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मंगलवार, 1 जुलाई 2025

१ जुलाई १९५३

१ जुलाई १९५३। भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न सन्दर्भ। किसी के लिए यह मात्र एक तिथि माह या सन। संभव है कि कई लोग इस तिथि की महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर दृष्टिपात करना चाहें। करते भी है।





किन्तु मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है। इस लिए कि सरकारी दस्तावेजों के अनुसार इस तिथि को मेरा जन्म हुआ था। इसी तिथि के अनुसार मुझे सेवा निवृत होना था। ३० जून २०१३ को। क्या मैं सेवानिवृत हुआयह किसी और समय पर हल करने वाला प्रश्न है।




मैं, सरकारी सेवा पुस्तिका का अनुसार, १ जुलाई १९५३ को जन्मा था।  यद्यपि, यह पूर्ण सत्य नहीं था। कारण यह कि हम लोगों के समय में घर आकर पढ़ाने वाले मास्टर ही विद्यालय में प्रवेश दिलाते थे।  उन्होंने ही, ७ जुलाई को स्कूल खुलने की तिथि के आधार पर ही मेरी जन्मतिथि १ जुलाई १९५३ लिखवा दी थी।  कहते हैं की कि उस समय बच्चों के स्कूल में भर्ती होने की आयु ५ या छह साल से कम नहीं होनी चाहिए थी। इसलिए १ जुलाई १९५३ मेरी जन्मतिथि मान ली गई। किसी जन्मकुंडली की आवश्यकता नहीं पड़ी।




इस जन्मतिथि की यात्रा, स्कूल की टीसी से निकल कर, कॉलेज, यूनिवर्सिटी और फिर प्रतियोगिता परीक्षा से होती हुई, सरकारी सेवा अभिलेखों में पसर गई। मैं प्रत्येक १ जुलाई को इसी तिथि पर बड़ा होता चला गया। और एक दिन सेवानिवृत भी होना था। अर्थात ३० जून १९१३ को।




किन्तु, झोल यहाँ है।




एक दिन मैं पुराने कागज पत्र टटोल रहा था।  पुराने कागजों को देखते हुए, मुझे एक कागज के टुकड़े में पिता की लिखाई दिखाई पड़ी। उत्सुकतावश मैंने उसे उठा लिया।




मैंने उसमे लिखा पढ़ा तो मैं चौंक गया। अरे, मेरी जन्मतिथि तो गलत दर्ज हुई है। पिता की लिखाई के अनुसार मेरा जन्म १ जुलाई १९५३ नहीं, १७ जुलाई १९५१ को हुआ था। अर्थात मैं आज ७२ साल का पूरा हो कर ७३वें में नहीं, ७४ साल पूरा हो कर, ७५वे प्रवेश करने में १५ दिन पूर्व की तिथि में था।





मैंने आगे पढ़ा तो मालूम हुआ कि १७ जुलाई १९५१ को बुद्धवार के दिन मैं जन्मा था। मैंने इसका फैक्ट चेक किया। इसके अनुसार, १७ जुलाई १९५१ को, बुद्धवार नहीं, मंगलवार था।  अर्थात पिताजी गलत थे। उन्होंने १७ जुलाई १९५१ को दिन बुद्धवार होना बताया था। १७ जुलाई १९५१ की तिथि याद रखने वाले पिता जी दिन के लिखने में असफल साबित हो रहे थे।





अब मैंने अपनी सरकारी जन्मतिथि १ जुलाई १९५३ के दिन का फैक्टचेक किया। इस तारीख़ को बुद्धवार था। मैंने सोचा। सोचा क्या तय ही कर लिया कि पिताजी ने तिथि १७ और सन गलत लिखा।  जुलाई उनको ठीक याद रहा। किन्तु, दिन भी गलत लिख गए।  




पिताजी ने तीन तीन गलतियां की थी। तिथि सन और दिन की।  जबकि, मेरी सरकारी अभिलेखों में लिखी १ जुलाई १९५३ की तिथि मंगलवार होने के कारण सही थी।





इस प्रकार से, मेरी जन्मतिथि के मामले में मास्टर, सरकारी दस्तावेज और मैं सही साबित हुए। पिता गलत।  

रविवार, 25 मई 2025

कर्ज़ से छुटकारा




19 जून 2023। यह वह दिन है, जिस दिन मैं एक कर्ज से उबर गया।




यह वह कर्ज था, जो मुझ पर जबरन लादा गया था। इस कर्ज को न मैंने माँगा, न कभी स्वीकार किया। फिर भी यह कर्ज 40 साल तक मुझ पर लदा रहा। इसकी वजह से मैं अपमानित किया गया। मुझे नकारा बताया गया। यह केवल इसलिए किया गया ताकि मेरे परिवार पर एहसान लादा जा सके।





