सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लाठी

हमारे घर में बाप भाई होते हैं जो हक़ीक़त में मर्द होते हैं हमारे घर में माँ, बेटी और बहन नहीं होती सिर्फ औरते होती हैं या लड़कियां होती हैं औरतें/जिन्हे मर्द बाप बन कर या भाई बन कर नियंत्रित करते हैं क्योंकि, औरतें नाक कटा सकती हैं बलात्कार की शिकार हो कर या विजातीय विवाह कर हमारे घर में बेटे नहीं होते लठियाँ  होती हैं ताकि/ बुढ़िया टेक लगा सके लड़खड़ाए नहीं।

उदास उजाला

कल दीपावली के प्रकाश में नहाया मैं आतिशबाजी की रोशनी से चकाचौंध पटाखों के शोर से बहरा देख नहीं सका ठीक पीछे की अंधरी झोपड़ी को और सुन नहीं सका झोपड़ी में उदास बैठे नन्हे की सिसकियाँ 

सिर्फ दो पंक्तियाँ नहीं

चाहा था तुमने मेरा दामन दागदार करना बात दीगर है कि  तुम्हारे हाथ मैले हो गए . वह कुछ समझते नहीं, मैं समझ गया, यही बात समझाना चाहते थे शायद। बल्बों की लड़ियाँ सजाने से बात न बनेगी दो जोड़ आँखों की कंदीलें जलाओ तो समझूं . दूर तक जाते खड़े देखते रहे मुझको कुछ कदम बढाते तो साथ पाते मुझको। मैंने एक दीया जला के परकोटे पे रख दिया है, शायद कोई भटकता हुआ मेरे घर आ रहा हो।  

रिक्तता

मेरा देखना का नजरिया थोडा अलग है मैं आधा भरा गिलास नहीं मैं आधा खाली गिलास देखता हूँ मुझे उत्तर पुस्तिका की रिक्तता में खेत के खाली हिस्से में अधूरे इंसान में संभावनाएं दिखती  हैं आधे गिलास को मैं पूरा भर सकता हूँ उत्तर पुस्तिका के रिक्त पृष्ठों पर मैं जीवन के कठिन प्रश्न हल कर सकता हूँ खाली खेत की निराई, गुड़ाई और बुवाई कर उम्मीद की फसल बो सकता हूँ खाली गिलास, रिक्त पृष्ठ और अनबुआ  खेत की तरह अधूरे इंसान को पूरा करना ही दृष्टिकोण है मेरा।

निराशा

कभी/जब आशा साथ छोड़ जाए चारों ओर निराशा ही निराशा हो तब घबराओ नहीं निराशा को दोस्त बनाओ उससे प्यार करो वही बताइएगी आशा की राह क्यूंकि निराशा सबसे अधिक अनुभवी होती है उसे हर कोई ठुकराता है उसे हमसे ज़्यादा दर दर की ठोकरें जो मिलती हैं वह हमेशा आशा की जगह लेने के लिए आशा का पीछा करती रहती है इसीलिए वह भगवान से भी ज़्यादा जानती है कि आशा कहाँ मिलेगी।

ज़िंदा

मूर्ति की भांति मैं खड़ा था निःचेष्ट । एक व्यक्ति आया उसने मुझे देखा मैं हिला नहीं। फिर ज़्यादा लोग आए किसी ने मुझे छुआ बांह से/बालो से/ सीने से मैं कसमसाया तक नहीं कुछ ने मेरी नाक उमेठी बाल खींचे आँख में उंगली डाल दी मैंने कोई विरोध नहीं किया। फिर सब चले गए मैं अकेला रह गया चौकीदार आया मेरी बांह पकड़ कर बोला- चल बाहर चल, मुझे मोमघर बंद करना तुझे अंदर नहीं रख सकता क्योंकि तू सचमुच ज़िंदा है।

