सोमवार, 24 दिसंबर 2012

लाठी

हमारे घर में
बाप भाई होते हैं
जो हक़ीक़त में मर्द होते हैं
हमारे घर में
माँ, बेटी और बहन नहीं होती
सिर्फ औरते होती हैं
या लड़कियां होती हैं
औरतें/जिन्हे मर्द
बाप बन कर या
भाई बन कर
नियंत्रित करते हैं
क्योंकि,
औरतें
नाक कटा सकती हैं
बलात्कार की शिकार हो कर
या विजातीय विवाह कर
हमारे घर में
बेटे नहीं होते
लठियाँ  होती हैं
ताकि/ बुढ़िया
टेक लगा सके
लड़खड़ाए नहीं।

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

उदास उजाला

कल
दीपावली के प्रकाश में नहाया मैं
आतिशबाजी की रोशनी से चकाचौंध
पटाखों के शोर से बहरा
देख नहीं सका
ठीक पीछे की अंधरी झोपड़ी को
और सुन नहीं सका
झोपड़ी में उदास बैठे
नन्हे की सिसकियाँ 

रविवार, 11 नवंबर 2012

सिर्फ दो पंक्तियाँ नहीं

चाहा था तुमने मेरा दामन दागदार करना
बात दीगर है कि  तुम्हारे हाथ मैले हो गए .

वह कुछ समझते नहीं, मैं समझ गया,
यही बात समझाना चाहते थे शायद।

बल्बों की लड़ियाँ सजाने से बात न बनेगी
दो जोड़ आँखों की कंदीलें जलाओ तो समझूं .

दूर तक जाते खड़े देखते रहे मुझको
कुछ कदम बढाते तो साथ पाते मुझको।

मैंने एक दीया जला के परकोटे पे रख दिया है,
शायद कोई भटकता हुआ मेरे घर आ रहा हो।
 

रिक्तता

मेरा देखना का नजरिया थोडा अलग है
मैं आधा भरा गिलास नहीं
मैं आधा खाली गिलास देखता हूँ
मुझे उत्तर पुस्तिका की रिक्तता में
खेत के खाली हिस्से में
अधूरे इंसान में
संभावनाएं दिखती  हैं
आधे गिलास को मैं पूरा भर सकता हूँ
उत्तर पुस्तिका के रिक्त पृष्ठों पर मैं
जीवन के कठिन प्रश्न हल कर सकता हूँ
खाली खेत की निराई, गुड़ाई और बुवाई कर
उम्मीद की फसल बो सकता हूँ
खाली गिलास, रिक्त पृष्ठ और अनबुआ  खेत की तरह
अधूरे इंसान को पूरा करना ही
दृष्टिकोण है मेरा।

बुधवार, 7 नवंबर 2012

निराशा

कभी/जब
आशा साथ छोड़ जाए
चारों ओर निराशा ही निराशा हो
तब घबराओ नहीं
निराशा को दोस्त बनाओ
उससे प्यार करो
वही बताइएगी आशा की राह
क्यूंकि
निराशा सबसे अधिक
अनुभवी होती है
उसे हर कोई ठुकराता है
उसे हमसे ज़्यादा
दर दर की ठोकरें जो मिलती हैं
वह हमेशा
आशा की जगह लेने के लिए
आशा का पीछा करती रहती है
इसीलिए वह
भगवान से भी ज़्यादा जानती है
कि आशा कहाँ मिलेगी।

बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

ज़िंदा

मूर्ति की भांति
मैं खड़ा था
निःचेष्ट ।
एक व्यक्ति आया
उसने मुझे देखा
मैं हिला नहीं।
फिर ज़्यादा लोग आए
किसी ने मुझे छुआ
बांह से/बालो से/ सीने से
मैं कसमसाया तक नहीं
कुछ ने मेरी नाक उमेठी
बाल खींचे
आँख में उंगली डाल दी
मैंने कोई विरोध नहीं किया।
फिर सब चले गए
मैं अकेला रह गया
चौकीदार आया
मेरी बांह पकड़ कर बोला-
चल बाहर चल,
मुझे मोमघर बंद करना
तुझे अंदर नहीं रख सकता
क्योंकि तू
सचमुच ज़िंदा है।

रविवार, 28 अक्टूबर 2012

वर्तमान

हमारे अपने है,
हमारे द्वारा निर्मित हैं
भूत, भविष्य और वर्तमान ।
हम/अपने भूत को पलट पलट कर
देखते हैं/रोते हैं
किन्तु, अलविदा नहीं कहते ।
हम अपने भविष्य को
बँचवाते हैं/सपने बुनते हैं/सोचते रहते हैं ।
हम अपने वर्तमान को
देखते नहीं/बाँचते नहीं/सँवारते नहीं
उधेड़बुन में बीत जाने देते हैं
देखते रहते हैं
वर्तमान को भूत बनते
और फिर जुट जाते हैं
भविष्य बँचवाने/सपने बुनने में 
सँवारने में नहीं ।
भविष्य सँवारने की कोशिश
करें भी तो कैसे
वर्तमान को तो हम
अंधे बन कर
लूला लंगड़ा असहाय गुजर जाने देते हैं।

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

दिवाली

घोर अंधेरी रात में
जगमग की बरसात ले
दीवाली आयी है ।।
बिखरी हैं
जगमग रोशनियाँ ।
सजी हुई
खुशियों की लड़ियाँ ।
अमावस को दूर भगा
दीप बत्तियाँ जला जला
धरती माँ जगमगाई है।
दीवाली आयी है।
झिलमिल झिलमिल
दीप जले ।
खिल खिल खिल खिल
खील खिले।
लक्ष्मी माँ अब आ जाओ
पूजा की बेदी सजाई है।
दीवाली आयी है।
 

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

ममता

देख रहा दुःस्वप्न
छीने ले जा रहा कोई
माँ की गोद से ।
व्याकुल बच्चा
छटपटा रहा
चीखना चाह रहा
रोना चाह रहा
किन्तु अंजाना सा भय
आवाज़ नहीं निकलने दे रहा
मुंह से
बड़ी कठिनाई से
बच्चा चीखता है-
माँ !
तभी सर पर
फिरने लगती हैं
कोमल और ममता भरी हथेली
सो जा बेटा
मैं हूँ तेरे पास
हल्की मुस्कुराहट बिखेर कर
आश्वस्त हो सो जाता है बच्चा
पास ही तो है
माँ !
 

दिवाली

छूटते पटाखे
जलती फुलझड़ियाँ और अनार
आसमान पर थिरकती हवाई
ज़मीन पर नाचती चक्री
देख रहा है मुन्ना
जलते दीपकों के बीच
झिलमिला रही हैं आंखे।
(2)
बड़ी दियाली
छोटी दियाली
अगल बगल
दोनों में जलती बाती
आनंद ले रहीं
अंधेरे के बिखरने का
तभी
बड़ा दीपक इतराया
ज़ोर से लहराया/और बोला-
ऐ छोटी डर नहीं
मेरे नीचे छिप जा
मैं बचा लूँगा तुझे
हवा नहीं बुझा पाएगी तुझे 
कि तभी,
हवा का तेज़ झोंका आया
सम्हलते सम्हलते भी
बड़े दीपक की बाती बुझ गयी
लेकिन,
छोटी दियाली
अंधेरा भगा रही थी
उस समय भी।

(3)
दीवाल पर
मुन्ना के नयनों में
दीपक जले।

(4)
 

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

मुंगेरीलाल के सपने

मैं मुंगेरीलाल हूँ
मैं सपने देखता हूँ ।
अरे तुम हँसे क्यों
मेरी आँखें
क्यों नहीं देख सकती सपने 
हर आँखों में नींद होती है
सपने होते हैं
सोने के बाद
सभी आँखें सपने देखती हैं
मैं भी देखता हूँ
शायद तुम यह सोचते हो कि
मेरे सपने तो
मुंगेरीलाल के सपने हैं
जो पूरे नहीं हो सकते
लेकिन, बंधु
हमारे देश के कितने लोगों के
सपने पूरे होते हैं
ज्यादातर सपने तो
जागने से पहले ही बिखर जाते हैं
कुछ आंखे तो
 सपनों के बिखरने के लिए आँसू बहाती हैं
इसके बावजूद
अगले दिन फिर सपने देखती हैं
हमारे देश में
मुंगेरीलाल सपने ही तो देख सकता हैं।
 

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

विभीषण

तीन भाई होते हुए भी
तीन भाइयों वाले राम से
इसलिए हारा रावण
कि
जहां राम के साथ
भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण थे
वही रावण के तीन भाइयों में
एक विभीषण जो था।



 

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

सोचो राम !!!

प्रत्यंचा चढ़ाये
होठों में मुसकुराते /राम से
रावण ने कहा-
राम तुम राम न होते
मैं रावण नहीं होता
तुम वहाँ नहीं होते
मैं यहाँ नहीं होता
अगर,
थोड़ा रुक कर बोला रावण -
यहाँ अगर का बड़ा महत्व है राम
अगर तुम्हें
भाई घाती सुग्रीव न मिलता
तो तुम बाली को न मार पाते
बानरों से सीता का पता न पाते
अगर तुम
मेरे भाई को विभीषण न बनाते
तो मेरी नाभि के अमृत का पता न चलता
मेरी अमरता को मार न पाते ।
तुम  राम हो और मैं रावण  हूँ
क्योंकि
मुझे विद्रोही भाई मिले
जबकि तुम्हें भरत मिला ।
अगर भरत भी
विभीषण बन जाता
तो सोचो राम
क्या तुम राम बन पाते ?
अयोध्या के राजा बन कर
अपनी मर्यादा जता  पाते?
सोचो राम !!!

 

सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

ऊन उलझी

जाड़ों  में
एक औरत
स्वेटर बुनती है ।
फंदा डालना है
फंदा उतारना है
अधूरे सपनों को
इनसे संवारना है
हरेक स्वेटर में
ज़िंदगी गुनती है।
जाड़ा आता है
जाड़ा चला जाता है
जिसने कुछ ओढा हो
उसे यह भाता है।
गुनगुनी धूप से
भूख कहाँ रुकती है।
जिंदगी की स्वेटर में
डिजाइन कहाँ
उलझी हुई ऊन से
सब हैं यहाँ
ऐसी ऊन से माँ
सपने बुनती है ।

स्वेटर

जाड़ों में स्त्रियाँ
स्वेटर बुनती नज़र आती हैं
धूप में बैठी हुई
बात करती
तेज़  गति से सलाई चलाती
एक फंदा सीधा, एक उल्टा
या कुछ फंदे सीधे और कुछ उल्टे
या फिर ऐसे ही गणित के साथ
डिजाइन बनाती हैं।
स्वेटर लड़की के लिए भी बन रही है
और लड़के के लिए भी
लेकिन लड़का पहले है
कुल का चिराग है
कहीं ठंड न लग जाये
लड़के की स्वेटर की ऊन भी नयी है
लड़की के लिए मिक्स है।
लड़के की स्वेटर के डिजाइन में
खूबसूरत फूल हैं
हाथी घोड़े और चढ़ता सूरज है
लड़की के स्वेटर में
एक दुबली सी लड़की की डिजाइन है
डिजाइन वाली लड़की
न जाने हंस रही है या रो रही है
मगर स्वेटर पूरी होने को है।
 निश्चित रूप से
पूरी स्वेटर देख कर
पुलक उठेगी मुनिया
पिछले जाड़ों में तो
छेद वाली ही स्वेटर नसीब हुई थी न!

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

दरख्त जैसे मकान


मेरे शहर में
ऊंचे ऊंचे दरख्तों जैसे
एक के ऊपर एक चढ़े
मकान होते हैं 
जिनके सामने
ऊंचे दरख्त भी
बहुत छोटे लगते हैं
कभी
कबीर ने कहा था -
बड़ा भया तो क्या भया/
जैसे पेड़ खजूर /
पंथी को छाया नहीं /
फल लागे अति दूर ।
मेरे शहर के
इन गगनचुंबी दरख्तों पर
फल तो लगते ही नहीं 
छाया क्या खाक देंगे
दरख्तों को काट कर बने मकान।

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

सबक

मरे जानवर की खाल से बना
जूता काटता है
पहनने वाले को /परेशान करने की
अपनी क्षमता का पता बताता है
अगर ज़िंदा आदमी
ऐसा कर सकता है
तो मरे का काम ही किया ना!
यही जूता
अगर उल्टे पाँव में पहनो तो
तत्काल/एहसास करा देता है
कि उल्टा पहन लिया
तब आदमी
जूते से सबक लेते हुए
सीधा काम क्यों नहीं करता!

 

सोमवार, 24 सितंबर 2012

कौव्वा

कभी
हमारे घर की मुंडेर पर
कौव्वा आ बैठता था।
जब वह कांव कांव करता
तो आ आ का आभास होता 
हम बच्चे
उसे उड़ाने लगते
पत्थर फेंक कर/तब
माँ कहती-
बेटा, ऐसा न कर
मेहमान घर आने वाला है
कौव्वा उनके आने का संदेश दे रहा है
आज
घर है
मुंडेर नहीं
कौव्वा बैठे भी तो कहाँ
क्या/शायद इसीलिए
हमारे घर
कोई मेहमान नहीं आता?