मेरी पत्नी को 100 रुपये के स्टाम्प पेपर पर लिख कर दिया गया कि मकान तुम्हारे पति के नाम कर दिया गया है। यह काग़ज़ के टुकड़े से अधिक नहीं था। पर कानूनी दांव पेंच नावाकिफ पत्नी समझती रही कि मकान हमे दे दिया गया। वह बहुत खुश और इत्मीनान से थी। उसने, यदि मुझे काग़ज़ का टुकड़ा दिखा दिया गया होता तो मैं उसे हकीकत बता देता। पर उसे किसी को दिखाना नहीं, ऐसे समझाया गया, जैसे गुप्त दान कर दिया गया हो। सगे रिश्तों का यह छल असहनीय था। इसे नहीं किया जाना चाहिए था। एक मासूम की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए था। 




पर अच्छा है कि यह कर्ज 40 साल बाद ही सही, उतर गया। अब मैं आत्मनिर्भर हो कर, सुख से मर सकता हूँ। पर दुःख है कि भाई- बहन का सगा रिश्ता तार तार हो गया। अफ़सोस, यह नहीं होना चाहिए था। 

बुधवार, 14 अगस्त 2024

#VineshPhogat का या कैसा दबाव !




क्या केंद्र की बीजेपी सरकार दबाव में आ जाती है. यदि ऐसा है तो यह कैसा दबाव?

 

 

 

 

 

 

 

विनेश फोगाट साफ़ साफ़ तौर पर ५० किलोग्राम वर्ग में फाइनल के लिए ओवर वेट थी. निस्संदेह यह ओवर वेट १०० ग्राम ही थी. तो इससे क्या?

 

 

 

 

इस बार स्वर्ण जीतने वाला पहलवान जापान का पहलवान विगत टोक्यो ओलंपिक्स में केवल ५० ग्राम के कारण डिसक्वालिफाई कर दिया गया था. उसने तो रोना धोना नहीं मचाया.

 

 

 

यह बात तो भारत का कुश्ती महासंघ भी जानता होगा. तो फिर फोगाट के १०० ग्राम को कई क्विंटल वजनी क्यों बना दिया गया?

 

 

 

 

क्या आवश्यकता थी, अपील में लाखो रुपये फिजूल खर्च करने की, जबकि परिणाम मालूम था? क्या विनेश फोगाट और हरियाणा के जाटों को चुनाव को ध्यान में रख कर खुश करने के लिए? किन्तु, यह तो तुष्टिकरण हुआ. चाहे वह मुस्लमान का हो या जाट का.

 

 

 

 

कुश्ती महासंघ और केंद्र सरकार  को इस प्रकार के दबाव से हट कर काम करना होगा. अन्यथा तुष्टिकरण के नुकसान इस ओलंपिक्स में हो गए और आगे भी होते रहेंगे.

 

 

 

 

देश के खेल प्रेमियों को याद रखना होगा कि भारत को कुश्ती का पहला पदक दिलाने वाले के डी जाधव हरियाणा के नहीं सतारा महाराष्ट्र के थे. कुश्ती किसी राज्य या जाति की बपौती नहीं.

 

 

 

उम्मीद बहुत कम है कि कुश्ती महासंघ और केंद्र सरकार तुष्टिकरण से उबरेंगी.

बुधवार, 17 जुलाई 2024

बीजेपी नहीं नरेन्द्र मोदी हारे!




नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप मे दो बड़ी गलतियाँ की। पहली यह कि अधिकारी बिना डरे निर्णय ले सकें, उन्हें लौह सुरक्षा कवच दे दिया। वह सोचते थे कि आईएएस कार्यवाही के भय से निर्णय लेने मे हिचकता है। किंतु वह भूल गए कि कॉंग्रेस की संगत में अधिकांश आईएएस पैसे बनाने को महत्व दे ने वाला बन गया है ।सुरक्षा कवच पा के वह निश्चिंत हो भ्रष्टाचार मे डूब गया। 






दूसरी बड़ी गलती अपने दूसरे कार्यकाल में सबका साथ और सबका विकास के साथ सबका विश्वास जोड़ कर की । परिणामस्वरुप, CAA और nrc को लेकर मुसलमानों ने देश में युद्ध छेड़ दिया। ईश्वर की कृपा से देश corona की चपेट मे आ गया, अन्यथा देश को मुस्लिम आतंकवाद निगल जाता। बाद में मोदी जी ने संतृप्तिकरण का करेला चढ़ा कर इन्हें मालामाल कर दिया।





एक तरफ क्रुद्ध हिन्दू उनकी मुस्लिमपरस्त नीति पर क्रोध व्यक्त करता, दूसरी ओर मुसलमान पूरी दबंगई के साथ खुद को सताया हुआ बताता। मोदी जी रक्षात्मक होते चले गए, जबकि उनकी पहचान आक्रामक नेता के रूप मे थी।