वर्तमान

हमारे अपने है, हमारे द्वारा निर्मित हैं भूत, भविष्य और वर्तमान । हम/अपने भूत को पलट पलट कर देखते हैं/रोते हैं किन्तु, अलविदा नहीं कहते । हम अपने भविष्य को बँचवाते हैं/सपने बुनते हैं/सोचते रहते हैं । हम अपने वर्तमान को देखते नहीं/बाँचते नहीं/सँवारते नहीं उधेड़बुन में बीत जाने देते हैं देखते रहते हैं वर्तमान को भूत बनते और फिर जुट जाते हैं भविष्य बँचवाने/सपने बुनने में  सँवारने में नहीं । भविष्य सँवारने की कोशिश करें भी तो कैसे वर्तमान को तो हम अंधे बन कर लूला लंगड़ा असहाय गुजर जाने देते हैं।

दिवाली

घोर अंधेरी रात में जगमग की बरसात ले दीवाली आयी है ।। बिखरी हैं जगमग रोशनियाँ । सजी हुई खुशियों की लड़ियाँ । अमावस को दूर भगा दीप बत्तियाँ जला जला धरती माँ जगमगाई है। दीवाली आयी है। झिलमिल झिलमिल दीप जले । खिल खिल खिल खिल खील खिले। लक्ष्मी माँ अब आ जाओ पूजा की बेदी सजाई है। दीवाली आयी है।  

ममता

देख रहा दुःस्वप्न छीने ले जा रहा कोई माँ की गोद से । व्याकुल बच्चा छटपटा रहा चीखना चाह रहा रोना चाह रहा किन्तु अंजाना सा भय आवाज़ नहीं निकलने दे रहा मुंह से बड़ी कठिनाई से बच्चा चीखता है- माँ ! तभी सर पर फिरने लगती हैं कोमल और ममता भरी हथेली सो जा बेटा मैं हूँ तेरे पास हल्की मुस्कुराहट बिखेर कर आश्वस्त हो सो जाता है बच्चा पास ही तो है माँ !  

दिवाली

छूटते पटाखे जलती फुलझड़ियाँ और अनार आसमान पर थिरकती हवाई ज़मीन पर नाचती चक्री देख रहा है मुन्ना जलते दीपकों के बीच झिलमिला रही हैं आंखे। (2) बड़ी दियाली छोटी दियाली अगल बगल दोनों में जलती बाती आनंद ले रहीं अंधेरे के बिखरने का तभी बड़ा दीपक इतराया ज़ोर से लहराया/और बोला- ऐ छोटी डर नहीं मेरे नीचे छिप जा मैं बचा लूँगा तुझे हवा नहीं बुझा पाएगी तुझे  कि तभी, हवा का तेज़ झोंका आया सम्हलते सम्हलते भी बड़े दीपक की बाती बुझ गयी लेकिन, छोटी दियाली अंधेरा भगा रही थी उस समय भी। (3) दीवाल पर मुन्ना के नयनों में दीपक जले। (4)  

मुंगेरीलाल के सपने

मैं मुंगेरीलाल हूँ मैं सपने देखता हूँ । अरे तुम हँसे क्यों मेरी आँखें क्यों नहीं देख सकती सपने  हर आँखों में नींद होती है सपने होते हैं सोने के बाद सभी आँखें सपने देखती हैं मैं भी देखता हूँ शायद तुम यह सोचते हो कि मेरे सपने तो मुंगेरीलाल के सपने हैं जो पूरे नहीं हो सकते लेकिन, बंधु हमारे देश के कितने लोगों के सपने पूरे होते हैं ज्यादातर सपने तो जागने से पहले ही बिखर जाते हैं कुछ आंखे तो  सपनों के बिखरने के लिए आँसू बहाती हैं इसके बावजूद अगले दिन फिर सपने देखती हैं हमारे देश में मुंगेरीलाल सपने ही तो देख सकता हैं।  

विभीषण

तीन भाई होते हुए भी तीन भाइयों वाले राम से इसलिए हारा रावण कि जहां राम के साथ भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण थे वही रावण के तीन भाइयों में एक विभीषण जो था।  

सोचो राम !!!