शनिवार, 22 सितंबर 2012

डरा बच्चा

बच्चा
बिछुड़ गया है/अपनी माँ से
कैसे/
कैसे छूट गया हाथ
बच्चे का/ माँ से
कैसे/
कैसे हो सकती है /असावधान
माँ
सोच रहा है बच्चा
डर रहा है बच्चा
डरा रहा है
परिचित चौराहा
चिरपरिचित राह
भयभीत है
कहाँ गयी माँ
मुझे छोड़ गयी माँ
या लौट कर आएगी माँ
हा माँ! आ माँ!!
कहाँ छोड़ गयी माँ!!!
चार राहों के बीच
असुरक्षित, भयभीत और असहाय
बच्चा
रो रहा है! रो रहा है!! रो रहा है!!!

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

विदाई

एक रोती लड़की से
मैंने कहा-
तू पैदा हुई
तब रो रही थी।
जब विदा हो रही थी
तब भी रो रही थी।
फिर पूछा-
आज जब माँ बनने वाली है
तब भी तू रो रही है?
लड़की रोती रही/बोली-
पैदा होते समय
तू भी रोया होगा
पर मेरे भाग्य में तो
पग पग रोना लिखा है
पिता पढ़ाने में रोया
शादी के समय
दहेज देने में रोया
सही है कि मैं
विदा के समय भी रोयी
और आज भी रो रही हूँ
क्योंकि
मुझे आज भी रोना है
और कल भी।
कल बेटी विदा होगी
तब  रोटी
लेकिन
मुझे आज ही रोना होगा
डॉक्टर के यहाँ जाना है
क्योंकि मेरे पति
बेटी को आज ही
विदा करना चाहते हैं।

शनिवार, 15 सितंबर 2012

बूढ़ा- कोना


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कोने में बूढ़ा

अंधेरे कोने की
धूप सा
अकेला दुबका रहता  है/ बूढ़ा
कुछ अपने में सिमटा
हवा से/खिड़कियों के
हिलने से कुछ सहमा
घर में/ किसी को
क्या फर्क पड़ता है
कि/ कोने में
धूप है या नहीं
लेकिन
अंधेरे कोने को
फर्क पड़ता है
थोड़ा नज़र आता है/ कोना
खत्म हो जाता है/ अकेलापन
कोने का/बूढ़े का भी
तभी तो/जब
धूप का टुकड़ा/और बूढ़ा
अलविदा/तब
कोना/हो जाता है
कुछ उदास/गहरा उदास।

 
मैं कब का चला आया था, पास समझ रहे थे तुम,
आवाज़ की गूंज को मेरी आवाज़ समझ रहे थे तुम।
सामने जब तलक बैठा रहा देखा नहीं तुमने मुझको,
मेरे साये का  बड़ी देर तक पीछा करते रहे थे तुम।
तुम नाराज़ थे मैं मनाता रहा न माने तुम,

वसीयत

मैंने अपनी
वसीयत लिख दी है
ग़रीबी बड़े बेटे के नाम
मुफलिसी छोटे के नाम
और भूख
खुद के लिए छोड़ दी है।
बड़ा/ पैसे कमा कर
ग़रीबी दूर कर लेगा
छोटा/ धीरे धीरे सब जुटा कर
मुफलिसी दूर कर लेगा।
मैंने/ भूख/ अपने नाम
इस लिए की है/ क्योंकि
भूख से मेरा
बचपन का नाता है
मैंने इसे खाया, पिया और जिया है
यह मेरी बाल सखा, सहेली, सहपाठी और संगिनी है
इतने गहरे रिश्ते/मैं
बच्चों में नहीं बाँट सकता
यह मेरे अतीत के पन्ने है
मैं/ इन्हे/ कभी नहीं पलटता
तो/वसीयत में/ कैसे जोड़ देता
बच्चों में कैसे बाँट देता!
 

शनिवार, 8 सितंबर 2012

दीवानगी

जहां लोग
माथा टेकते हैं,
वह मंदिर है।
जहां लोग
माथा रगड़ते हैं,
वह मस्जिद है।
जहां लोग
घुटने टेक कर
अपराधों की क्षमा मांगते हैं,
वह चर्च है।
लेकिन,
समझ नहीं सका मैं,
जहां लोग पी कर लोटते हैं
उस मयखाने से
कोई नफरत क्यों करता है?
दोनों ही दीवाने हैं
एक ईश्वर, अल्लाह और खुदा का
दूसरा
उस ईश्वर, अल्लाह और खुदा की बनाई
अंगूर की बेटी का।
दीवानगी और दीवानगी में यह फर्क
दीवानापन नहीं तो और क्या है
कि हमे
मयखाने के दीवानों की दीवानगी की
इंतेहा से नफरत है।

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

मातृ भाषा हिन्दी

सूती धोती ब्लाउज़ में
अपनों की देखभाल करती
बहलाती, पुचकारती और समझाती
हिन्दी से
पाश्चात्य पोशाक में लक़दक़
गिटपिट करती
अंग्रेज़ी ने कहा-
इक्कीसवीं शताब्दी के
आधुनिक भारत की भाषा
तुझे क्यों कोई साथ नहीं रखता
तू उपेक्षित
अपनों से सहमी हुई रहती है
कभी तूने सोच की क्यों ?
क्यों लोग मुझे अपनाते हैं
मेरा साथ पाकर धन्य हो जाते हैं
तुझे साथ लेने में शर्माते हैं।
अंग्रेज़ी के ऐश्वर्य से
अविचलित
हिन्दी से अंग्रेज़ी ने आगे कहा-
क्योंकि,
मैं उन्हे गौरव का अनुभव देती हूँ
दूसरों से संपर्क के शब्द देती हूँ
इस मायने में तू मूक है
इसलिए इतनी उपेक्षित है।
हिन्दी ने अंग्रेज़ी को देखा
चेहरे पर आत्मविश्वास लिए कहा-
मैं 'म' हूँ
बच्चे का पहला उच्चारण
तुम्हारे देश का बेबी भी
पहले 'म' 'म' ही करता है
मदर नहीं बोलता ।
मैं बोलने की शुरुआत हूँ
बच्चे के शब्द मैं ही गढ़ती हूँ
तू उसके बोलने और सीधे खड़े होने के बाद
उसके सर चढ़ जाती है
बेशक
तू मेम हो सकती है
मगर माँ नहीं बन सकती
क्योंकि मैं बच्चे की जुबान पर उतरी
मातृ भाषा हूँ।


 

बुधवार, 5 सितंबर 2012

गुरु


मैं मिट्टी था
गुरु ने मुझे
मूरत बनाया
ज्ञान दिया गुर सिखाया
मुझे शिक्षित कर
गुरु यानि भारी बना दिया
और मैं
गुरु बनते ही
गुरूर से भर गया
और फिर से
मिट्टी हो गया।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

हिन्दी

अपने देश में
पिता के घर
भ्रूण हत्या से बच गयी
बेटी जैसी
उपेक्षित,
ससुराल में
कम दहेज लाने वाली
बहू जैसी
परित्यक्त   
क्यों है
विधवा की बिंदी जैसी
राष्ट्रभाषा
हिन्दी ।

(2)
कमीना सुन कर
नाराज़ हो जाने वाले लोग
अब
बास्टर्ड सुन कर
हँसते हैं।
 

रविवार, 2 सितंबर 2012

नाक

कोई
क्यों नहीं समझ पाता
अपने सबसे नजदीक को ?
क्या हम
आँख से सबसे निकट नाक
कभी ठीक से देख पाते हैं?
जब तक कोई
आईना पास न हो।
 

गिरगिट

जिन लोगों के पास
होती है
लंबी जीभ
उनके पास
आँखें नहीं होती
कान नहीं होते
यहाँ तक कि
नाक भी नहीं होती।
ऐसे लोग
कुछ सोचना समझना नहीं चाहते
वह सोचते हैं
कि उनकी लंबी जीभ
पर्याप्त है
पेट भरने के लिए।
ऐसे लोग
गिरगिट की तरह होते है
मौका परस्त
और रंग बदलने वाले
लेकिन
ऐसे लोग नहीं जानते
कि
गिरगिट पर
कोई विश्वास नहीं करता
उसे निकृष्ट दृष्टि से देखा जाता है।
भई,
गिरगिट
धोखेबाज, भयभीत
सीधी खड़ी नहीं हो सकती
रेंगती रहती है
आजीवन।

बुधवार, 29 अगस्त 2012

दर्द का रिश्ता

दो सखियों या बहनों
या फिर माँ बेटी जैसा
आँखों का
आंसुओं से रिश्ता
एक महसूस करती
दूसरी छलक पड़ती
एक रोती
दूसरी बह निकलती
क्योंकि
बहनों-सखियों जैसा
माँ बेटी का यह रिश्ता है
दर्द का
जब  बढ़ जाता है
दर्द
हद से ज़्यादा
तब
बिलखने लगती हैं आंखे
निकलने लगते हैं आँसू


 

सोमवार, 27 अगस्त 2012

किसके हरिश्चंद्र


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शनिवार, 25 अगस्त 2012

मुर्दे

मुझे पसंद हैं
मुर्दे !
जो
सोचते नहीं
मुंह खोलते नहीं
वह सांस रोके
निर्जीव आँखों से  देखते हैं
ज़िंदा आदमी का फरेब
जो देखता है,
सब कुछ समझता है
इसके बावजूद
जब
मुंह खोलता है
तब
न जाने कितने
ज़िंदा
मुर्दा हो जाते हैं।
शायद इसीलिए
देखते नहीं
मुंह खोलते नहीं
मुर्दे।

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

जो

जो
जो
टाला न जा सके
वह घोटाला ।
जो
उगला न जा सके
वह निवाला।
जो
समझा न जा सके
वह गड़बड़झाला।
जो
सब भूल जाए
वह हिन्द वाला ।
(2)
बाज़ार मे कसाई
जो काट कर बेचे
उसे
नरम गोश्त कहते हैं।
फिल्मों में हीरोइन
जो कपड़ा फाड़ कर बेचे
उसे
गरम गोश्त कहते हैं।
      फर्क
मेरे सामने तुम मुसकुराते नज़र आओ ऐ दोस्त,
मेरे सामने होने का फर्क नज़र आना ही चाहिए।
     (1)
भूखा आदमी
तेज़ भूख लगने पर
अपनी व्यथा
दोनों हाथों से पेट सहला कर
व्यक्त करता है ।
लेकिन
जब भोजन आता है तो
उसे खाता एक ही हाथ से है।
 
तुमने मुझे
बेकार कागज़ की तरह
फेंक दिया था ज़मीन पर।
गर पलट कर देखते
तो पाते कि मैं
बड़ी देर तक हवा के साथ
उड़ता रहा था
तुम्हारे पीछे।
  (2)
मेरे आँगन में शाम बाद होती है
पहले उनके घर अंधेरा उतरता है।
(3)
देखो मैं रास्ते में पड़ा रुपया उठा लाया हूँ।
पर वहाँ एक बच्चा अभी भी पड़ा होगा।
(4)
मेरे आसमान पर चाँद है तारे हैं, पंछी नहीं।
सुना है ज़मीन पर आदमी भी भूखा है।
(5)
दोस्त तुम मुझ पर हँसते हो तो मुझे खुशी होती है
कि चलो कुछ मनहूसों को हँसाया तो मैंने।
 
 

रविवार, 19 अगस्त 2012

शरीर

ईश्वर ने इंसान को
दो हाथ और दो पाँव
दो छिद्रों वाली एक नाक के ठीक ऊपर दो आँखें
बत्तीस दांत
और उनके बीच लचीली जीभ
इसलिए नहीं दी कि
अपने पैरों तले
मानवता को रौंद दे
हाथों से रक्तपात और अशुभ करे ।
बुरा सूंघने और देखने के लिए नहीं हैं
दो आंखे और एक नाक
दूसरों को काटने के लिए नहीं हैं दाँत 
क्योंकि
बोलने की आज़ादी की रक्षा के लिए हैं दाँत
मानवता को बचाने के लिए हैं हाथ
अन्यायी के खिलाफ मजबूती से खड़ा होने के लिए हैं पैर
नाक के दो छेद और आँखें
अच्छा और बुरा समझने बूझने
और देखने के लिए हैं ।
मगर ऐसा क्यों नहीं हो पाता ?
क्योंकि,
हमारे हृदय में नहीं बहता
इंसानियत का खून
नियंत्रण में नहीं होता मस्तिष्क
बल्कि,
नियंत्रित करते हैं दूसरे
जो इंसानियत जैसा नहीं सोंचते ।



सोमवार, 13 अगस्त 2012

मुकद्दर

मैंने मुकद्दर से कहा-
मेरी मुकद्दर में जो है
लिख दो मेरी मुकद्दर में ।
मुकद्दर ने
लिख दिया
मुकद्दर को कोसना
मेरी मुकद्दर में ।
 

रविवार, 12 अगस्त 2012

तिरंगा

स्वतंत्रता दिवस पर,
उससे पहले हर साल
गणतंत्र दिवस पर
तिरंगा फहराया जाता है।
तिरंगा,
खुद में फूल लपेटे
रस्सी से बंधा
नेता के द्वारा
नीचे से ऊपर को खींचा जाता है।
जब चोटी पर पहुँच जाता है तिरंगा
लंबे डंडे से जकड़ दिया जाता है तिरंगा
तब नेता
एक जोरदार झटका देता है
तिरंगा
नेता पर फूल बरसाते हुए
हर्षित मन से
प्रफुल्लित तन से
लहराने लगता है
मानो अभिवादन कर रहा हो
नेता का।
क्या यह स्वतंत्रता है
यह गणतंत्र है
जिसमे
रस्सी से जकड़ा तिरंगा
नेता के द्वारा
स्वतंत्र किए जाने पर
फूल बरसाता है,
प्रफुल्लित लहराता है
और बेचारा जन गण
मन ही मन तरसता हुआ
राष्ट्रगान गाता है।