दुखद सत्य यह था कि संतृप्तिकरण की होड़ में गृह मंत्री अमित शाह न तो CAA के विरुद्ध आंदोलन को कुचल पाए, न CAA लागू करवा पाए। कथित किसानों की अराजकता ने उन्हें निस्तेज कर दिया। बीजेपी के इन दो लौह नेताओं की छवि पर जंग लग गई।






बंगाल में मुसलमान हिन्दुओं को मारते रहे। बीजेपी की केंद्र सरकार हत्यारों को संतृप्त करती रही। निरीह हिन्दू कटता रहा। ऐसे मे हिन्दुओं को ममता शरण में जाना ही था।




इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, बंगाल और पंजाब मे दिखाईं दिया। पूरे देश मे अच्छा प्रदर्शन करने वाली बीजेपी बहुमत से चूक गई।

शनिवार, 31 दिसंबर 2022

गिनते रहें दिन!

2022 मे कितने महीने थे? 

12 ।

2022 में कितने सप्ताह थे? 

52 । 

2022 मे कितने दिन थे?

365 । 

प्रत्येक माह मे कितने दिन थे? 

जनवरी,  मार्च, मई,  जुलाई,  अगस्त, अक्टूबर और दिसम्बर में 31। फरवरी मे 28। अप्रैल,  जून, सितंबर और नवंबर मे 30।

और सप्ताह मे कितने दिन ? 

7। 

एक दिन में कितने घंटे होते है। 

24।

हर घंटे मे कितने मिनट? 

60। 

हर मिनट मे कितने सेकंड ? 

60। 

पर जानना क्या चाहते हो तुम? 

भाई मेरे यही कि 

पूरे साल दिन गिनते रहे 

जिए कब तुम। 

रविवार, 11 सितंबर 2022

पेन्शन रजिस्टर बनाने से फ़ायदा!

कल मैंने #worldsuicideday पर एक पोस्ट लिखी थी. आज इसका दूसरा हिस्सा लिख रहा हूँ.

 

 

 

दरअसल, मेरी सेवा की विशेषता यह है कि वह कौवा कान ले गया पर इतना विश्वास करती है कि कौवा उसका कान ले गया या किसी और का कान, जानना नहीं चाहती. यह पूछने का सवाल ही नहीं उठता कि कान सचमुच में गया या नहीं. बस दौड़ लगाने लगत्ते थे कौवे की पीछे.

 

 

 

मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. ऐसा लखनऊ कोषागार में हुई एक घटना के कारण हुआ था. उस घटना के बाद, मेरे बैच के ऑफिसर भी कहने लगे थे कि तुम झगडालू हो. अब उनसे कौन कहे कि अकेला ऑफिसर मठाधीशों की भीड़ में मारपीट नहीं कर सकता.  बहरहाल मेरी पहली इमेज अपनी सेवा के अधिकारीयों में यही बनी थी. शायद यही इमेज निदेशक कोषागार के मस्तिष्क में भी थी. इसी से वह मुझसे उचाट थे.

 

 

 

बहरहाल, मैं इस सब से बेपरवाह कर्मण्ये वाधिकारस्ते पर विश्वास करता हुआ अपने कमरे पर रखी पेंशन फाइल्स निबटाने में जुट गया. फाइलों का इतना बड़ा जखीरा दिमाग हिलाए दे रहा था. मैंने सोचा, भाई निर्देशक खुश नहीं है, ट्रान्सफर तो करवा ही देंगे. सो जब तक यहाँ हूँ पेंशनर्स का जितना भला कर सकूं, कर दूं. मैंने फाइल्स को तेजी से निबटाना शुरू कर दिया. तभी मेरे दिमाग में संयुक्त निदेशक बन गए उपनिदेशक घूम गए. मैंने कहा, चलो उनकी जन्मपत्री तो बना दो. उनका भाग्य बांचना तो बाद की बात है. मैंने सभी फाइल्स वापस मंगाई और एक रजिस्टर इशू करवा लिया. अब मैंने निबटाई गई फाइल्स को उनके एम आई नंबर और पेंशनर के नाम के साथ दर्ज करना शुरू कर दिया. इस से मुझे एक बिलकुल नई बात पता चली.

 

 

 

हुआ यह कि एक दिन एक व्यक्ति मेरे पास आया. उसने बताया कि उसकी पेंशन के कागज़ कुछ महीना पहले आये थे, अभी तक पीपीओ जारी नहीं हुआ है. मैने उसका नाम पूछा. उसका नाम सुन कर मैं चौंक गया. मैंने तो पिछले हफ्ते ही उसके पीपीओ हस्ताक्षरित कर दिए थे. मैंने सम्बंधित लेखाकार को बुलाया. मैंने जानकारी की तो मालूम हुआ कि वह पत्रावली डिस्पैच में भेजी ही नहीं है. मैंने उस पत्रावली को माँग कर तुरंत डिस्पैच करवाया और पेंशनर कॉपी उस व्यक्ति को दे दी. मैंने यह भी सुनिश्चित करवा दिया कि पीपीओ कोषागार को डिस्पैच हो जाए.