प्रत्यंचा चढ़ाये होठों में मुसकुराते /राम से रावण ने कहा- राम तुम राम न होते मैं रावण नहीं होता तुम वहाँ नहीं होते मैं यहाँ नहीं होता अगर, थोड़ा रुक कर बोला रावण - यहाँ अगर का बड़ा महत्व है राम अगर तुम्हें भाई घाती सुग्रीव न मिलता तो तुम बाली को न मार पाते बानरों से सीता का पता न पाते अगर तुम मेरे भाई को विभीषण न बनाते तो मेरी नाभि के अमृत का पता न चलता मेरी अमरता को मार न पाते । तुम  राम हो और मैं रावण  हूँ क्योंकि मुझे विद्रोही भाई मिले जबकि तुम्हें भरत मिला । अगर भरत भी विभीषण बन जाता तो सोचो राम क्या तुम राम बन पाते ? अयोध्या के राजा बन कर अपनी मर्यादा जता  पाते? सोचो राम !!!  

ऊन उलझी

जाड़ों  में एक औरत स्वेटर बुनती है । फंदा डालना है फंदा उतारना है अधूरे सपनों को इनसे संवारना है हरेक स्वेटर में ज़िंदगी गुनती है। जाड़ा आता है जाड़ा चला जाता है जिसने कुछ ओढा हो उसे यह भाता है। गुनगुनी धूप से भूख कहाँ रुकती है। जिंदगी की स्वेटर में डिजाइन कहाँ उलझी हुई ऊन से सब हैं यहाँ ऐसी ऊन से माँ सपने बुनती है ।

स्वेटर

जाड़ों में स्त्रियाँ स्वेटर बुनती नज़र आती हैं धूप में बैठी हुई बात करती तेज़  गति से सलाई चलाती एक फंदा सीधा, एक उल्टा या कुछ फंदे सीधे और कुछ उल्टे या फिर ऐसे ही गणित के साथ डिजाइन बनाती हैं। स्वेटर लड़की के लिए भी बन रही है और लड़के के लिए भी लेकिन लड़का पहले है कुल का चिराग है कहीं ठंड न लग जाये लड़के की स्वेटर की ऊन भी नयी है लड़की के लिए मिक्स है। लड़के की स्वेटर के डिजाइन में खूबसूरत फूल हैं हाथी घोड़े और चढ़ता सूरज है लड़की के स्वेटर में एक दुबली सी लड़की की डिजाइन है डिजाइन वाली लड़की न जाने हंस रही है या रो रही है मगर स्वेटर पूरी होने को है।  निश्चित रूप से पूरी स्वेटर देख कर पुलक उठेगी मुनिया पिछले जाड़ों में तो छेद वाली ही स्वेटर नसीब हुई थी न!

दरख्त जैसे मकान

मेरे शहर में ऊंचे ऊंचे दरख्तों जैसे एक के ऊपर एक चढ़े मकान होते हैं  जिनके सामने ऊंचे दरख्त भी बहुत छोटे लगते हैं कभी कबीर ने कहा था - बड़ा भया तो क्या भया/ जैसे पेड़ खजूर / पंथी को छाया नहीं / फल लागे अति दूर । मेरे शहर के इन गगनचुंबी दरख्तों पर फल तो लगते ही नहीं  छाया क्या खाक देंगे दरख्तों को काट कर बने मकान।

सबक

मरे जानवर की खाल से बना जूता काटता है पहनने वाले को /परेशान करने की अपनी क्षमता का पता बताता है अगर ज़िंदा आदमी ऐसा कर सकता है तो मरे का काम ही किया ना! यही जूता अगर उल्टे पाँव में पहनो तो तत्काल/एहसास करा देता है कि उल्टा पहन लिया तब आदमी जूते से सबक लेते हुए सीधा काम क्यों नहीं करता!  

कौव्वा

कभी हमारे घर की मुंडेर पर कौव्वा आ बैठता था। जब वह कांव कांव करता तो आ आ का आभास होता  हम बच्चे उसे उड़ाने लगते पत्थर फेंक कर/तब माँ कहती- बेटा, ऐसा न कर मेहमान घर आने वाला है कौव्वा उनके आने का संदेश दे रहा है आज घर है मुंडेर नहीं कौव्वा बैठे भी तो कहाँ क्या/शायद इसीलिए हमारे घर कोई मेहमान नहीं आता?

डरा बच्चा

बच्चा बिछुड़ गया है/अपनी माँ से कैसे/ कैसे छूट गया हाथ बच्चे का/ माँ से कैसे/ कैसे हो सकती है /असावधान माँ सोच रहा है बच्चा डर रहा है बच्चा डरा रहा है परिचित चौराहा चिरपरिचित राह भयभीत है कहाँ गयी माँ मुझे छोड़ गयी माँ या लौट कर आएगी माँ हा माँ! आ माँ!! कहाँ छोड़ गयी माँ!!! चार राहों के बीच असुरक्षित, भयभीत और असहाय बच्चा रो रहा है! रो रहा है!! रो रहा है!!!