सोमवार, 30 जुलाई 2012

होरी

होरी को रचते समय
प्रेमचंद ने
होरी से कहा था-
मैं ग़रीबी का
ऐसा महाकाव्य रच रहा हूँ
जिसे पढ़ कर
लाखों करोड़ों लोग
डिग्री पा जाएंगे, डॉक्टर बन जाएंगे
प्रकाशक पूंजी बटोर लेंगे
साम्यवादी मुझे अपनी बिरादरी का बताएंगे
किसी गरीब फटेहाल को
कर्ज़ से बिंधे नंगे को
लोग होरी कहेंगे ।
इसके बाद
तू अजर हो जाएगा
किसी गाँव क्या
शहर कस्बे में
गरीबों की बस्ती में ही नहीं
सरकारी ऑफिसों में भी
तू पाया जाएगा,
साहूकारों से घिरे हुए
पास के पैसों को छोड़ देने की गुहार करते हुए
और पैसे छिन जाने के बाद सिसकते हुए।
निश्चित जानिए
उस समय भी
होरी रो रहा होगा
तभी तो प्रेमचंद को
उसका दर्द इतना छू पाया
कि वह अमर हो गया।

रविवार, 22 जुलाई 2012

रात्री

रात के घने अंधेरे में
पशु पक्षी तक सहम जाते हैं
चुपके से दुबक कर सो जाते हैं
अगर किसी आहट से कोई पक्षी
अपने पंख फड़फड़ाता है
तो मन सिहर उठता है
वातावरण की नीरवता
मृत्यु की शांति का एहसास कराती है
क्यूँ कि, जीवन तो
सहम गया हो जैसे
दुबक कर सो गया हो जैसे ।
ऐसे भयावने वातावरण में
झींगुरों की आवाज़े ही
सन्नाटे का सीना चीरती हैं
यह जीवन का द्योतक है
कि कल सवेरा हो जाएगा
जीवन एक बार फिर
चहल पहल करने लगेगा।
फिलहाल तो हमे
सन्नाटे को घायल करना है
जुगनुओं की रोशनी में
भटके हुए मनुष्य को
उसके गंतव्य तक पहुंचाना है।

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

राजा हरिश्चंद्र

अगर आज
राजा हरिश्चंद्र होते
सच की झोली लिए
गली गली भटकते रहते
कि कोई परीक्षा ले उनके सच की
लेकिन
यकीन जानिए
उन्हे कोई नहीं मिलता
परीक्षा लेने वाला
जो मिलते
वह सारे
श्मशान के डोम होते
जो उनकी झोली छीन लेते
उनके ज़मीर की
चिता लगवाने से पहले ।

बेकार

तुमने मुझे
बेकार कागज़ की तरह
फेंक दिया था ज़मीन पर।
गर पलट कर देखते
तो पाते कि मैं
बड़ी देर तक हवा के साथ
उड़ता रहा था
तुम्हारे पीछे।
 
कभी हवाओं से पूछो कि क्यूँ देती है आवाज़ पीछे से
बताएगी कि कहीं कुछ रह तो नहीं गया तेरा पीछे।

रविवार, 15 जुलाई 2012

न्याय

ग़रीब  की झोपड़ी में
इतने और ऐसे छेद !
कि उनसे
झाँकने में झिझकती हैं सूरज की किरणें
चाँदनी भी असफल रहती है अपनी चमक फैलाने में
झोपड़ी के अंदर
गर्मी को कम करने अंदर नहीं आ पाती
ठंडी बयार ।
ऐसा क्यूँ होता है
सिर्फ ग़रीब की झोपड़ी के साथ कि
बारिश का पानी चू चू कर
ताल बना देता है टूटी चारपाई के नीचे
सर्द हवाएँ तीर की तरह चुभती हैं
आंधी तूफान में सबसे पहले
झोपड़ी ही ढहती है।
क्यों नहीं करती पृकृति भी
गरीब की झोपड़ी के साथ
न्याय ?

कल

तीव्र गति से बढ़ती रात को
संसार की बागडोर सौंपने के लिए
शाम बन कर ढलता दिन
संसार के विछोह से म्लान
पीला पड़ गया है
रात समेटना चाहती है
दिन है कि जाना ही नहीं चाहता ।
तब, दिन के कान में
फुसफुसाती है हवा-
मोह छोड़ो आज का और संसार का
रात को समेत लेने दो आज करने
ताकि संसार कर सके
थोड़ा सा विश्राम ।
अगले सूर्योदय के साथ तो 
लोग करेंगे तुम्हें ही प्रणाम
क्योंकि
संसार के मोह से उबरने के बाद दिन
कल तुम्हारा ही होगा  !

शनिवार, 7 जुलाई 2012

तुक्का फिट

भागता हुआ पहुंचा उठाने को चिलमन उनकी
मालूम न था कि वो कफन ओढ़े लेते हैं।

रहते हैं वह मेरे हमराह तब तक
रास्ता जब तलक नहीं मुड़ता।

मेरे आँगन में शाम बाद होती है
पहले उनके घर अंधेरा उतरता है।

देखा मैं रास्ते पे गिरा रुपया उठा लाया हूँ।
पर वहाँ इक बच्चा अभी भी पड़ा होगा।

मेरे आसमान पर चाँद है तारे हैं, पंछी नहीं।
सुना है ज़मीन पर आदमी भी भूखा है।

खुशी के आँसू

पिता जी मर रहे थे
घर में अफरा तफरी मच गयी
जल्दी से गंगाजल लाओ
पंडितजी के मुंह में डालो
सीधे स्वर्ग जाएंगे।
रोना पीटना शुरू हो गया
लेकिन माँ की आंखो में
एक बूंद आँसू नहीं थे
बुजुर्गों ने कहा- बहू सदमे में है
उसे रुलाओं ।
सहेलियों ने झकझोरा-
कमला, तू रोती क्यूँ नहीं, रो ?
माँ ने कुछ सुना नहीं
वह तो उधेड़बुन में थीं।
कैसे होगा दाह संस्कार
और बाद के काम काज
घर में इतने पैसे कहाँ।
इनकी तनख्वाह तो रोजमर्रा की जरूरतों के लिए
काफी नहीं थी, बचत क्या खाक होती।
पिता शायद मर गए थे
आवाज़ें आने लगी
भाई कफन दाह संस्कार के इंतज़ाम करो
शव को घर में ज़्यादा देर रखना ठीक नहीं।
माँ की परेशानी ज़्यादा बढ़ गयी
कि तभी कुछ लोग अंदर आए
पिता के ऑफिस के लोग थे
उनमे से एक बुजुर्ग ने
बेटे के हाथ में
ऑफिस में एकत्र हुए कुछ रुपये रख दिये।
वह बोला- बेटा अभी यह रखो
पिताजी का काम करवाओ
हम जीपीएफ़ आदि के पैसे जल्द भेज देंगे।
सदमे में जाती लग रही माँ
सब देख और सुन रही थी।
यह सुनते ही माँ
दहाड़ मार कर रोने लगी।
सब कहने लगे- चलो रोई तो
अब सदमे में नहीं जाएगी।
पर माँ के अलावा कोई नहीं जानता था कि
इस विलाप में
खुशी के आँसू ज़्यादा थे
कि इज्ज़त बच गयी ।

गब्बर सिंह

भूख से बिलबिला रहे बेटे से
माँ ने कहा-
बेटा सो जा! नहीं तो गब्बर आ जाएगा।
बेटे ने माँ के चेहरे को निहारा
फिर बोला-
माँ, यह गब्बर कौन है?
यह कहाँ रहता है?
इसका नाम लेते समय
तुम इतनी उदास और चिंतित क्यूँ हो?
बेटे को थपकते हुए माँ बोली-
बेटा यह गब्बर सिंह
पचास पचास कोस दूर नहीं
हर कहीं आस पास रहता है
यह भूख का दैत्य है
जो महंगाई के शेर पर सवार रहता है
इसे देख कर
तेरे बाबा और चाचा भी काँप जाते हैं
दूर देश मजूरी करते है
फिर भी इस गब्बर को भगा नहीं पाये हैं
महंगाई पर सवार गब्बर ज़्यादा भयानक लगता है
तुझे जागा देखेगा तो तुरंत पकड़ लेगा।
बेटे ने कहा- माँ अगर मैं सो गया तो क्या
गब्बर सिंह नहीं आएगा?
तू मुझे लोरी गा कर भी तो सुला सकती थी
गब्बर का डर क्यूँ दिखा रही है ?
माँ बोली-
बेटा लोरी में दूध की कटोरी और बताशे का जिक्र होता है
इसे सुन कर गब्बर भागता हुआ आ जाता है।
तुझे उठा ले गया तो मैं क्या करूंगी।
तू ठीक कहता है कि गब्बर कल भी आएगा
लेकिन, अगर तू आज सो गया
तो यह आज तेरे पास नहीं आएगा।
कल तो मैं
इस गब्बर को भगाने का
कोई उपाय ढूंढ लूँगी।
चल अब सोजा
नहीं तो गब्बर बाहर ही खड़ा है।
बच्चे ने अपनी आंखे कस के भींच ली
कल रोटी मिलने की आस में
जाने कब वह सो गया ।
माँ गब्बर सिंह को भगाने के लिए
जय और वीरू
यानि रोटी और नमक की उधेड़बुन में
देर रात तक जागती रही।

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

ईमानदारी की पोटली

भागता आ रहा एक आदमी
बदहवास, निराश और भयभीत
कुछ लोग पीछे भाग रहे हैं उसके
कृशकाय शरीर वाला वह व्यक्ति
भाग नहीं पाता, गिर पड़ता है
भीड़ उसे घेर लेती है ।
वह गिड़गिड़ाता है-
छोड़ दो मुझे
जीने दो
क्या बिगाड़ लूँगा मैं तुम सबका
अकेले !
लोग चीखने लगते हैं-
मारो नहीं छीन लो इससे पोटली ।
कृशकाया थरथराने लगती है-
नहीं, मुझसे इसे मत छीनो
मैंने इसे परिश्रम से
तिनका तिनका करके बटोरा है
बरसों सँजो कर रखा है
यही तो मेरी पूंजी है ।
उस कमजोर पड़ चुकी काया के
बगल से दबी हुई थी
ईमानदारी की पोटली,
जो थी उसकी प्रतिष्ठा, मान सम्मान
और संपत्ति ।
कैसे यूं ले जाने देता उन्हे ।
भीड़ आरोप लगाती है-
इसने धीरे धीरे चुरा ली है
जमाने की ईमानदारी
और बना ली है
अपनी पोटली
कैसे रख सकता है यह
हम सभी बेईमानों के बीच
सहेज कर अपनी
ईमानदारी की पोटली ?




सोमवार, 2 जुलाई 2012

नहा रहा बच्चा

नहलाने जा रही है
बच्चे को माँ
नन्हें बदन से नन्हें कपड़े
बड़े दुलार से
एक एक कर उतारती
फिर थोड़ा तेल मल देती सिर पर
और चुपड़ देती बदन पर
बच्चा कौतुक से निहार रहा है माँ को
क्या कर रही है माँ!
फिर माँ बच्चे को
पानी के टब में बैठा देती है
बच्चा चीख उठता है
हालांकि पानी गरम नहीं, गुनगुना है
शरीर की थकान उतारने वाला
फिर भी नन्हा ऐसे बिलखता है जैसे
पानी बहुत गरम या ठंडा है
पर माँ बाहर नहीं निकालती
बच्चा बिलख बिलख कर रोने लगता है
मानो ज़िद कर रहा हो कि मुझे बाहर निकालो
लेकिन क्यूँ निकाले  माँ
बच्चे के भले और स्वास्थ्य के लिए
रोज़ नहाना ज़रूरी है, माँ जानती है
बच्चा गला फाड़ कर रोना शुरू कर देता है
माँ साबुन लगाती जाती  है
हौले हौले शरीर मलती जाती है
बच्चा छाती का पूरा ज़ोर लगा कर रोता है
क्यूँ करती है माँ इतनी ज़िद ?
माँ को इत्मीनान हो जाता है
कि वह अब ठीक से नहा चुका है
 उसे टब से बाहर निकाल लेती है
मुलायम मोटे तौलिये पर लिटा देती है
बच्चा थोड़ा संतुष्ट है कि अब पानी में नहीं
पर रोना बंद नहीं करता
कहीं माँ फिर से टब में न डाल दे।
माँ बच्चे का शरीर तौलिये से पोंछती है
हल्के हल्के दबाते हुए
ताकि पानी शरीर से सूख जाए
और बदन भी दब जाए ।
बच्चा अब चुप है
माँ पाउडर का डब्बा उठाती है,
बच्चे के बदन पर छिड़कती है
बच्चे को पाउडर की सुगंध अच्छी लगती है
थोड़ा पाउडर उड़ता हुआ नाक में चला जाता है
बच्चा छींकता है, नाक मसलता है
पर उसे अच्छा लगता है
इसलिए अब वह रो नहीं रहा
पाउडर लगाने का स्वागत कर रहा है
माँ जल्दी लगाओ !
माँ थोड़ा पाउडर हथेलियों में लेकर
बच्चे के शरीर पर लगाने लगती है
अपनी हथेलियों और उंगलियों से मालिश सी करती
बच्चा अब खुश है
वह किलकारी भर रहा है
माँ अपनी उँगलियाँ उसकी बांह के नीचे
और छाती में फिराती है
बच्चे को गुदगुदी लगती है
वह ज़्यादा खिलखिलाने लगता है
माँ फिर वही दोहराती है
बच्चा और ज़्यादा खिलखिलाता है
अपने नन्हें हाथों को फेंकने लगता है
पाँव फेंक कर माँ को मारने लगता है
जैसे कहा रहा हो- बस करों माँ गुदगुदी लग रही है।
माँ मुस्कराते, हँसते, बच्चे को चुमकारते
मालिश करती रहती है।
बच्चे को आनंद आ रहा है
वह अपने हाथों की उंगलियों से
माँ के हाथों को छूता, सहलाता है
जैसे कह रहा हो-
माँ रोज ऐसा किया करो
मुझे बड़ा आनंद आता है
तभी तो मैं इसके बाद
गहरी नींद सो जाता हूँ।