 

 

 

मैं इस घटना को सोच रहा था कि मुझे कुछ शक हुआ. मैं सेक्शन की तरफ निकल गया. सेक्शन में मिलन समारोह और दावत का माहौल था. मुझे देख कर सभी मेहमान (जो पेंशनर थे तथा सम्बंधित लेखाकारों के रिश्तेदार बन कर आये थे) कमरे से  निकल लिए. मैने सम्बंधित लेखाकारों से रजिस्टर के आधार पर पीपीओ डिस्पैच की जानकारी शुरू कर दी. मालूम हुआ कि मेरे द्वारा एक महीने पहले साइन करे दिए गए पीपीओ और revision के पीपीओ डिस्पैच में भेजे ही नहीं गए थे. मैंने उन्हें फटकार लगाईं और सभी फाइल्स को डिस्पैच में भिजवा दिया.

 

 

 

यहाँ मुझे पहली बार ज्ञान हुआ कि अधिकारी लोग पीपीओ में साइन करने के बाद, इत्मीनान से हो जाते है कि उन्होंने केस निबटा दिया. पर दरअसल वह जानबूझ कर या अनजाने में सम्बन्धित लेखाकार को ब्लेंक चेक दे देते थे. जब सम्बंधित पेंशनर आता तो लेखाकार महोदय बताते कि ऑफिसर बहुत खतरनाक है. कोशिश करते है, या शरीफ डिप्टी के लिए यह कहते कि उन तक पैसा पहुँचाना पड़ता है. और फिर यथोचित रकम लेकर फाइल ले कर बाहर निकल जाते और पीपीओ  डिस्पैच करवा कर उसे कॉपी दे देते.

 

 

 

इसके बाद, मैने रजिस्टर में लगातार एंट्री शुरू कर दी. जब तक पीपीओ निदेशालय से बाहंर नहीं चले जाते, तब तक जानकारी मांगनी शुरू कर दी. उस समय के निर्देशक ने ऐसा सॉफ्टवेर तैयार करवा दिया था कि डायरी से लेकर डिस्पैच तक की स्थिति मालूम हो सकती थी. मैंने इसे निकलवाना शुरू कर दिया. इससे पेंशन मामलों के निस्तारण में वास्तविक तेजी आने लगी.

 

फल की चिंता किये बिना किये गए इस काम का नतीजा मुझे अच्छा मिला. जो निदेशक यह समझ रहे थे कि मैं लड़ाकू और बावलिया हूँ, वह पेंशन मामलों के प्रभावी रूप से निबट जाने के कारण प्रसन्न रहने लगे. मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था कि उन्होने मेरे काम को वास्तव में अप्प्रेसिएट किया. शायद मेरे प्रति उनकी गलतफहमी दूर हो चुकी थी. इसके बाद ही मेरे करियर में आमूलचूल परिवर्तन हो  गया. क्या और कैसे हुआ ! यह फिर कभी.

 

#worldsuicideday 1

शनिवार, 10 सितंबर 2022

मैंने भी चाहा था आत्महत्या करना! #WorldSuicideDay

आज, १० सितम्बर को, पूरा विश्व वर्ल्ड सुसाइड डे मना रहा है. इस अवसर पर अपना एक  अनुभव.

 

यह बात, उस समय की है, जब मेरी तैनाती पेंशन निदेशालय में संयुक्त निर्देशक के पद पर हुई थी. ट्रान्सफर का मारा, जिसे प्रमोशन के लिए उत्कृष्ट यानि आउटस्टैंडिंग पृविष्टि की जरूरत रहा करती थी. कितना परेशान हैरान विभागाध्यक्ष चाह कर भी बैड नहीं लिख पाता था. इसलिए अधिकतर ने प्रविष्टि लिखी ही नहीं. एक आध ने लिखी तो श्रेणी दी अच्छा. यह अच्छा क्या होता है. उस समय के लिहाज से मेरे प्रमोशन के लिए बैड से भी खराब.

 

हमारे एक अधिकारी का कहना था कि कांडपाल जी, आप लोगों को बैड लिखो ही नहीं. सामान्य लिख दो. प्रमोशन होगा नहीं. बैड लिखो तो जवाब देना पड़ेगा. विभागाध्यक्षों की इस नीचता के कारण मेरा प्रमोशन लगातार रुक रहा था. डीपीसी होती. पता चलता कि प्रमोशन नहीं हुआ है. दिल धक् से कर जाता. निराशा का गहरा कुहासा छा जाता. उस पर ट्रान्सफर पर ट्रान्सफर.