विदाई

एक रोती लड़की से मैंने कहा- तू पैदा हुई तब रो रही थी। जब विदा हो रही थी तब भी रो रही थी। फिर पूछा- आज जब माँ बनने वाली है तब भी तू रो रही है? लड़की रोती रही/बोली- पैदा होते समय तू भी रोया होगा पर मेरे भाग्य में तो पग पग रोना लिखा है पिता पढ़ाने में रोया शादी के समय दहेज देने में रोया सही है कि मैं विदा के समय भी रोयी और आज भी रो रही हूँ क्योंकि मुझे आज भी रोना है और कल भी। कल बेटी विदा होगी तब  रोटी लेकिन मुझे आज ही रोना होगा डॉक्टर के यहाँ जाना है क्योंकि मेरे पति बेटी को आज ही विदा करना चाहते हैं।

बूढ़ा- कोना

?kj dk vU/ksjk dksuk A /kwi dk NksVk mtyk VqdM+k A /kwi dh rjg >d lQsn ckyksa okyk] vU/ksjs dksus dh rjg mnkl cw<+k A rhuksa jkst gh feyrs A cw<+k lqcg mBus ds ckn [kksa [kksa [kkalrk dksus esa vk cSBrk A cqw<+s dh mnklh dqN T;knk vU/ksjh gks tkrh A dksbZ mlds ikl rd ugha QVdrk Fkk A mlds [kkalh ls lHkh dks l[r ijgst Fkk A lc fgdkjr ls ns[krs A exj dksuk f[ky mBrk A mldk vdsykiu tks nwj gks tkrk Fkk A FkksM+h nsj esa /kwi dk VqdM+k dksus ij vk mrjrk A dksus dk mtykiu c<+ tkrk A cw<+k 'kwU; vka[kksa ls VqdM+s dks ns[krk jgrk A uUgha /kwi igys lgeh jgrh A fQj vkxs c<+rh A cw<+s ds ikao Nwrh gqbZ] mlds ?kqVuksa ls gks dj xksn esa tk cSBrh A cw<+k mls Hkxkus dh dksf’k’k djrk A VqdM+k fQly fQly tkrk A fQj ogha dk ogha A cw<+s dks vkuUn vkus yxrk A og mls Nwus dh dksf’k’k djrk A Nw ugha ikrk A fcYdqy vius iksrksa iksfr;ksa dh rjg A D;ksafd] mUgsa cw<+s ds ikl tkus dh eukgh Fkh A cPps mls nwj ls ns[krs] tSls dksbZ vtwck gks og A blhfy, cw<+s ds lUrks...

कोने में बूढ़ा

अंधेरे कोने की धूप सा अकेला दुबका रहता  है/ बूढ़ा कुछ अपने में सिमटा हवा से/खिड़कियों के हिलने से कुछ सहमा घर में/ किसी को क्या फर्क पड़ता है कि/ कोने में धूप है या नहीं लेकिन अंधेरे कोने को फर्क पड़ता है थोड़ा नज़र आता है/ कोना खत्म हो जाता है/ अकेलापन कोने का/बूढ़े का भी तभी तो/जब धूप का टुकड़ा/और बूढ़ा अलविदा/तब कोना/हो जाता है कुछ उदास/गहरा उदास।  
मैं कब का चला आया था, पास समझ रहे थे तुम, आवाज़ की गूंज को मेरी आवाज़ समझ रहे थे तुम। सामने जब तलक बैठा रहा देखा नहीं तुमने मुझको, मेरे साये का  बड़ी देर तक पीछा करते रहे थे तुम। तुम नाराज़ थे मैं मनाता रहा न माने तुम,

वसीयत

मैंने अपनी वसीयत लिख दी है ग़रीबी बड़े बेटे के नाम मुफलिसी छोटे के नाम और भूख खुद के लिए छोड़ दी है। बड़ा/ पैसे कमा कर ग़रीबी दूर कर लेगा छोटा/ धीरे धीरे सब जुटा कर मुफलिसी दूर कर लेगा। मैंने/ भूख/ अपने नाम इस लिए की है/ क्योंकि भूख से मेरा बचपन का नाता है मैंने इसे खाया, पिया और जिया है यह मेरी बाल सखा, सहेली, सहपाठी और संगिनी है इतने गहरे रिश्ते/मैं बच्चों में नहीं बाँट सकता यह मेरे अतीत के पन्ने है मैं/ इन्हे/ कभी नहीं पलटता तो/वसीयत में/ कैसे जोड़ देता बच्चों में कैसे बाँट देता!  

