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जून 1, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पसीना

रिक्शावाला रिक्शा खींच रहा है सिर से पैर तक पसीने से नहाया है वह नहाया तो मैं भी हूँ बुरी तरह पसीने से क्यूंकि रिक्शावाला ने हुड नहीं लगाया है। मैं डांट लगाता हूँ हुड लगा होता तो मुझे गर्मी न लगती पैसा खर्च कर भी पसीना पसीना न होना पड़ता । रिक्शावाला कुछ नहीं बोलता सुनता रहता है मेरी भुनभुनाहट । गंतव्य तक पहुँच कर मैं दस का नोट देता हूँ रिक्शावाला कहता है- बाबूजी, कितनी गर्मी है दो रुपया और दे दो। मैं चीख उठता हूँ- क्या ग़ज़ब है खुला रिक्शा चला रहा है मुझे पसीना पसीना कर दिया, उस पर दो रुपया ज़्यादा मांग रहा है। मैं आगे बढ़ जाता हूँ रिक्शावाला की बुदबुदाहट कानों में पड़ती है- क्या मेरे पसीने का मोल दो रुपया भी ज़्यादा नहीं।