 

हाँ. तो बात कर रहा था संयुक्त निर्देशक पेंशन निदेशालय में तैनाती की. उस समय के निर्देशक बड़े सुलझे हुए व्यक्ति थे. मैं सोचता था कि कुछ दिन ट्रान्सफर नहीं होगा. ठीकठाक समय कट जाएगा. सो चला गया पेंशन निदेशालय ज्वाइन करने.

 

वहां पहला झटका लगा मुझे. जैसे ही मैंने निदेशक के सामने जोइनिंग लैटर रखा. वह सन्नाटे में आ गए. उनका चेहरा बुझ गया. कुछ मिनट ख़ामोशी की गहरी चादर छाई रही. उसके बाद उन्होंने पूछा, 'विल यू ज्वाइन?' मैंने कहा, 'मैं आया ही इसीलिए हूँ सर'. उन्होंने सम्बंधित बाबू को बुलाया. कहा, 'ये कांडपाल जी हैं, नए जॉइंट डायरेक्टर. इन्हें ज्वाइन करा दो.उनके इस रुख से मैं बेहद निराश हो गया. जब वह खुश नहीं नजर आ रहे तो होगा क्या!

 

तभी निर्देशक महोदय की आवाज कान में पड़ी, 'कांडपाल जी, (डिप्टी डायरेक्टर की तरफ इशारा करते हुए) यह उपनिदेशक है. प्रशासन इन्ही के पास है. अच्छा काम कर रहे है.'

 

मैं इशारा समझ गया. मैंने कहा, 'सर कोई बात नहीं. मुझे जो काम देना चाहे दे दें.' निर्देशक महोदय ने उसी समय ट्रान्सफर हुए एक अन्य उपनिदेशक का कार्य और पेंशन अदालत का काम मुझे सौंप दिया.

 

चार्ज सर्टिफिकेट भर कर अपने निर्धारित कमरे में गया तो हैरान रह गया. सामने रखी कुर्सियां और उपनिदेशक के आराम के लिए रखा गया दीवान पेंशन पत्रावलियों से भरा हुआ था. बैठने तक की जगह नहीं थी. यहाँ तक कि जमीन पर भी फाइल्स रखी थी. यह सभी फाइल्स नई पेंशन और रिवाइज्ड पेंशन की थी. मैं हैरान सा सब देखता रह गया. अल्लाह अल्लाह खैरसल्ला कह कर फाइल्स देखनी शुरू कर दी.

 

दूसरे दिन, स्थानांतरित हो चुके उपनिदेशक महोदय आये. उस समय तक वह भी संयुक्त निर्देशक हो चुके थे. मुझसे नौ साल जूनियर बैच के, मेरे बराबर के पद पर पहुँच गए थे.

 

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे, मुस्कुराते हुए बोले, 'सर मैं  भी आपके बराबर आ गया. मैं भी संयुक्त निर्देशक हो गया.' उनका यह तीर सीने में धंस गया. हजारों की संख्या में पेंशन फाइल पेंडिंग रख गया अधिकारी मुझे अपनी बराबरी दिखा रहा था.

 

मैंने तल्ख़ टिप्पणी की, 'महाराज, यह फाइल्स देख रहे हो. तुम्ही छोड़ गये हो.' वह बोले, 'सर क्या करता ! शासन सही पोस्टिंग नहीं कर रहा था. ट्रान्सफर हो गया था. इसलिए फाइल्स करना बंद कर दिया.' मैंने कहा, ' पर इसमें इन बेचारे पेंशनरस का क्या दोष. तुमने तो इन्हें मोहताज कर दिया.' फिर मैंने उनको हडकाया. 'इतना तुम समझ लो कि मैं १९७५ बैच का अधिकारी हूँ, तुम १९८४ बैच के. तुम मेरे बराबर तो इस जन्म मे क्या कभी भी नहीं आ सकते. अगले जन्म में भी हम दोनों सेलेक्ट हुए तो या तुम बैच में ऊपर होगे या मैं. बराबर तो हो ही नहीं सकते. रही मेरे बराबर प्रमोशन पाने की बात तो तुम्हारी तरह मैं भी प्रमोशन पा गया था. पर अब उत्कृष्ट चाहिए. तुम जो धंधा पानी कर गए हो, अगर मैंने इन सब की लिस्ट बना कर निर्देशक और शासन को भेज दी तो इतनी तगड़ी एंट्री घुसेगी कि अगले जन्म में ही निकल पाएगी.' वह घबरा गए. सॉरी सॉरी बोल कर बाहर निकल गए.