दीवानगी

जहां लोग माथा टेकते हैं, वह मंदिर है। जहां लोग माथा रगड़ते हैं, वह मस्जिद है। जहां लोग घुटने टेक कर अपराधों की क्षमा मांगते हैं, वह चर्च है। लेकिन, समझ नहीं सका मैं, जहां लोग पी कर लोटते हैं उस मयखाने से कोई नफरत क्यों करता है? दोनों ही दीवाने हैं एक ईश्वर, अल्लाह और खुदा का दूसरा उस ईश्वर, अल्लाह और खुदा की बनाई अंगूर की बेटी का। दीवानगी और दीवानगी में यह फर्क दीवानापन नहीं तो और क्या है कि हमे मयखाने के दीवानों की दीवानगी की इंतेहा से नफरत है।

मातृ भाषा हिन्दी

सूती धोती ब्लाउज़ में अपनों की देखभाल करती बहलाती, पुचकारती और समझाती हिन्दी से पाश्चात्य पोशाक में लक़दक़ गिटपिट करती अंग्रेज़ी ने कहा- इक्कीसवीं शताब्दी के आधुनिक भारत की भाषा तुझे क्यों कोई साथ नहीं रखता तू उपेक्षित अपनों से सहमी हुई रहती है कभी तूने सोच की क्यों ? क्यों लोग मुझे अपनाते हैं मेरा साथ पाकर धन्य हो जाते हैं तुझे साथ लेने में शर्माते हैं। अंग्रेज़ी के ऐश्वर्य से अविचलित हिन्दी से अंग्रेज़ी ने आगे कहा- क्योंकि, मैं उन्हे गौरव का अनुभव देती हूँ दूसरों से संपर्क के शब्द देती हूँ इस मायने में तू मूक है इसलिए इतनी उपेक्षित है। हिन्दी ने अंग्रेज़ी को देखा चेहरे पर आत्मविश्वास लिए कहा- मैं 'म' हूँ बच्चे का पहला उच्चारण तुम्हारे देश का बेबी भी पहले 'म' 'म' ही करता है मदर नहीं बोलता । मैं बोलने की शुरुआत हूँ बच्चे के शब्द मैं ही गढ़ती हूँ तू उसके बोलने और सीधे खड़े होने के बाद उसके सर चढ़ जाती है बेशक तू मेम हो सकती है मगर माँ नहीं बन सकती क्योंकि मैं बच्चे की जुबान पर उतरी मातृ भाषा हूँ।  

गुरु

मैं मिट्टी था गुरु ने मुझे मूरत बनाया ज्ञान दिया गुर सिखाया मुझे शिक्षित कर गुरु यानि भारी बना दिया और मैं गुरु बनते ही गुरूर से भर गया और फिर से मिट्टी हो गया।

हिन्दी

अपने देश में पिता के घर भ्रूण हत्या से बच गयी बेटी जैसी उपेक्षित, ससुराल में कम दहेज लाने वाली बहू जैसी परित्यक्त    क्यों है विधवा की बिंदी जैसी राष्ट्रभाषा हिन्दी । (2) कमीना सुन कर नाराज़ हो जाने वाले लोग अब बास्टर्ड सुन कर हँसते हैं।  

नाक

कोई क्यों नहीं समझ पाता अपने सबसे नजदीक को ? क्या हम आँख से सबसे निकट नाक कभी ठीक से देख पाते हैं? जब तक कोई आईना पास न हो।  

