माँ कहती थीं-
बेटा, औरत नदी के समान होती है
आदमी उसे कहीं, किसी ओर मोड़ सकता है
इस नहर उस खेत से जोड़ सकता है
वह नहलाती और धुलाती है
अपने साथ सारी गंदगी बहा ले जाती है
मैंने पूछा- माँ,
नदी को क्रोध भी आता है
तब वह बाढ़ लाती है
सारे खेत खलिहान और घर
बहा ले जाती है !!!
माँ काँप उठीं, बोली-
ना बेटा, ऐसा नहीं कहते
नदी को हमेशा शांत रहना चाहिए
उसे कभी किसी का
नुकसान नहीं करना चाहिए ।
नुकसान नहीं करना चाहिए ।
एक दिन,
पिता नयी औरत ले आए
घर के साथ माँ के दिन और रात भी बंट गए
घर के साथ माँ के दिन और रात भी बंट गए
माँ क्रोधित हो उठी
पर वह बाढ़ नहीं बनीं
उन्होने खेत खलिहान और घर नहीं बहाये
उन्होने आत्महत्या कर ली
चार कंधों पर जाती माँ से मैंने पूछा-
माँ तुम खुद क्यूँ सूख गईं
विनाशकारी बाढ़ क्यूँ नहीं बनी
विनाशकारी बाढ़ क्यूँ नहीं बनी
कम से कम
विनाश के बाद का निर्माण तो होता.
विनाश के बाद का निर्माण तो होता.
लेकिन
यह याद नहीं रहा मुझे
यह याद नहीं रहा मुझे
कि माँ केवल नदी नहीं
औरत भी थीं.
बहुत खूब कांडपाल जी , बड़ी ही मर्मस्पर्शी कविता लिखी है ....
जवाब देंहटाएंके के . शर्मा