रविवार, 1 जुलाई 2012

नपुंसक

मैं जन्मना
न ब्राह्मण हूँ
न क्षत्रिय हूँ, न वैश्य
न ही ठाकुर हूँ।
मैं जन्मना नपुंसक हूँ
क्यूंकि
मेरे पैदा होने के बाद
नाल काटने से पहले
दाई ने पैसे धरवा लिए थे
यानि
मेरी ईमानदारी की नाल तो
सबसे पहले काट दी गयी थी।

हॅप्पी बर्थड़े

जन्मदिन पर
खूब सजावट की गयी
दोस्त पड़ोसी बुलाये गए
गुल गपाड़ा मचा
केक काटा गया
खाया कम गया,
चेहरों पर ज़्यादा लिपटाया गया
देर तक नाचते रहे सब
फिर पार्टी के बाद
बचा खाना और केक कौन खाता
बाहर फेंक दिया गया
सोने जा रहे थे सब कि
बाहर तेज़ शोर मचा
झांक कर देखा
सामने फूटपाथ के भिखारी
फेंका हुआ केक और खाना खा रहे थे
हमारी तरह चेहरे पर लगा रहे थे
लेकिन साथ ही पोंछ कर खाये भी जा रहे थे।
माजरा समझ में नहीं आया था
कि तभी ज़ोर का शोर उठा-
हॅप्पी बर्थ डे टु यू !

बुधवार, 27 जून 2012

ओ प्रधानमंत्री

ऐ प्रधानमंत्री
तुम मुस्कराते नहीं
तुम हिन्दी नहीं बोल पाते
तुम अपने एसी दफ्तर से निकल कर
कभी गाँव शहर नहीं घूमे
तुम कार से उतर कर पैदल नहीं चले
तुमने कभी किसी बनिए की दुकान से सामान नहीं खरीदा
कभी किसी सब्जी वाले से मोलतोल नहीं किया
तुमने कभी कीरोसिन के लिए लाइन नहीं लगाई
तुम कैसे प्रधानमंत्री हो !
जो अपने आम जन की भाषा नहीं जानता
वह उसके दुख दर्द किस भाषा में समझेगा
जिसने ज़मीन पर पाँव नहीं रखा
वह चटकती धूप की तपन
टूटी सड़कों में भरे गंदे पानी की छींट
बजबजाते नाले की दुर्गंध 
कैसे महसूस कर सकेगा
तुम बनिए की दुकान गए नहीं
तो महंगाई का मर्म क्या समझोगे
तुमने सब्जी वाले से मोलभाव नहीं किया
तो कैसे जानोगे कि अब शहर के आस पास
सब्जी उगाने के लिए ज़मीन ही नहीं
सारी जमीने  सेज़ (एसईज़ेड) की सेज चढ़ गईं
तुम कैसे जानोगे कि राशन की दुकान पर
अब कीरोसिन बिकता नहीं ब्लैक  होता है
ओह प्रधानमंत्री !!
शायद अपनी इसी गैर जानकारी के दुख से
तुम मुसकुराते नहीं।

सोमवार, 25 जून 2012

क्यूँ नहीं बदलती हमारी मानसिकता ?

यह छोटी खबर लखनऊ से है। लखनऊ के जिलाधिकारी के आवास के सामने मर्सिडीज स्पोर्ट्स कार  पर सवार  एक रईसजादे ने एक मोटर साइकल सवार को इसलिए गोली मार दी कि उसने कार को पास नहीं दिया था।  उस रईसजादे की गिरफ्तारी के बाद पता चला कि वह रईसज़ादा उस दिन अपने महिला मित्र के साथ एक रेस्तरां में गया था। वहाँ एक मोटर साइकल से आए लड़के ने लड़की से छेड़खानी की। जब लड़का लड़की बाहर आकर अपनी कार से जा रहे थे तो मोटर साइकल सवार युवक ने कार का पीछ किया और फिर लड़की पर भद्दे कमेंट्स किए। इस पर नाराज़ रईसजादे ने मोटर साइकल को ओवरटेक कर पहले सवार की पिटाई की फिर फायर झोंक दिया।
इस खबर से एक्शन थ्रिलर फिल्म निर्माताओं को सीन क्रिएट करने की खाद मिल सकती है। चाहे तो वह इसका उपयोग कर लें।
इस खबर का दूसरा पहलू भी है। यह आधुनिक होते और पाश्चात्य सभ्यता तेज़ी से अपनाते लखनऊ की त्रासदी भी है। अब लखनऊ के माल्स में जवान लड़के लड़कियां हाथों और कमर में हाथ डाले घूमने लगे है, होटलों और रेस्तरोन में खाने लगे हैं। लेकिन ब्रांडेड कपड़े पहने लखनऊ के युवाओं की मानसिकता अभी भी नहीं बदली है। आज भी किसी दूसरे लड़के के साथ घूमती लड़की, बशर्ते वह बहन न हो, माल है। उसे स्थानीय भाषा में छिनाल भी कहा जाता है। ऐसी लड़कियां गली गली छिनेती करती घूमती हैं। यह सस्ती होती हैं। इन्हे छेड़ा जाना, इनका दुपट्टा (अगर पहने हों तो) खींच लिया जाना किसी राह चलते शोहदे का अधिकार है।
आखिर क्यूँ नहीं बदली लखनऊ की मानसिकता? अभी भी हम पेंट शर्ट के अंदर विचारों से वैसे ही नंगे हैं, जैसे हमारे बाप दादा हुआ करते थे। इससे साफ है कि विकास नंगे आदमी को कपड़े तो पहना सकता है, पर उसके नंगे विचार नहीं बदल सकता। इसका प्रमाण वह आईपीएस अधिकारी भी है जो यह कहता है कि अगर मेरी घर की लड़की इस तरह भाग जाती तो मैं उसे ढूंढ कर जान से मार देता । ज़ाहिर है कि आईपीएस अधिकारी पढ़ा लिखा भी होता है और खुले विचारों वाला भी माना जाता है। साफ है कि आधुनिक ब्रांडेड कपड़े पहन लेने भर से मानसिक नंगई  खत्म नहीं हो जाती है। क्या इस पर कभी किसी महिला आयोग ने सोचा? नहीं,  क्यूंकी मानसिकता बदलने की तमीज़  इस आयोग  में नहीं। इससे सुर्खियां भी तो नहीं मिलती । वैसे भी जब महिला आयोग  खुद पुरुषों  द्वारा ईज़ाद भोगवादी अंग्रेज़ी शब्द सेक्सी को सही मानेगा तो ऐसा ही होगा ।

रविवार, 17 जून 2012

सावन ( saawan )

रिमझिम सावन
भीगे आँगन
तन मन मेरा। ।
ताल तलैया
ता ता थईया
गिर कर नाचे बूंद।
पात पात पर
बात बात पर
बच्चे थिरके झूम।
मोद मनाए
गीत सुनाये
तन मन मेरा ।।
खेत तर गए
डब डब भर गए
क्यों भाई साथी।
हलधर आओ
खेत निराओ
सब मिल साथी।
लहके बहके
चटके मटके
तन मन मेरा । ।
बीज उगेंगे
पौंध बनेंगे
धरा से झाँके  ।
फसल उगेगी
बरस उठेगी
कृषक की आँखें ।
घिर घिर आवन
सिहरत सावन
तन मन मेरा।






पिता (pita)


पिता के मायने
सबके लिए अलग अलग होते हैं
किसी के लिए फादर है
किसी के लिए पा या डेड़ी है
यह अपनी भाषा में पिता समझने के शब्द है
... पर
पिता को समझना है तो
पिता की भाषा समझो
जो केवल व्यक्त होती है
अपने बच्चे को देखती चमकदार आँखों से
बच्चे को उठाए हाथों के स्पर्श से
बीमार पड़ने पर रात रात जागती
आँखों के उनींदेपन से
बच्चे की परवरिश करने की तन्मयता से
बच्चे के भविष्य में अपना भविष्य खोजती बेचैनी से
जिसे आम तौर पर बच्चा
देख नहीं पाता
इसलिए
अपनी भाषा में कहता है-
मेरे फादर थे,
मेरे पा थे
मेरे डैडी थे।

शुक्रवार, 15 जून 2012

गाय



एक शहर की
वीरान और साफ सुथरी गली में
एक भूखी गाय घूम रही है
दोनों ओर घरों के बावजूद वीरानी है
क्यूंकि, घर के पुरुष ऑफिस चले गए हैं
और बच्चे स्कूल 
कामकाजी महिलायें भी निकल गयी हैं
घर में रह गए हैं
बूढ़े और निकम्मे
बूढ़े  सो गए हैं
उन्हे इससे मतलब नहीं
कि कोई गाय भूखी घूम रही है
निकम्मों के पास देने का कोई अधिकार नहीं होता
गाय को चाह है किसी बड़े से टुकड़े की
चाहे वह टुकड़ा रोटी का हो, दफ्ती का या कागज़ का
पॉलिथीन भी चल जाएगी,
अगर कुछ न मिले तो ।
मगर गाय को नहीं मालूम कि,
शहर अब साफ सुथरे रहने लगे हैं,
गलियाँ बिल्कुल गंदगी रहित हैं
कूड़ा नगर पालिका वाले उठा ले जाते हैं
बासी खाना भिखारी या घर में काम करें वाले नौकर
गाय सोच रही है-
कभी इस शहर में,
शहर की इस गंदी गली में
बेशक पीठ पर कुछ डंडे पड़ते थे
पर मुंह मारने को
इतना कुछ मिल जाता था
कि पेट भर जाता था
पीठ पर पड़े डंडों का
दर्द नहीं होता था।

रविवार, 10 जून 2012

काफिर (qaafir)

जागी हुई आँखों से जैसे कोई ख्वाब देखा है,
वीराने रेगिस्तानों में प्यासे ने आब देखा है।
बेशक नज़र आती हो जमाने को बेहयाई
मैंने उन्ही आंखो में शरमों लिहाज देखा है।
नशा ए रम चूर करता होगा तुझे जमाने
मैंने तो रम के ही अपना राम देखा है।
मजहब के नाम पर लड़ते हैं काफिर से
मैंने बुर्ज ए खुदा में अपना भगवान देखा है।

कन्या भ्रूण का विलाप (kanya bhroon ka vilaap)

वह
उसे गंदे बदबूदार कूड़े में
खून से सनी हुई ज़िंदगी पड़ी थी।
दूर खड़े ढेरो लोग
नाक से कपड़ा सटाये तमाशा देख रहे थे।
कुछ कमेंट्स कर रहे थे
खास कर औरते-
कौन थी वह निर्मोही!
जिसने बहा दिया इस प्रकार
अपनी कोख के टुकड़े को
नर्क में जाएगी वह दुष्ट !
बोल सकती अगर वह
अब निष्प्राण हो चुकी ज़िंदगी
तो शायद बोलती-
उम्र जीने से पहले मृत्यु दंड पा चुकी हूँ मैं
भोग रही हूँ, कोख से निकाल फेंक कर कूड़े का नर्क
क्या मुझे हक़ नहीं था
माँ की कोख में कुछ दिन रहने का
क्यों नहीं मंजूर थी मेरी ज़िंदगी
जीवांदायिनी माँ को !
क्या इसलिए कि मैं कन्या थी ?
या इसलिए कि मैं उसका पाप थी?
लेकिन कबसे पाप हो गया
कोई जीवन और कोई कन्या?

