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नवंबर 24, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कविता

कभी एकांत में मिलो मैं तुम्हे छूना नहीं चाहूँगा तुम्हे देखूँगा महसूस करूंगा जो एहसास देखने और महसूस करने में है वह छूने में कहा

दीपक और उजाला

छोड़ दो उस जगह को जहाँ उजाला हो उठाओ एक दीपक चल दो जहाँ अँधेरा हो। २. बाती की ज़रुरत अँधेरा जगमगाने के लिए ३. ढेरों बड़े दीपों के बीच एक छोटा दीपक उदास- सा बड़े दीपों की रोशनी मद्धम कर रही थी नन्हे दीप की रोशनी शाम बढ़ी लोग आये दीप उठा कर चले गए अकेला रह गया नन्हा दीप इधर उधर देखा एक नन्हा बच्चा चला आ रहा था उसके पास नन्हे दीपक को नन्हीं हथेलियों में उठाया ले गया उस अँधेरे कोने में जहाँ बड़े नहीं पहुंचे थे दीपक मुस्कुरा रहा था। ४. बाती जल कर काली रह जाती है रोशनी फैलाने के बाद तेल उड़ जाता है हवा में बाती की मदद करने के बाद रह जाती है दियाली अपने में समेटे जले तेल और बाती की कुरूपता । ५. जला तेल और रुई की बाती लौ को घमंड क्यों अपनी रोशनी पर ! राजेंद्र प्रसाद कांडपाल

दस क्षणिकाएं

माँ  की  आँखों में आंसू नहीं सूखे की आहट। २ होंठों पर मुस्कराहट आती नहीं बेटी बिदा कर दी है। ३ जिस बेटे को पीठ पर बैठने के लिए अच्छी लगती थी पिता की झुकी कमर आज अच्छी नहीं लगती बूढी कमर। ४ उन्हें भीख भी नहीं मिलती इतनी फैला ली हथेली लोगों ने पढ़ ली हाथों की सभी रेखाएं अभागा है यह। ५ भूकंप आया पक्का मकान गिर गया झोपड़ी नहीं गिरी फिर भी गरीब को दुःख नन्हा दब गया था। ६ जीभ झूठ बोलती है तो होंठ क्या करे दांत क्यों नहीं काटता जीभ को! ७ जोड़ घटाने में कमज़ोर है शायद कि, फिर फिर गलती करता है बहुत सोचने वाला दिमाग। ८ पैर की ठोकरों ने पत्थर बनाया फिर भी लुढ़कता रहता चुपचाप होता नहीं खतरनाक जब तक कोई हाथ फेंकता नहीं। ९ जीभ ने क्या कहा कान को सुनाई नहीं दिया हाथ जो कर रहा था सब। १० बाल काले होते हैं सफ़ेद होते हैं बढ़ते और कटते हैं इसमे सर क्या करे ! मकान मालिक जो है।