 

यह पल मेरे लिए अवसाद का क्षण था. मैं सोचता रहा. मैंने ऐसा क्या कर दिया था कि बैड एंट्री नहीं पा कर भी प्रमोशन नहीं पा सका था. एक तरफ शासन ईमानदारी से काम की बात करता है, अपने विभागाध्यक्ष के गलत कामों की रिपोर्ट भेजने का नियम बना कर रखता है. उस पर वार्षिक पृविष्टि का दायित्व ही उन्हें भ्रष्ट हाथों में है. मैंने सोचा तब तो हो गया प्रमोशन.

 

निर्देशक पेंशन की बेरुखी और उपनिदेशक की बदतमीजी ने मुझे अवसाद के गहरे सागर में धकेल दिया. उसी समय मेरे मन में विचार आया, खिड़की से नीचे छलांग लगा दूं. लगातार इस तरह अपमानित होने से क्या फायदा. एक पल में जीवन ख़त्म हो जाएगा.

 

मेरे मन में यह विचार कुछ सेकंड के लिए ही रहा. यह मेरे लिए भारी था. उस समय में शून्य विचार हो गया था. कुछ भी कर सकता था. आत्महत्या भी.

 

अगले पल मैं इससे बाहर निकला. अपने चेहरे पर चार थप्पड़ मारे. साले चूतिये. धार के विरुद्ध बहना चाहता है. बेईमानों के बीच ईमानदारी की गंगा में नहाना चाहता है तो इसका फल मिलेगा ही. तो इसमें निराश क्यों होना. जैसा करम, वैसा फल.

 

दूसरे पल मैंने सोचा, जब तक हूँ पेंशनर्स का ही भला करू. उनका क्या दोष अगर मेरा प्रमोशन नहीं हो रहा. अगले ही पल में निराशा के सागर से उबर कर, पेंडिंग फाइल्स के ढेर में जा घुसा था.

 

सो मित्रों हर परिस्थिति में खुद पर काबू रखिए. आपने जो किया है, उस पर विश्वास कीजिये. श्रीकृष्ण भगवान ने भी कहा, 'तुम कर्म करो, फल की चिंता मत करो.'

 

मैंने चिंता भगवान् पर छोड़ दी थी.

बुधवार, 13 अप्रैल 2022

जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड बनाम राम नवमी जलूस पर पत्थरबाजी

आज जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड को 103 साल हो गये.  इस हत्याकाण्ड को याद रखने की जरूरत केवल इसलिए नहीं कि इसमें 1500 से ज्यादा निर्दोष लोग मारे गए थे,बल्कि इसलिए भी याद करने की जरूरत है कि इन लोगों पर गोली चलाने के आदेश एक अंग्रेज अधिकारी ने दिए थे,  पर गोली चलाने वाले हाथ भारतीय थे. जनरल डायर ने सिख रेजिमेंट और गोरखा रेजिमेंट के लोहे से भारतीयों का लोहा काटा था. यह बंदूकें डायर की तरफ घूम जाती तो भारत का स्वतंत्रता का इतिहास कुछ अलग होता.  पर पूरी दुनिया मे ब्रिटिश साम्राज्य को बदनामी दिलाने वाले इस हत्याकांड के बाद पंजाब में विद्रोह नहीं हुआ था.



हालात आज भी वही हैं. हिन्दुओं के आराध्य राम अवतार दिवस पर निकाले जा रहे रामनवमी के जुलूस पर शहर शहर पत्थर बरसाने वाले मुसलमानों की एक मस्जिद पर कुछ अराजक चढ़ क्या गए नपुंसक हिन्दुओ की कथित सहिष्णुता जार जार आँसू बहाने लगी. जबकि पत्थरबाजों की कौम के किसी सेकुलर ने साँस तक नहीं ली थी.



हो सकता है कि उस समय अगर आज के यह हिन्दू अंग्रेजो ने वजीफे पर रखे होते तो यह कहते कि हम आज्ञाकारी है.  साहब बहादुर ने मना किया था तो इस भीड़ को जुटना नही चाहिए था. 

गुरुवार, 13 मई 2021

कोरोना से डरना मना है !

पत्नी डायबिटिक हैं. इसलिए उनका कोरोना पॉजिटिव होना खतरनाक हो सकता था. ऐसे समय में मुझे याद आ गई, सेवा काल के दौरान कानपूर में चंद्रशेखर आज़ाद कृषि विश्वविद्यालय की एक घटना. मैं उस समय लखनऊ से लोकल से जाया और आया करता था.