पत्नी (patni)

पत्नी
मैं तुझसे
प्रेम करता हूँ।
क्यूंकि,
तू भी ढाई अक्षर की है
और मेरा प्रेम भी।
2-
पत्नी
पति का पतन होने से बचाती हैं
क्यूंकि,
वह हमेशा कहती है-
पतन-नी ।
3-
ढाई अक्षर वाली पत्नी
ढाई अक्षर के बच्चों- 
पुत्र और पुत्री को
ढाई अक्षर का जन्म देती हैं।
4-
शादी के मंत्रों में
शादी करने वाले पंडित में
'अं' का उच्चार होता है
इनके जरिये
नारी और पुरुष मिलकर
एक होते हैं।
लेकिन ज्योही
इन दोनों के बीच
अहंकार का उच्चार होता है
एक से दो हो जाते हैं। 
5-
मैंने उसे
सात  फेरे लेकर
पत्नी नहीं बनाया था।
बल्कि
साथ फेरे लेकर
सात जन्मों का
साथी बनाया था।

सोमवार, 4 जून 2012

अनुभव (anubhav)

दादा जी समझाते थे
अनुभव मिलना
ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है
हम उससे कुछ सीखते हैं
ज़िन्दगी आसान हो जाती है
शायद दादाजी को
अनुभव नहीं हुआ था या उन्होंने
मिले अनुभवों से कुछ सीखा न था
एक दिन पिताजी
उन्हें छोड़ कर चले गए
दादाजी अकेले रह गए
मैंने देखे थे
हमें जाते देख रहे दादाजी के आंसू
मुझे याद आ रही है दादाजी की सीख
लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ
पिताजी से मिले इस अनुभव से
मैं क्या सीख लूं?


आकाशदीप (akashdeep)


आसमान से बरसता
काला घनघोर अन्धकार
आकाशदीप को घेर कर बोला-
ऐ मूर्ख!
इस वियावान में
किसके लिए जल रहा है
कितना है तेरा प्रकाश
कितनो को है इसकी चाह
मेरी गोद में बैठ कर निरर्थक
प्रकाश की मृग मरीचिका बना हुआ है
जा सोजा .
आकाशदीप टिमटिम मुस्कुराया-
मैं भटके हुए नाविकों को राह सुझाता हूँ
उनको उनका गंतव्य बताता हूँ .
ठठा कर हंसा अन्धकार-
बड़ा अबोध है तू,
क्या तू कभी एक कदम चला है यहाँ से
क्या तूने कभी पार किया है यह क्रोधित समुद्र
कितना कठिन है, भयानक जलचरों से भरा
इसे रात में पार करना तो कठिनतर है
जबकि तेरा प्रकाश अत्यधिक मद्धम है
स्वयं कुछ दूर तक नहीं चल सकता
नाविक को राह क्या दिखा पायेगा
बेचारा नाविक समुद्र की क्रोधित लहरों में फंस कर
डूबता है और डूबेगा ही  .
शांत बना रहा आकाशदीप-
मित्र ! मैं नाविक को केवल लक्ष्य दिखाता  हूँ
इस लक्ष्य को पाने के लिए
बिना विचलित हुए जहाज खेना 
मेरा नहीं नाविक का काम है
मित्र जो लोग अपना मार्ग जानते पहचानते है
वह पथभ्रष्ट नहीं होते, लहरों से टकराकर लुढ़कते नहीं
उनको उनका लक्ष्य देखने और पहचानने  के लिए
मेरा अस्तित्व ही पर्याप्त है।
आकाशदीप का प्रकाश धूमिल पड़ने लगा
उससे पहले अन्धकार मद्धम पड़ कर लुप्त हो गया
क्यूंकि सूर्य निकल आया था।

शुक्रवार, 1 जून 2012

पसीना

रिक्शावाला
रिक्शा खींच रहा है
सिर से पैर तक
पसीने से नहाया है वह
नहाया तो मैं भी हूँ
बुरी तरह पसीने से
क्यूंकि रिक्शावाला ने
हुड नहीं लगाया है।
मैं डांट लगाता हूँ
हुड लगा होता तो
मुझे गर्मी न लगती
पैसा खर्च कर भी
पसीना पसीना न होना पड़ता ।
रिक्शावाला कुछ नहीं बोलता
सुनता रहता है मेरी भुनभुनाहट ।
गंतव्य तक पहुँच कर
मैं दस का नोट देता हूँ
रिक्शावाला कहता है-
बाबूजी, कितनी गर्मी है
दो रुपया और दे दो।
मैं चीख उठता हूँ-
क्या ग़ज़ब है
खुला रिक्शा चला रहा है
मुझे पसीना पसीना कर दिया,
उस पर दो रुपया ज़्यादा मांग रहा है।
मैं आगे बढ़ जाता हूँ
रिक्शावाला की बुदबुदाहट
कानों में पड़ती है-
क्या मेरे पसीने का मोल दो रुपया भी ज़्यादा नहीं।

मंगलवार, 29 मई 2012

शुभ रात्री

जब सोने के लिए जाओ
तब
किसी को शुभरात्री क्यूँ बोलना
पता नहीं कितनों ने कुछ खाया भी हो
कितनों के पास पत्थर का बिछोना हो
कितनों को सुस्त पड़ी हवा में
ठंडक अनुभव करनी पड़ती हो
जब भूखे पेट भजन नहीं हो सकता
पत्थर पर जीवन पैदा नहीं हो सकता
सुस्त हवा में दम घुटता हो, तो
किसी को नींद कैसे आ सकती है? 
तब आखिरी आदमी की रात्री
कैसे शुभ हो सकती है?
क्या अच्छा नहीं होगा
अगर
सोने से पहले
कुछ देर नींद को दूर भगाते हुए
कल कुछ लोगों के लिए
दो रोटियों, एक अदद बिछोने और खजूर के पंखे का
प्रबंध करने की सोचते हुए सोया जाए।

लोग



आप चलिये,
अपनी राह पर आगे बढ़िए
देखिये आपके पीछे आने वाले
और आपको पुकारने वाले
ढेरों लोग दिख जाएंगे।
लेकिन भरोसा रखिए
इनमे से ज्यादातर
आपके अनुगामी नहीं
वह आपको
इसलिए आवाज़ दे रहे हैं
कि आप पलटे
लड़खड़ा कर गिरे
और आगे नहीं बढ़ पाएँ

सोमवार, 28 मई 2012

रिश्ते

मैं पैदा हुआ
माँ को बेटा मिला
मुझे माँ मिली।
फिर माँ को बेटी हुई
वह पत्नी और दो बच्चों की माँ में बंटी  
पर उसे दो बच्चे मिले
मुझे एक बहन मिली ।
फिर मैं पढ़ने गया
मुझे दोस्त और अध्यापक मिले
मेरी शादी हुई
मुझे पत्नी मिली
उसे पति मिला
हमारे बच्चे हुए
वह माँ, बेटी, बहू और पत्नी बनी
मैं पिता, बेटा, दामाद और पति बना
हमारे नए रिश्ते बने
हम खुद बंटे नहीं
हमने रिश्ते बांटे और रिश्ते के दुख दर्द बांटे
लेकिन यह बंटना कहाँ हुआ
यह बनाना हुआ, बांटना हुआ
रिश्तों और उनके दुख दर्द को।

शनिवार, 19 मई 2012

घड़ी

रुक जाओ !
कहा समय ने 
घड़ी की सेकंड, मिनट और घंटे की सुइयां रुक गयीं 
समय ने 
सेकंड की सुई को डपटा-
कितना तेज़ चलती हो 
क्या सबसे आगे निकल जाना चाहती हो?
कम से कम मिनट के साथ तो चलो 
फिर मिनट को डपटा-
तुम घंटे से लम्बी हो 
इसका मतलब यह नहीं कि 
उसे परास्त करने की कोशिश करो 
तुम्हारी प्रतिस्पर्द्धा सेकंड से नहीं 
फिर घंटे से कहा-
ओह, सेकंड एक चक्कर लगा चुकी है 
तुम साठवां भाग ही हिले हो 
तुम मिनट के साठ डगों को 
अपने एक डग  से नापना चाहते हो 
इतनी सुस्ती भी ठीक नहीं 
थोडा तेज़ चलो .
घंटा शांत ही रहा 
बोला- हे समय 
हम सब अपना काम कर रहे हैं 
सेकंड युवा है, उसमे ऊर्जा है 
वह एक मिनट में दुनिया नाप लेना चाहती है 
क्या दुनिया नापी  जा सकती है ?
मिनट अनुभवी है 
जानता  है कि फूँक फूँक कर भरा डग 
मुझे सहारा देता है 
और मैं 
हर एक सेकंड 
हर एक मिनट के साथ मिल कर 
केवल घंटे नहीं बनाता 
मैं चौबीस घंटे में एक दिन बनाता हूँ 
हर दिन कुछ नया होता है, देश का इतिहास बनता है 
तभी तो तुम समय कहलाते हो,
काल और अतीत बनाते हो .
अपनी नादानी पर शर्मिंदा समय आगे बढ़ लिया 
सेकंड खिलखिलाते हुए डग  भरने लगी 
मिनट फूँक फूँक कर कदम रखने लगा 
और घंटा इतिहास बनाने में जुट गया है।

पंछी

सुबह होने को है 
एक पंछी जागता है 
उसके जगे होने का एहसास कराती  है 
उसके पंखों की फड़फड़ाहट 
जैसे झटक देना चाहता हो 
कल की थकान और सुस्ती .
वह आँख खोलता है 
घोसले से झाँक कर कुछ देखना चाहता है 
धुंधलके के बीच से 
फिर दोनों पंजों के बल 
खड़ा हो जाता है पेड़ की डाल पर 
उसे उड़ना ही होगा 
जाना होगा दूर तक 
कुछ खाने की खोज में 
बरसात से घर बचाने को 
तिनकों की तलाश करनी ही होगी 
उड़ चलता है वह 
जोर की आवाज़ करता 
ताकि और साथी भी जग जाएँ 
वह भी तलाश कर लें अपने भविष्य की 
यह सुन कर 
अभी तक बादलों की ओट में 
आलस करने की कोशिश करता सूरज 
बाहर निकल आता है 
जैसे सलाम कर रहा हो 
पंछी की भविष्य की कोशिशों को .
और तभी 
खिल उठता है आकाश पर 
इन्द्रधनुष ।

रविवार, 13 मई 2012

खेल

रोशनदान के नीचे बना घोंसला 
छोटी चिड़िया झांकती, इधर उधर देखती
उड़ कर कहीं जाती, लौट कर आती 
चोच में दाना या तिनका लिए 
रख कर फिर उड़ जाती या थोडा फुदकती इधर उधर 
नन्हा देख रहा है ध्यान से 
नन्ही चिड़िया के करतब और खुश हो रहा है 
रोशनदान की झिरी से 
धूप  का एक छोटा टुकड़ा झांकता है,
फिर बैठ जाता है घोंसले पर 
चिड़िया चीं चीं करने लगती है 
मानो कह रही हो हटो मेरे घोंसले से 
टुकड़ा नहीं मानता तो समझौता कर लेती 
खेलने लगती है उससे .
नन्हा देख रहा है सब 
वह भी खेलना चाहता है चिड़िया और धूप  के संग 
इसलिए बाजरे के थोड़े दाने लाकर 
चिड़िया को दिखाने लगता है-
आ आ कह नन्हे हाथों से बुलाने लगता है 
सशंकित चिड़िया कभी पास उड़ती, फिर दूर चली जाती 
यह कौतुक देख 
धूप का टुकड़ा भी नीचे सरक आता है, 
फर्श पर नन्हे के पास 
नन्हा धूप  को पकड़ने की असफल कोशिश करता है 
नन्हे को धूप के साथ खेलते देख 
चिड़िया नीचे उतर आती है 
बाजरे को चोंच से बटोर कर गले में धकेलती जाती है 
फिर उड़ जाती है अपने घोसले पर
फिर संतुष्ट चिड़िया 
झांक कर नीचे देखने लगती है 
नन्हे की धूप के साथ खिल खिल .
मिला लेती हैं साथ उनके
अपनी चीं चीं .

शुक्रवार, 11 मई 2012

बेटी

जब बेटी
पिता के काम से वापस आने पर
उसकी गोद में बैठ जाती है
तो बेटी जैसी लगती है।
जब वह
अपनी नन्ही उंगलियों से हाथ सहलाती है
तब स्नेहमयी माँ जैसी लगती है।
2-
क्यूँ फिक्र होती है
कि बेटी जल्दी बड़ी हो गयी
यह  क्यूँ नहीं सोचते
कि कितनी जल्दी सहारा बन गयी।
3-
बेटी
कविता है
जिसे पढ़ा भी जा सकता है
और गुनगुनाया भी जा सकता है।
4-
खुद को बेटी समझने वाली
जब माँ बन जाती है
तब बेटी को
माँ की तरह क्यूँ देखती है
बेटी की तरह क्यूँ नहीं देखती
जो माँ बनना चाहती थी।
5-
भ्रूण में मारी जा रही
बेटी ने कहा-
तुम कैसी माँ हो
तुमने मुझे
अपना बचपन समझने के बजाय
भ्रूण समझ लिया।

गुरुवार, 10 मई 2012

माँ की चिंता

एक माँ 
दरवाज़े पर बैठी बाट जोह रही है 
अपने बेटे की .
ऑफिस से अभी तक वापस नहीं आया है 
क्यूँ देर हो गयी ?
क्या बात हो गयी ?
फ़ोन भी नहीं किया ?
दसियों अनर्थ 
मस्तिष्क में विचर जाते 
चिंता की लकीरें ज्यादा गहरी हो जाती 
माँ के माथे पर .
माँ बहु से पूछती-
लल्ला क्यूँ नहीं आया अभी तक?
सास बहु के टीवी सीरियल देखती बहु 
व्यंग्य करती-
माजी अब वह आपके लल्ला नहीं रहे 
बड़े हो गए हैं,  
ऑफिस में नौकरी करते है,
ज़िम्मेदार है, फंस गए होंगे किसी काम से ।
बहु टीवी का वोल्यूम कुछ ज्यादा तेज़ कर देती 
ताकि कानों तक न पहुंचे माँ की चिंता .
माँ मन मसोस कर दरवाज़े पर आ बैठती
बहु अभी नादान है 
वह क्या जाने माँ की चिंता 
जब बच्चे होंगे तब मालूम पड़ेगा .
थोड़ी देर बाद लल्ला पहुंचता है घर 
माँ पूछती है-
बेटा आज बहुत देर हो गयी ?
लल्ला को माँ की चिंता तक से सरोकार नहीं 
वह सीधा घुस जाता है अपने कमरे में 
बहु भड़ाक से दरवाज़ा बंद कर लेती है 
माँ की चिंता बाहर रह जाती हैं 
माँ के साथ।

शनिवार, 5 मई 2012

गंगा- हाइकु

सूखती गंगा 
पाप बढ़ रहे हैं 
धोता कौन है .

