शनिवार, 24 दिसंबर 2011

किताब

कुछ लोग
जीवन को किताब समझते हैं,
मैं जीवन को किताब नहीं समझता
क्यूंकि,
किताब दूसरे लोग लिखते हैं,
दूसरे लोग पढ़ते हैं.
फेल या पास होते हैं.
किताब खुद को
खुद नहीं पढ़ती.
मैं खुद को पढ़ता हूँ
कहाँ क्या रह गया
क्या गलत या क्या सही था
समझने की कोशिश करता हूँ.
कोशिश ही नहीं करता
उसे सुधारता भी हूँ
और खुद भी सुधरता हूँ
किताब ऐसा नहीं कर पाती
वह जैसी लिखी गयी है या रखी गयी है,
रहती है.
मैं अपनी कोशिशों से निखर आता हूँ
इसलिए मैं खुद को किताब नहीं पाता हूँ.

तीन किन्तु

 गरमी में  चिलकती धूप में  छाँह बहुत सुखदायक लगती है  किन्तु, छाँह में  कपडे कहाँ सूखते हैं ! २-   गति से बहती वायु  बाल बिखेर देती है  कपडे...