िंदा

मूर्ति की भांति मैं खड़ा था निःचेष्ट । एक व्यक्ति आया उसने मुझे देखा मैं हिला नहीं। फिर ज़्यादा लोग आए किसी ने मुझे छुआ बांह से/बालो से/ सीने से मैं कसमसाया तक नहीं कुछ ने मेरी नाक उमेठी बाल खींचे आँख में उंगली डाल दी मैंने कोई विरोध नहीं किया। फिर सब चले गए मैं अकेला रह गया चौकीदार आया मेरी बांह पकड़ कर बोला- चल बाहर चल, मुझे मोमघर बंद करना तुझे अंदर नहीं रख सकता क्योंकि तू सचमुच ज़िंदा है।