2-
गंगा निकली 
शिव की जटाओं से 
भटक गयी।

3-
गंगा नदी है 
माँ का नाम गंगा 
दोनों उपेक्षित .

4-
गंगा का पानी 
बिसलेरी बोतल 
बेचते हम .

5-
बहती गंगा 
कूदी गंगा  नदी में 
दोनों ही ख़त्म .

शुक्रवार, 4 मई 2012

बेचारी भिखारन

मैं बहुत दयालु हूँ 
मेरी दयाद्रता के बारे में जानना हो तो 
मेरे मोहल्लें में आने वाली 
एक भिखारन से पूछो 
वह बताएगी कि मैं कितना दयालु हूँ 
मैं उसे अपने घर के दरवाज़े पर बुलाता हूँ
निकट बिठालता  हूँ  
बेशक उस समय मेरी पत्नी घर नहीं होती 
इन औरतों का क्या कहिये 
बेहद शक्की होती हैं 
भिखारिन को ही क्या कह दें, क्या न कह दें 
मैं भिखारिन को कुछ खाने को देता हूँ 
पानी पिलाता हूँ 
कुछ न कुछ ले जाने के लिए भी देता हूँ 
कभी नकदी भी 
मैं उसका पैनी दृष्टि से निरीक्षण करता हूँ 
मुझे उसकी हालत देखी नहीं जाती 
पूरे वस्त्र भी नहीं है उसके पास 
जब वह ज़मीन पर रखा खाना 
झुक कर उठा रही होती है 
तब उसकी छातिया साफ़ नज़र आती हैं 
मैं सोचता हूँ 
कितनी पुष्ट छातियाँ  हैं 
इन पर तो किसी की भी बुरी नज़र पड़ सकती है 
मैं उससे कहता भी हूँ-
बदन ढाक कर रखा करो 
ज़माना सही नहीं है 
वह सहम जाती, खुद में ही  सिमट जाती 
अपनी छातियों को छुपाने के लिए 
मैं खुश होता 
कोई तो है उस गरीब भिखारन का 
जो उसकी लाज के बारे में सोचता है
मैं उसकी पीठ पर हाथ रख कर हलके से सहलाता हूँ
वह सहमी सी जाती है
मैं जानता  हूँ  कि  फिर भी वह कल आएगी 
उसे  इस प्रकार सांत्वना देते हुए मुझे हार्दिक संतोष होता है  
क्यूँ, दयालू हूँ न मैं !!!

मंगलवार, 1 मई 2012

गरीब

अरे गरीब आदमी !
दूर ऊंचाई से आती संगीत की धुनों को सुनो
यह उन अमीर लोगों के घरों से आ रही हैं
जो तुम्हें
अपने नीचे देख कर भी शर्म खाते हैं
मजबूरन ही सही, फिर भी तुम्हें रहने देते हैं
तुम एक बदनुमा दाग हो
उनकी ऐश्वर्यशाली इमारत के लिए
तुम्हारे भूखे  बच्चों का रूदन
उन्हे ऊंची आवाज़ में
संगीत बजाने को विवश करता है ।
इसके बावजूद,
वह कुछ बासी टुकड़े नीचे फेंक देते हैं
ताकि
तुम और तुम्हारे बच्चे उठा कर खा लें
भूखे न रहे और बिलख कर उनका संगीत बेसुरा न करे।
तुम इस संगीत को सुनो
फेंके भोजन को चखो
यह कर्णप्रिय संगीत
महादेव की देन है
जिनकी तुम सपरिवार एक दिन व्रत रख कर पूजा करते हो
ताकि, इस एक दिन तुम्हारे बच्चे रोटी न मांगे।
तुम इसे सुनते भी हो
तुम इसे सुनते हुए
अपना दुख भी तब  भूल जाते हो
जब तुम्हारे बच्चे
तेज़ धुन पर, बेतरतीब नाचने लगते हैं
खुश हो कर शोर मचाने लगाते हैं
तभी यकायक
संगीत रुक जाता है
एक कर्कश आवाज़ गूँजती है-
साले नंगे-भूखे गाना भी नहीं सुनने देते
न खुद सुख से रहते हैं, न हमे रहने देते हैं।
ऐ गरीब !
यही तो कमी है तुम लोगों में
तुम किसी का भी
स्वादिष्ट भोजन बेस्वाद कर सकते हो
संगीत के राग बेसुरे कर सकते हो !!!

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

ऐ पिता !!!

ऐ पिता !
तेरी बाँहें इतनी मज़बूत क्यों हैं
कि जब कोई बच्चा
हवा में उछाला जाता है
तो वह खिलखिलाता हुआ
उन्ही बाँहों में वापस आना चाहता है.
तेरी भुजाएं इतनी आरामदेह क्यों होती हैं
कि कोई बच्चा
इनमे झूलता हुआ सो जाना चाहता है
ऐ पिता !!
तेरी उंगलियाँ पकड़ कर
वह लड़खड़ाता हुआ चलना सीखता है
तेरी उंगलियाँ पकड़ कर बड़ा होना चाहता है
इतना बड़ा कि तेरे कंधे तक पहुँच सके.
मगर ऐ पिता !!!
इस बच्चे की बाँहें इतनी कमज़ोर क्यों होती हैं
भुजाएं इतनी कष्टप्रद क्यों होती हैं
कि कोई पिता इनमें समां नहीं पाता, आराम नहीं पा सकता
क्यों बेटे की उंगली
यह बताने के लिए नहीं उठ पातीं
कि वह मेरे पिता हैं.
क्यों ! क्यों !! क्यों !!!
ऐ पिता,
यह बात तो बेटा
उस समय भी समझ नहीं पाता
जब वह अपने बेटे को
हवा में उछाल रहा होता है
भुजाओं में समेटे सुला रहा होता है
उंगलिया पकड़ कर चलना सिखा रहा होता है.
ऐ पिता !
ऐसा क्यों होता है यह पिता ???