जैसी की यूनिवर्सिटी के कर्मचारी यूनियन और टीचिंग स्टाफ की आदत होती है, यह लोग अपना सही गलत काम करवाने के लिए भीड़ इकठ्ठा कर धमकाने और डरा कर काम करवाने की आदत रखते हैं. मेरे यूनिवर्सिटी में कार्यकाल के पहले हफ्ते में ही वहां की कर्मचारी यूनियन ने मेरा घेराव किया कि हमारे बिल छः महीने से रोक रखे गए है. मैंने कहा भी कि मुझे हफ्ते भर भी काम सम्हाले नहीं हुए हैं तो मैं कैसे छः महीने से बिल रोके रख सकता हूँ. पर उन्हें तो शोर मचाना ही था. वह चिल्लाते रहे. मैं ऊब गया तो मैंने कहा भैये, मैं ऐसे तो काम नहीं कर सकता. अब तुम्हे मारना कूटना है तो  मार कूट लो. पर घायल कर मत छोड़ना घायल शेर खतरनाक होता है.


बहरहाल, एक बार में ट्रेन से कानपूर जा रहा था. घर से फ़ोन आया कि तुम्हारी यूनिवर्सिटी से फ़ोन आया था कि साहब कहाँ हैं? यहाँ (यूनिवर्सिटी) न आये. मारे जायेंगे.


घर में इस धमकी से लोग डरे हुए थे. मैंने कहा चिंता न करो.


फिर में यूनिवर्सिटी पहुंचा. कार से उतरते ही मैंने ललकारते हुए कहा, "अब मैं आ गया हूँ. कौन मारना चाहता है, आओ मेरे सामने."


आधे घंटे तक ऑफिस के बाहर खडा रहा. कोई मारने नहीं आया. फिर क्या करता. कमरे में बैठ कर फाइल करने लगा.


यह किस्सा मुझे याद आया, जब हम लोग कोरोना से जूझ रहे थे. मैंने इस किस्से को याद करते हुए, खुद से कहा, मुझे जूझना है. कोरोना से डरना नहीं है. मैं डरूंगा तो यह पत्थर कॉलेज के कर्मचारियों की तरह मुझे गड़प कर लेगा. मैंने कोरोना को ललकारा. आज हम लोग कोरोना से जंग जीत चुके हैं.


आप भी डरिये नहीं. आप कोरोना से ज्यादा ताकतवर है. बस हम और आप डर जाते हैं. जो डर गया, समझो वह मर गया.

कोरोना से जंग : जीत हमारी !



पिछले कुछ महीनों से मैं और मेरी पत्नी अहमदाबाद में बेटी के घर में हैं. कोरोना का कहर कुछ ऐसा टूटा है कि अप्रैल को लखनऊ वापस जाने का टिकट कैंसिल कराना पडा.

 

१९/२० मार्च को मैंने और पत्नी ने कोरोना वैक्सीन की पहली डोज़ लगवा ली थी. दूसरी डोज़ छः हफ्ते बाद लगनी थी. २१ अप्रैल को, दामाद को कोरोना के लक्षण दिखाई देने लगे. उसने खुद को क्वारंटीन करते हुए, कोरोना की जांच करवा ली. उसके साथ डॉक्टरों की सलाह पर हम लोगों ने भी अपना अपना कोरोना टेस्ट करवा लिया. इस टेस्ट में बेटी और पत्नी भी पॉजिटिव आई. मेरा टेस्ट नेगेटिव आया.


२४ अप्रैल से सबका ईलाज शुरू हो गया. पत्नी को बुखार था. उन्हें बेचैनी सी हो रही थी. मैं नेगेटिव था. इसे देखते हुए, मुझे अलग कमरे में रहना चाहिए था. पर पत्नी को इस दशा में छोड़ना मेरे लिए मुमकिन नहीं था. यह उसके जीवन का सबसे तकलीफदेह रात हो सकती थी. मैंने सोचा अगर यह मर गई तो मुझे ज़िन्दगी भर अफ़सोस रहेगा कि मैं उसकी आखिरी तकलीफ में साथ नहीं था. अगर मैं भी पॉजिटिव हो गया तो कोई बात नहीं. या तो दोनों ठीक होंगे या दोनों मरेंगे. मैंने निर्णय लिया कि मैं पत्नी को छोड़ कर अलग नहीं सोऊंगा. सचमुच २४/२५ की रात काफी भयानक थी. पत्नी की परेशानी कम करने की कोशिश में रात जागते हुए ही गुजर गई. उनका बुखार उतर गया. इसके बाद बिलकुल नहीं चढा. लेकिन, मैं तब तक कोरोना पॉजिटिव हो चुका था. मुझे १०१ तक बुखार पहुंचा.


उस समय मैंने पत्नी से कहा, पॉजिटिव रहो. बिलकुल यह मत सोचो कि इस बीमारी को हम तुम नहीं हरा सकते. हमें कोरोना कुछ नहीं कर सकता. निराश बिलकुल न होना. हम सभी लोग, डॉक्टर की सलाह के अनुसार घर पर रह कर ही, दवा लेते रहे. एक  हफ्ते में हम लोगों की सारी तकलीफ दूर हो गयी. अहमदाबाद में ऑनलाइन डॉक्टर की सलाह ने हमें घर में रह कर ईलाज करने में मदद की. आज हम सभी पूर्णतया स्वस्थ है, पर बेहद कमजोरी है. अलबत्ता, मैंने अपनी दिनचर्या में कोई फर्क नहीं रखा. जैसा कोरोना से पहले था, वैसे ही रहा.


