गुरुवार, 8 सितंबर 2011

मैं माँ

मैंने
महसूस किया है,
माँ को होने वाला एहसास
 कलम से  कागज़ पर
 कविता को
जन्म देते  हुए ।

काश


आसमान पर
 ऊंचे, ऊंचे और बहुत  ऊंचे उड़ते हुए
पंछियों को
कोई कुछ नहीं कहता.
मगर लोग मुझसे कहते हैं-
 बहुत उड़ रहे हो,
इतना ऊंचा न उड़ो
 नहीं तो गिर जाओगे.
जंगल में स्वछन्द विचरते
कूदते फांदते पशुओं को
कोई मना नहीं करता
 पर
लोग मुझसे क्यूँ कहते हैं
इतना स्वछन्द क्यूँ विचरते हो
अपनी ज़िम्मेदारी समझो,
इतनी लापरवाही ठीक नहीं .
ऐसे में 
मैं सोचता हूँ-
काश मैं
खुले आसमान के नीचे
जंगल में होता.

यह बड़े



               एक पार्क में
छोटे बच्चे
पार्क में खेलते हैं.
उनके बड़े
उनसे दूर बैठ कर,
गपियाया करते हैं .
 कभी कभी चिल्ला देते हैं-
यह न करो,
लड़ों नहीं,
यह गन्दी बात है,
मिटटी में क्यूँ लोट रहे हो ?
आदि आदि, न जाने क्या क्या . 
मुझे समझ में नहीं आता,
यह बड़े
दूर बैठ कर
बच्चो को उपदेश क्यूँ देते हैं?
उनकी तरह
लड़ते हुए,
मिटटी में लोटते
और सब कुछ करते हुए
खेलते क्यूँ नहीं ?

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