दादी

''माँ तुम तो राजू के लिए कुछ ज्यादा प्रोटेक्टिव हो. वह अब इतना बच्चा भी नहीं रहा कि हर समय देखना पड़े. बच्चा है. खेलेगा तो गिरेगा भी, चोट भी लगेगी. तुम इतना फ़िक्र क्यों करती हो?'' पिताजी दादी से कह रहे थे.
मुझे बहुत अच्छा लगा. दादी हर समय टोकती रहती है. यह न करो, वह न करो. तो करो क्या. साथ के बच्चे मज़ाक उड़ाते हैं 'क्या हाल हैं यह न करो बच्चे के'. मैं खिसिया जाता. दादी से मना करता पर  वह कहाँ सुनने वाली थीं.
दादी मुझे फूटी आँख न सुहाती. सच कहूँ मुझे उनका झुर्रियों भरा चेहरा बिलकुल अच्छा नहीं लगता. वास्तविकता तो यह थी कि मैं खुद के बुड्ढे हो जाने के ख्याल से घबरा जाता था. शीशे में चेहरा देखता, झुर्रियों की कल्पना करता तो सिहर उठता. क्यों जीते हैं लोग इतना कि चेहरे पर समय की मार नज़र आने लगती है.
दादी का चेहरा छोटा था. झुर्रियां होने के कारण मुझे बड़ा अजीब सा लगता. जैसे किसी अख़बार के कागज़ को बुरी तरह से मसल कर फेंक दिया गया हो.
इस चिढ का एक बड़ा कारण यह भी था कि दादी हर दम मेरे पीछे लगीं रहती. वैसे वह मेरी पैदायश से मेरा ख्याल रखती रही हैं. माँ नौकरी करती थीं. मैं पैदा हुआ तो पिता ने अपनी माँ यानि मेरी दादी को अपने पास  बुला लिया. पिताजी के पिताजी यानि मेरे दादाजी काफी पहले गुज़र गए थे. माँ गाँव में घर में अकेले रहती थी. वह कहती रहती कि बेटा अपने पास कुछ दिन बुला ले, यहाँ अकेले मन नहीं लगता. तेरा और बहु का चेहरा देख कर जी लूंगी. पर पिताजी ने कभी नहीं बुलाया. आज- कल और कल-आज कह कर टालते रहे. माँ भी कहाँ चाहती थीं कि उनकी सास साथ रहे. वैसे माँ पिताजी जब चाहते घर आते थे. पिक्चर देखते, बाहर खाते. खूब खरीदारी करते. माँ के आने पर यह सब बंद हो जाता. बूढ़े लोग टोका टाकी बहुत करते हैं, यह माँ मुझसे काफी पहले से जानती थीं. इसके बावजूद उन्होंने पता नहीं क्यूँ दादी को घर आने दिया. खुद उन्होंने ही पिताजी से कहा कि माँ आ जायेंगी तो बहुत मदद हो जाएगी.
ऐसा हुआ भी. दादी आयी, माँ पहले की तरह छड़ी जैसी हो गयीं. उनका काम मुझे दूध पिलाने तक सीमित था. उसके बाद सब दादी करतीं. मुझे नहलाना धुलाना, टट्टी साफ़ करना, कपडे बदलना, मुझे बाँहों में डुलाते हुए सुलाना, सब कुछ दादी करतीं. माँ इत्मीनान से हो गयी थीं. केवल ऑफिस जाती और घर आकर खाना खा कर इधर उधर के काम में जुट जाती. वह बेहद खुश थी दादी के आने से. क्यूंकि उनके आने से माँ की जो आज़ादी कथित तौर पर छिन सकती थी, वह नहीं छिनी थी. दादी मुझ में ही खो गयीं थीं. कहते हैं न कि मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है. दादी को अपने बेटे का बेटा ज्यादा प्यारा था. माँ का तो जैसा सारा भार कम हो गया था.
लेकिन मेरी मुसीबत थी. जब तक मैं चल फिर नहीं सकता था, तब तक दादी की उंगलिया या बढे हाथ भले लगे. लेकिन अब मैं चल फिर सकता था. दौड़ भी सकता था. मुझे किसी सहारे की ज़रुरत नहीं थी. यह तो इंसानी फितरत है कि जब तक डगमगाता है, सहारा ढूढता है. जैसे ही संतुलन बना लेता है, सहारे की तरफ से मुंह फेर लेता है. मैं भी तो इंसान की औलाद था.
हाँ तो बात दादी की हो रही थी. दादी को गठिया था. बैठी बैठी कराहती रहती थीं. सब उनकी कराह को सुन कर अनसुना कर देते. मैं भी. कभी दादी से तफरी करने का मन होता तो मैं कहता- क्या पैर दबा दूं. दादी ढेरों आशीर्वाद देते हुए कहती- तू खूब जिए. अपने बाप से बड़ा आदमी बने. मुझे यह आशीर्वाद समझ नहीं आता. पिता से बड़ा बनने में कौन सा फायदा है. पिताजी पाल ही रहे हैं. मैं उनसे बड़ा हो जाऊंगा तो मुझे उन्हें पालना पड़ेगा. दादी को भी पालना पड़ेगा. कौन उठाएगा इतना भार. यह सोच कर मैं दादी के पास आता. दादी टांगे आगे कर देती. मैं उनके पाँव में चढ़ जाता. पहले धीरे धीरे दबाता. फिर, यकायक जोर से दबा देता. दादी दर्द से बिलबिला जातीं. मैंने देखा कि कभी उनकी आँखों में आंसू भी छलक आते. पर वह जोर से नहीं चिल्लाती. मैं सोचता, पिताजी से डरती हैं कि डांटेंगे कि बेकार बैठी रहती हो. पैर में दर्द होता है तो चिल्लाती हो. मैं इंसान की औलाद इतना भी नहीं समझ पाता था कि वह मुझे डांट पड़ने के डर से नहीं चिल्लाती थीं. मैं उन्हें दर्द पहुंचा कर हँसता हुआ भाग जाता. लेकिन अगले दिन या थोड़ी देर बाद दादी फिर कराहते हुए मिलतीं.
दादी की सबसे ख़राब आदत यह थी कि जैसे ही मैं खेलने के लिए घर से बाहर निकलता, वह धीरे धीरे चलते हुए, बाहर निकल आतीं और चबूतरे पर बैठ जातीं. लगातार मुझे देखती रहतीं. मैं एक पल उनकी आँखों से ओझल हो जाता तो चिल्लाने लगतीं- अरे राजू, तू कहाँ गया. साथ के बच्चे चिल्लाने लगते- अरे राजू, तू कहाँ चला गया. मैं शर्मिंदा होता हुआ दादी के सामने आ जाता. दादी मेरे सर पर हाथ फेरतीं. मैं सर झटक कर फिर खेलने में लग जाता. मैं दौड़ता तो उसके साथ ही दादी की जुबां भी दौड़ने लगती- धीरे बेटा धीरे. गिर जायेगा. चोट लग जायेगी. घुटने रगड़ खा गए तो बहुत दर्द होगा. धीरे खेल धीरे. ऐ किसना बेटा, धीरे खेलो. राजू गिर जायेगा. किसना दादी के सामने कुछ न बोलता. पर अन्य बच्चों के  सामने कहता- भैया धीरे खेलो राजू गिर जायेगा. फिर व्यंग्य मारता हुआ कहता- हम लोग तो अपने माँ बाप की औलाद हैं ही नहीं. मैं कुछ ज्यादा खिसिया जाता.
मेरे खेलने में दादी के इस ज्यादा हस्तक्षेप ने मुझे दादी का छोटा मोटा दुश्मन बना दिया. अब मैं उन्हें सताने की जुगत में रहने लगा. बच्चे दादी के पीछे जाकर उनके धोती खींच देते. कभी उनकी लकड़ी उठा कर फेंक देते. उन्हें मिल कर चिढाते- दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ. पोपला मुंह बंद करो न, अब न सताओ.
एक दिन माँ ने मुझे दादी को परेशान करने के लिए बच्चों को उकसाते हुए देख लिया. उन्होंने मेरे कान पकड़ कर एक चपत लगायी- अब ऐसा किया तो तेरे पापा से शिकायत कर मार लगवाऊंगी.
मुझे कतई विश्वास नहीं था कि कोई माँ किसी बुड्ढी के लिए अपने बेटे को मार लगवायेगी. वह भी उस औरत के लिए, जिसे उन्होंने अपनी ज्यादा ज़िन्दगी पसंद ही नहीं किया, पास नहीं फटकने दिया.
इसका नतीजा यह हुआ कि मैं दादी का कुछ ज्यादा बड़ा दुश्मन बन गया. बच्चों के लिए जब कोई दुश्मन बन जाता है, जो वह उससे डरने लगते हैं. लेकिन यदि वह घर का हो दादी जैसा, तो उसका इन्तेकाम बढ़ जाता हैं. मैं भी हर समय दादी से इन्तेकाम लेने की फिक्र में रहने लगा.
एक दिन मैंने साथ के बच्चों को सिखाया कि मुझे दादी के कारण बहुत डांट पड़ती है. उनसे बदला लेना है. तय यह पाया गया कि जब दादी खडी हों तो उनको धक्का दे  दिया जाये. उन्हें चोट लगेगी तो वह हमारा पीछा नहीं कर पाएंगी, घर में ही दुबकी रहेंगी. मैंने दोस्तों से कहा कि मैं दादी की और दादी दादी कहता हुआ भागूंगा. जैसे ही मैं उनके पास पहुंचूंगा, तुम लोग मुझे उन पर धक्का दे देना और भाग जाना. सभी तैयार हो गए.
दादी से बदला लेने का सुनहरा दिन आज ही आ गया. दादी की कमर में दर्द कुछ ज्यादा था. हवा भी ठंडी चल रही थी. इसलिए वह अन्दर जाने के लिए खडी हुई .  मैंने बच्चों को इशारा किया. बच्चों ने हां  में सर हिला  दिया. मैं दादी दादी कहता दादी की तरफ भागा.  बच्चे मेरे पीछे थे. जैसे ही मैं पास पहुंचा, मुझे लगा कि अब वह मुझे पीछे से धक्का मारेंगे, मैं दादी को धकेल दूंगा. तभी दादी ने पीछे पलट कर देखा. लेकिन यह क्या बच्चे भाग गए थे. लेकिन मैं दादी को धक्का देने के ख्याल में इतना खोया  हुआ  था कि खुद को दादी पर गिरा  देने में नहीं हिचकिचाया. दादी एक चीख के साथ जमीन पर गिर पड़ी. तभी मेरी निगाह घर के दरवाज़े पर पड़ी. माँ खडी हुई  मुझे घूर रही थीं. डर के कारण मैं रोता हुआ भाग निकला.
शाम को अन्धेरा होने पर घर पहुंचा. पिताजी आ गए थे. घर का माहौल काफी गंभीर था. पिताजी शायद तभी आये थे. माँ उनसे मेरी शिकायत कर रही थीं. पिताजी ने मुझे घूर कर देखा. वह चीखे- राजू यहाँ आओ.
मैं कांपता हुआ उनके सामने जा खड़ा हुआ. पिताजी क्रोध से काँप रहे थे. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा. उनकी हथेली मेरे गालों पर पड़ने के लिए हवा में थी कि दादी आ गयीं. वह कराहते हुए बोली- रुक जा बेटा. उसे ना मार. इसमें उसकी इतनी गलती नहीं. वह बड़ा हो गया है. मैं बेकार ही उसको हर बात पर टोकती रहती थी. साथी बच्चे चिढाते थे. इसलिए उसने ऐसा किया. बच्चा है. बड़ा हो कर ही समझेगा कि उसने क्या गलती की थी.
दादी कराहते हुए जमीन पर बैठ गयीं थीं.
माँ और पिताजी दादी की और दौड़ पड़े. दोनों ने उठा कर कमरे में चारपायी पर बैठाया. दादी बेहाल थी. मुझे पहली बार बेहद दुःख हुआ. अगर दादी मना नहीं करती तो शायद मुझे बहुत मार पड़ती. लेकिन दादी ही तो कह रही थीं कि मैं बड़ा हो गया हूँ, साथी बच्चों के चिढाने का मुझे बुरा लगता है. मगर क्या मैं इतना बड़ा  नहीं हुआ हूँ कि समझ सकूं कि दादी जो मेरी इतनी फ़िक्र करती हैं तो मुझे प्यार करने के कारण करती हैं. उन्हें फिक्र है. वह  मेरी सुरक्षा के ख्याल से हर समय साथ रहती हैं. जबकि मैं उन्हें अपना दुश्मन समझता रहता हूँ.
मेरी आँखों में अनायास आसूं आ गए. मैं दादी से रोता  हुआ लिपट गया. मुझे रोता  देख कर दादी मेरे आंसू पोछने लगीं. वह बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेर रही थीं.
लेकिन मैं एक बात नहीं समझ पाया हूँ कि मेरे आंसू पोंछ रही दादी अपने आंसू क्यों नहीं रोक पा रही थीं.

रविवार, 8 अप्रैल 2012

प्रार्थना

बेटे ने कहा-
माँ ! तू मरना मत
मैं तेरे बिना कैसे जिऊँगा.
माँ बीमार थी
डॉक्टर ने जवाब दे दिया था.
माँ की जीने की जिजीविषा थी
या बेटे का विलाप कि
माँ ठीक हो गयी.
माँ ने कहा-
बेटे की प्रार्थना मुझे लग गयी
मैं बच गयी.
माँ बेटे का बहुत ख्याल रखती
चाहती बेटा ज़ल्दी से बड़ा हो जाये,
अपने पैरों पर खड़ा हो जाये
ताकि उसे माँ के सहारे की ज़रुरत न पड़े.
बेटा नौकरी करने लगा
माँ ने शादी कर दी
सुन्दर बहु लायी
सुशील भी लग रही थी
माँ को माँ और खुद को उसकी बेटी मानती
थोड़े दिन ऐसे ही गुज़रे
फिर बेटी बहु बन गयी
यहाँ तक कि बेटा भी बहु का पति बन गया
एक दिन माँ और बहु साथ बीमार पड़ीं
बेटे को लगा माँ बीमार है
पर पत्नी बहुत ज्यादा बीमार है
माँ ने कहा भी-
बेटा बहुत तकलीफ हो रही है
लगता है बचूंगी नहीं
बेटे ने कहा- नहीं माँ! ऐसा मत कहो.
तुम ठीक हो,
मैं अभी तुम्हारी बहु को दिखला कर आता हूँ
फिर तुम्हे अस्पताल ले जाता हूँ.
बेटा पत्नी को डॉक्टर के पास लेकर चला गया
माँ समझ गयी
बेटा अब बड़ा हो गया है
माँ के बिना रह सकता है.
अब माँ को बेटे की प्रार्थना की ज़रुरत नहीं थी.

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

धूल

धूल पर हम
चाहे जितनी नाक भौंह सिकोड़ें
यह अजर, अमर और सर्वत्र है
इसका अपना महत्व है
घमंडी धूल में मिल जाता है
शरीर को धूल में ही मिल जाना है
यह ज़मीन से उठती है
हवा के साथ उड़ कर
आसमान छू लेती है
हमारे शरीर पर
पैर से सर तक लिपट जाती है
धूल का घमंड उसे
आसमान से ज़मीन पर बिखेर देता है
सर- माथे पर जमी धूल को हम
सर माथे नहीं लगाते
पैर की धूल के साथ
नाली में बहा देते हैं.

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

मैं लड़की

भाई
मैं एक लड़की हूँ
मैं आपको भाई नहीं कहना चाहती
पर मुझे कहना पड़ेगा
अन्यथा
मेरे सम्बोधन के अनर्थ निकाले जाएंगे
आप किसी औरत को
किसी नीयत, किसी मक़सद से भाभी कहो
कोई अनर्थ नहीं खोजेगा
लेकिन मेरा किसी को जीजा कहना
कितने ही अनर्थ को जन्म देगा
क्यूंकि
लड़की यानि औरत 
हर मायने में ग़रीब होती है।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

बच्चे की सुबह

बच्चा
सुबह ज़ल्दी जाग जाता है
वह डर जाता है
बाहर से अन्दर झाँक रहा है अँधेरा
बच्चा कस कर ऑंखें भींच लेता है
अपनी मुंदी पलकों के अँधेरे से
बाहर के अँधेरे को
झुठलाने की कोशिश करता है.
ऐसे ही लेटा रहता है देर तक
थोड़ी देर में
सुबह का उजाला
खिडकियों की झिरी से
दरवाज़े की सरांध से
अन्दर झांकता है
फिर बच्चे को देख कर
अन्दर पसर जाता है, उसके चारों ओर
बाहर चिड़ियाँ
दाना चुग रही हैं
एक दूसरे को बुला रही हैं चूँ चूँ पुकार करके
उनका कलरव, पंखों का फड़फड़ाना
बच्चे के कानों में दस्तक देता है
बच्चा आँख खोल देता है,
आ हा ! सुबह हो गयी !
वह हाथ पाँव फेंकता हुआ
मानो माँ को जगा रहा है-
उठो माँ, सुबह हो गयी।