मैं उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूँ. लेकिन, अनुभव से यह कह सकता हूँ कि कोरोना के बावजूद खुद में निराशा नहीं पैदा होने दें. कोरोना वायरस ऐसा कोई लाइलाज नहीं है. ८५ प्रतिशत लोग निर्धारित दवा के सहारे ही ठीक हो जाते है. हाँ, अपने पॉजिटिव होने पर लापरवाही न बरते. न ही ऑक्सीजन सिलिंडर या हॉस्पिटल के चक्कर में पड़ें. जितना बढ़िया देख रेख घर में मिल सकती है, उतनी कहीं नहीं हो सकती.


सरकार को कोसने से कोई फायदा नहीं. क्या हम लोगों को मालूम था कि घर के  हम चार बालिग़ सदस्य कोरोना पॉजिटिव हो जायेंगे? जब हम पांच लोगों को नहीं मालूम था, तो एक अकेली सरकार या प्रधान मंत्री कैसे करोड़ों लोगों की जन्मपत्री बांच सकती है! हमने ऑक्सीजन या हॉस्पिटल के लिए भी कोई कोशिश नहीं की. क्योंकि, उसकी ज़रुरत तभी होती, जब हम दूसरी या तीसरी स्टेज पर पहुँच जाते. हम लोगों ने तो पहली स्टेज में ही ठीक होने का निर्णय कर लिया था.

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

आज बहुत याद आती है PAC


लॉकडाउन तोड़ कर कोरोना वायरस फैलाने के लिए बेचैन और मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिए आमादा लोगों के पुलिस पर हमलों के बाद, अब उत्तर प्रदेश पुलिस थोड़ी सक्रिय नज़र आती है. लेकिन, अभी कुछ कमी लगती है. मुझे याद आ जाती है सत्तर के दशक तक सक्रिय पीएसी की. मुल्लाओं के भूत भागते थे इस कांस्टेबुलरी से. इस फाॅर्स की खाकी वर्दी को देखते ही मुल्ला, ठुल्ला और कठमुल्ला की लुंगी, पेंट, जांघिया, आदि सब गीली हो जाती थी. छात्र आन्दोलन के दौरान प्रोविंशियल आर्म्स कांस्टेबुलरी का ख़ूब उपयोग किया जाता था. छात्र इन्हें मामा कह कर चिढाते थे. ऐसे में जब भांजे इनके हत्थे चढ़ जाते थे, मामा इनकी मामा की तरह नहीं धुनकी की तरह धुनाई करते थे.

अब फिर आता हूँ आज के परिदृश्य पर. देख रहा हूँ भाई लोग लॉक डाउन का पालन कराने आई पुलिस पर बेहिचक, बेधड़क, बेरहम हमला करते हैं. पुलिस अधिकारीं को खूनम खून कर देते हैं. दिल्ली में तो इन लोगों के कारण कितने पुलिस अधिकार चोटिल हुए, कोमा तक पहुँच गए. ऐसे में सोचता हूँ अगर उत्तर प्रदेश की पुलिस आर्म्स कांस्टेबुलरी यानी पीएसी होती तो क्या यह पत्थरबाज़ सडकों पर भागते हुए पुलिस वैन में बैठते? भूल जाइए. इन पिल्लों के बापों ने बताया नहीं होगा. मैं बताता हूँ. एक पत्थरबाज़ हमलावर गुंडे को चार पांच पुलिस कर्मी घेर लेते थे. इसके बाद लाठियों से उसका कीर्तन हो जाता था. जब यह कीर्तन ख़त्म होता तो वह उन्मादी जमीन सूंघ चुका होता था. उसे पीएसी के जवान, मरे हुए कुत्ते की तरह, अपनी लाठी में टांग कर पुलिस गाडी में बिदा कर देते थे. पीएसी का नाम सुनते ही मिया भाई मिआऊ बोलने लगते थे. आज मैं अपने पैरों पर भागते इन धार्मिक गुंडों को देखता हूँ तो पीएसी बहुत याद आती है.

नोट- मेरे सगे मामा पीएसी में थे. वह अपनी ड्यूटी के बारे में बताते थे तो उनकी दुर्दशा पर हम बच्चों की आँखों में आँसू आ जाते थे. बेचारे पुलिस वाले भूखे रह कर कठिन ड्यूटी करते हैं. यह कमीने पत्थर बरसाते हैं.

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