रविवार, 1 अप्रैल 2012

मालती

मेरे हाथों में मालती का ख़त है.
उसने लिखा है- तुम हमेशा मेरे दिल में ही थे राजेश!
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हम दोनों कॉलेज के दिनों में मिले थे. को-एजुकेशन वाला कॉलेज था. मालती मेरे ही क्लास में ही पढ़ती थी. बेहद खूबसूरत थी और उतनी ही चंचल भी. अपनी सहेलियों के साथ दिन भर हंसी मज़ाक करना उसका शगल था. लेकिन, थी वह पढ़ने में तेज़. क्लास टेस्ट में भी वह हम लड़कों से अव्वल आती। .
वह मेरी और कब आकृष्ट हुई पता नहीं. पर मैं पहले ही दिन से उस पर फ़िदा हो गया था।  यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि कॉलेज का हर लड़का उस पर फ़िदा था. कुछ कम फ़िदा थे तो कुछ ज्यादा और कुछ तो बहुत ज्यादा. जान देने वाले भी थे एक दो. ऐसे विरल जीवों में से एक मैं भी था. लेकिन वक़्त आने पर यह स्पीसीज जान देने में पीछे हट जाती है.
हाँ तो मैं बता रहा था कि न जाने कब मालती मेरी और आकृष्ट हो गयी. मैं सातवें आसमान पर था. लड़कों की ईर्ष्या का केंद्र था. उनके विचार से लंगूर के बगल हूर आ गयी थी. लड़कियाँ भी चिढ़ती थी उससे. अरे वह तो बड़ी रिजर्व रहती थी. किसी को लिफ्ट ही नहीं मारती थी. पता नहीं यह क्या सूझी उसे. ऎसी लड़कियाँ बनती बहुत हैं. हम दोनों के बारे में ऎसी ही न जाने कितनी बाते होती रहती थीं. मैं सोचता रहता था को-एजुकेशन के कॉलेज में जितने स्कैंडल बनते हैं, अफवाहें उड़ती हैं. इतनी अफवाहें और स्कैंडल तो बॉलीवुड में नहीं होते.
जैसा कि  लैला मजनूँ, हीर राँझा, शीरीं फरहाद करते रहे होंगे, हम दोनों भी साथ जीने मरने की कसम खाते. वह पूछती तुम मुझे कितना प्यार करते हो? मैं फिल्मी संवाद बघारता- मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूँ. तुम न मिली तो मैं मर ही जाऊंगा. मैंने अपने जीवन में तुमसे ही प्यार किया है और यह सच्चा है.
मैं उसका दिल टटोलना चाहता- तुम मुझे कितना प्यार करती हो? वह कहती- राजेश, शायद तुम विश्वास नहीं करोगे, तुम पहली नज़र में मुझे अच्छे लगाने लगे थे. पर मैं इतनी माडर्न नहीं हूँ कि तुम्हे तुरंत आइ लव यू बोल देती. मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ. हमारी कुछ सीमायें और संकोच होते हैं. लेकिन राजेश तुम हमेशा से मेरे दिल में थे, दिल में हो और रहोगे.
पता नहीं यह कैसे हुआ. हमारे प्यार का भेद हमारे घर वालों को मालूम पड़ गया. अब तक प्यार में खोये रहने वाले हम लोगों को भी अब जाकर मालूम हुआ था कि हम लोग भिन्न जातियों के थे. मैं ठाकुर था. वह ब्राह्मण जाति की. हमें इस से फर्क नहीं पड़ता था कि हमारी जाति क्या थी. क्यूंकि हम अपने प्यार को ही अपनी जाति समझते थे. पर समाज और हमारे परिवार की नज़रों में हमारे प्यार का कोई महत्त्व नहीं था. हम दोनों के ही घरों में किसी ने शादी से पहले प्यार नहीं किया था. सबकी तयशुदा शादी हुई थी. बड़े बुजुर्ग कहते थे- शादी के बाद प्यार अपने आप हो जाता है. अगर ऐसा नहीं होता तो बच्चे कैसे होते।
हम दोनों के घरों में खूब गुल  गपाड़ा मचा. फरमान सुना दिया गया कि यह शादी नहीं हो सकती. मालती के घरवालों ने तो उसके लिए सजातीय लडके की खोज भी शुरू कर दी.
एक दिन वह आयी. उसकी आँखे सूजी हुई थीं. शायद रात भर रोई थी. मुझे देखते ही मुझसे लिपट कर रोने लगी. मैं सहम गया. सभी हमारी तरफ देख रहे थे. मैं इतना हिम्मती नहीं था कि कोई लड़की सरेआम मुझसे लिपट जाए और मैं सहज बना रहूँ. मैंने लगभग ज़बरन उसको खुद से दूर किया. मैं इतना सहम गया था कि उसकी आँखों के आंसूं पोछने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाया. बड़ी मुश्किल से इतना ही पूछ पाया- क्या बात है मालती? वैसे मुझे आभास हो गया था कि हो न हो उसकी शादी तय हो गयी थी.
ऐसा ही उसने कहा भी- राजेश, पापा ने मेरी शादी तय कर दी है.
मैं सुन्न रह गया. कहता भी क्या. कुछ कहने के लिए हिम्मत होनी चाहिए. मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी. फिर भी किसी तरह बोला- चलो हम लोग भाग जाते हैं कहीं मंदिर में शादी कर लेंगे.
वह जोर जोर से रोने लगी- राजेश मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ. तुम मेरे दिल में हमेशा ही रहोगे. मगर मैं घर छोड़ कर तुम्हारे साथ नहीं भाग सकती. मैं तुमसे जितना प्यार करती हूँ, उतना ही अपने घर से भी प्यार करती हूँ. मैं भाग गयी तो मेरे माता पिता की इज्ज़त मिटटी में मिल जाएगी. पापा तो कहीं के नहीं रहेंगे.
मैं चाहता यही था कि मालती भागने से मन कर दे. मेरे में इतनी हिम्मत कहाँ थी कि अपने परिवार और पिता के खिलाफ घर छोड़ कर भागूं. शायद पिता जी को आज के लौंडों की हरकतों के बारे में मालूम था. इसीलिए एक दिन उन्होंने  मुझे बुलाया और कठोर लहजे में बोले- सुन, मैं तुम्हारी मजनूँगिरी जानता हूँ. इसलिए खबरदार कर रहा हूँ लड़की लेकर भागना नहीं. मैं तुझे पाताल से भी खोज निकालूँगा. उस लड़की का तो नहीं, लेकिन तेरा इतना बुरा हाल करूंगा कि इश्क लड़ाना ही भूल जायेगा।
पिताजी का जो लहजा था, वह इतना खूंखार था कि मेरी रूह फ़ना हो गयी थी. हम ठाकुरों के मर्द लोग सचमुच बड़े मर्द होते हैं. खून सवार हो गया तो कुछ भी कर सकते है. मैं इस मामले में थोडा कमज़ोर था। मालती के लिए खून नहीं बहा सकता था।
इसलिए जब मालती ने भागने से मन किया तो मैंने चैन की सांस ली. लेकिन बाहर से दिखाने के लिए बोला- मालती तुम्हारी शादी हो गयी तो मैं मर जाऊंगा. तुम्हारे बिना जी नहीं सकता.
मालती फिर फफक पड़ी. बोली- राजेश, मैं मर तो नहीं सकूंगी. पर तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे.
मालती की शादी हो गयी. उस दिन मैं बेहद उदास था. अकेले में रोया भी. शायद मालती को न पा सकने की कसक थी. मालती का क्या हाल रहा होगा पता नहीं. माँ और बहन गयी थीं शादी में मगर उन्होंने कुछ बताया नहीं. शायद मेरे सामने कुछ नहीं कहना चाहती थीं.
शादी के बाद मालती अपने मायके आयी. मैंने दूर से देखा. काफी खुश लग रही थी. मुझे ईर्ष्या हुई. मुझे छोड़ कर दूसरे मर्द के साथ कितनी खुश है. यह औरतें भी. किसी की नहीं होती. सिर्फ अपने मर्दों की ही होती हैं.
एक दिन मालती अकेली दिख गयी. मैं झट उसके  पास गया. वह मुझे देख कर मुस्कुराने लगी. बोली- कैसे हो? मैंने कहा- मालती, तुम्हारे बगैर कैसा हो सकता हूँ. लेकिन तुम बताओ तुम कैसी हो.
बोली- हाँ, मैं बहुत खुश हूँ. मेरे न पूछने के बावजूद बताने लगी- मेरे पति मुझे बहुत प्यार करते हैं. मुझे खूब घुमाते फिराते हैं। जो चाहती हूँ खिलाते और पहनाते  हैं. एक मिनट भी आँखों से ओझल होने नहीं देते.
मुझे ईर्ष्या हो रही थी. पर मैंने ऊपरी मन से कहा- चलो अच्छा है. तुम खुश रहो, मैं तो यही चाहता हूँ.
मालती ने पूछा- तुम शादी कब कर रहे हो.
मैं छुपा गया. बताया नहीं कि मेरी शादी भी तय हो गयी है. लड़की बेहद खूबसूरत थी. मालती से थोडा कम. लेकिन मेरे मन भा गयी थी. लेकिन मैं मालती को जताना चाहता था कि मैं उसके बिना सचमुच नहीं जी सकता. इसलिए चुप रहा.
मालती कुछ नहीं बोली. जल्द ही चली गयी.
मैं थोडा क्रोधित महसूस कर रहा था. साली, मेरे बिना कितनी खुश है. कहती थी तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे. अब उस दिल में अपने पति को रख लिया. मैं उस दिन दुनिया की तमाम औरतों के लिए हिकारत से भर गया।
मालती कुछ दिन अपने मायके रही. ऐसे में एक दो बार मिली भी. हमेशा हंसती मुस्कुराती मिली. उसकी हर मुस्कराहट के साथ मेरी ईर्ष्या बढ़ रही थी. धीरे धीरे ईर्ष्या  क्रोध में बदलती जा रही थी.
एक दिन मैंने रास्ते में मालती को देखा. अपने पति के साथ थी वह। काफी खुश नज़र आ रही थी.
मैं इंतकाम से भर गया. प्रेम की पींगे मेरे साथ मारी, मज़ा पति के साथ ले रही है. कितनी खुश है मेरे बिना भी. जबकि कहती थी कि मैं हमेशा उसके दिल में रहूँगा.
मैं अब उसकी खुशी नहीं देख सकता था.
मैंने उसके पति को ख़त लिखा. उसमे अपने और मालती के प्यार के बारे में सब लिख दिया. मालती के लिखे छोटे रुक्के भी साथ भेज दिए.
कुछ दिन बीत गए. मालती की कोई खोज खबर नहीं मिली. पता नहीं उसके पति को ख़त मिला या नहीं. मैं बेचैन हो रहा था कि मेरा वार खाली गया था.
एक दिन डाकिये एक चिट्ठी दे गया. मेरे नाम की चिट्ठी थी. मैं मालती की लिखावट साफ़ पहचान गया. मन शंकाओं से भर गया. वह नहीं आयी उसका ख़त कैसे आ गया.
मैंने ख़त खोला. लिखा था-
राजेश,
तुम हमेशा मेरे दिल में थे. मैं तुम्हे बेहद प्यार करती थी. मैं तुम्हारे अलावा किसी और से शादी नहीं करना चाहती थी. पर हम दोनों की शादी संभव नहीं थी. घर में सबका दबाव था. माँ ने जान दे देने की धमकी दी थी. मैं क्या करती. इसलिए मजबूरन शादी करनी पड़ी.
लेकिन, राजेश तुमने यह क्या कर दिया. तुमें मेरे पति को ख़त लिख कर मेरे उस प्यार को नंगा कर दिया जो मेरे दिल में बसा था. मुझे अपने पति की  उस मार का दर्द नहीं, जितना तुम्हारे इस व्यवहार का दर्द है. तुम ऐसे कैसे हो गए. तुमने अपने प्यार को रुसवां कर दिया.
राजेश, तुम शायद यह सोचते होगे कि मैं शादी कर बहुत खुश थी. तुमने मुझे हमेशा खुश देखा भी था और मैंने  तुम्हे बताया भी था कि मैं शादी के बाद अपने पति के साथ बहुत खुश हूँ. राजेश मैं यह बता कर कि मेरा पति आवारा और शराबी है. मुझे रोज मारता पीटता है और मेरे शरीर को जानवरों की तरह रौंदता है।  वह मुझ पर अनावश्यक शक करता है. मैं यह सब बता कर तुमको दुखी नहीं करना चाहती थी. क्यूंकि तुम मुझे बहुत प्यार करते थे. तुम मुझे हमेशा खुश देखना चाहते थे. मेरे वियोग में दुखी हो रहे तुमको मैं कैसे और दुखी करती.
लेकिन, राजेश तुमने यह क्या किया. तुमने मेरे पति को ख़त लिख कर हमारे प्यार के बारे में सब बताया ही, मेरे ख़त भी उन्हें भेज दिए. उन्होंने मुझसे मेरे हर ख़त पढ़वाए और वह मेरे द्वारा पढ़े हर शब्द के साथ मुझे लातों और घूंसों से मारते भी जाते थे.
राजेश, मुझे इस बात का दुःख नहीं कि पति ने मुझे मारा और खाने को नहीं दिया. लोगों के सामने बेइज्ज़त किया. मुझे मेरे किये की सजा तो मिलनी ही चाहिए. लेकिन तुमने मेरे प्यार को इस तरह बदनाम कैसे कर दिया कि मैं वैश्या मान ली गयी. तुम तो मुझे बेहद प्यार करते थे. मुझे ले कर भाग जाना चाहते थे. तुमने अब तक शादी भी नहीं की है. तब तुम यह सब कैसे कर सके.
मैं तुमसे बेहद प्यार करती थी. तुम हमेशा मेरे दिल में रहते थे. बेशक मैं अपने पति की वफादार थी. पर तुम्हारे ख़त ने मुझे बेवफा और चरित्रहीन बना दिया.
करने को तो मैं भी ऐसा ही कर सकती थी. पुलिस में रिपोर्ट कर तुम्हारे खिलाफ कार्यवाही करवा सकती थी. लेकिन मैं तुमसे सच्चा प्यार करती हूँ. लेकिन मैं अब बेइज्ज़त हो कर अपने पति के साथ नहीं रह सकती. इसलिए मैं आत्महत्या कर रहीं हूँ. मैं चाहती तो अपनी आत्महत्या के लिए तुम्हे दोषी ठहरा सकती थी. पर मैं ऐसा नहीं करूंगी। मैंने तुम्हे सच्चा प्यार किया था। कोई सच्चा प्यार करने वाला अपने प्यार का अहित कैसे कर सकता है। काश तुम भी यह समझ पाते। .
मैं तुम्हे नहीं अपने भाग्य को दोषी मानती हूँ. मैं चाहूंगी कि तुम इस पत्र को पढ़ने के बाद जला देना. क्यूंकि मैं नहीं चाहती कि मरने के बाद मेरी कोई चीज़ तुम्हारे पास रहे.
आखिर में मैं फिर तुमसे इतना कहना चाहूंगी कि राजेश तुम हमेशा मेरे दिल में ही थे. लेकिन अब नहीं.
..................
पत्र के आखिर में मालती ने अपना नाम नहीं लिखा था. शायद वह मेरे नाम के साथ अपना नाम नहीं जोड़ना चाहती थी.
मैं उसका ख़त पढ़ कर सन्न रह गया. मैंने यह क्या कर दिया था. अपने प्यार को अपने एक ख़त से मार दिया.
उस रात मैं ठीक से सो नहीं सका. मैं भयभीत था कि कहीं उसका पति मेरे खिलाफ कोई रिपोर्ट न कर दे.
दूसरे दिन मैंने मालती की आखिरी इच्छा का ख्याल करते हुए उसका ख़त जला दिया था।