गिरगिट

जिन लोगों के पास होती है लंबी जीभ उनके पास आँखें नहीं होती कान नहीं होते यहाँ तक कि नाक भी नहीं होती। ऐसे लोग कुछ सोचना समझना नहीं चाहते वह सोचते हैं कि उनकी लंबी जीभ पर्याप्त है पेट भरने के लिए। ऐसे लोग गिरगिट की तरह होते है मौका परस्त और रंग बदलने वाले लेकिन ऐसे लोग नहीं जानते कि गिरगिट पर कोई विश्वास नहीं करता उसे निकृष्ट दृष्टि से देखा जाता है। भई, गिरगिट धोखेबाज, भयभीत सीधी खड़ी नहीं हो सकती रेंगती रहती है आजीवन।

दर्द का रिश्ता

दो सखियों या बहनों या फिर माँ बेटी जैसा आँखों का आंसुओं से रिश्ता एक महसूस करती दूसरी छलक पड़ती एक रोती दूसरी बह निकलती क्योंकि बहनों-सखियों जैसा माँ बेटी का यह रिश्ता है दर्द का जब  बढ़ जाता है दर्द हद से ज़्यादा तब बिलखने लगती हैं आंखे निकलने लगते हैं आँसू  

किसके हरिश्चंद्र

nkok djrs gSa czkg~e.k fd og czg~ek ds eqag ls gq, Fks Bkdqjksa dk nkok Hkxoku jke ij gS   fd og {kf=; Fks lw;Zoa’kh Fks A ugha] d`".k Bkdqj ugha Fks mu ij ;nqoaf’k;ksa dk BIik gS gksaxs cq) fo".kq vorkj ysfdu] iq[rk nkok nfyrksa dk gS bUlku ds deksZ dk ys[kk tks[kk j[kus okys fp=xqIr dks dk;LFk rks gksuk gh Fkk nqX/k O;olk; ds dkj.k os’; Hkh crkrs gS d``".k ls viuh mRifr Bhd gS ckaV yhft, vius egkiq:"k ysfdu] D;ksa ugha >xM+rk dksbZ jktk gfj’pUnz ds fy, D;k blfy, fd og lR;oknh Fks \  

मुर्दे

मुझे पसंद हैं मुर्दे ! जो सोचते नहीं मुंह खोलते नहीं वह सांस रोके निर्जीव आँखों से  देखते हैं ज़िंदा आदमी का फरेब जो देखता है, सब कुछ समझता है इसके बावजूद जब मुंह खोलता है तब न जाने कितने ज़िंदा मुर्दा हो जाते हैं। शायद इसीलिए देखते नहीं मुंह खोलते नहीं मुर्दे।

जो

जो जो टाला न जा सके वह घोटाला । जो उगला न जा सके वह निवाला। जो समझा न जा सके वह गड़बड़झाला। जो सब भूल जाए वह हिन्द वाला । (2) बाज़ार मे कसाई जो काट कर बेचे उसे नरम गोश्त कहते हैं। फिल्मों में हीरोइन जो कपड़ा फाड़ कर बेचे उसे गरम गोश्त कहते हैं।       फर्क मेरे सामने तुम मुसकुराते नज़र आओ ऐ दोस्त, मेरे सामने होने का फर्क नज़र आना ही चाहिए।      (1) भूखा आदमी तेज़ भूख लगने पर अपनी व्यथा दोनों हाथों से पेट सहला कर व्यक्त करता है । लेकिन जब भोजन आता है तो उसे खाता एक ही हाथ से है।   तुमने मुझे बेकार कागज़ की तरह फेंक दिया था ज़मीन पर। गर पलट कर देखते तो पाते कि मैं बड़ी देर तक हवा के साथ उड़ता रहा था तुम्हारे पीछे।   (2) मेरे आँगन में शाम बाद होती है पहले उनके घर अंधेरा उतरता है। (3) देखो मैं रास्ते में पड़ा रुपया उठा लाया हूँ। पर वहाँ एक बच्चा अभी भी पड़ा होगा। (4) मेरे आसमान पर चाँद है तारे हैं, पंछी नहीं। सुना है ज़मीन पर आदमी भी भूखा है। (5) दोस्त तुम मुझ पर हँसते हो तो मुझे ख...

शरीर

ईश्वर ने इंसान को दो हाथ और दो पाँव दो छिद्रों वाली एक नाक के ठीक ऊपर दो आँखें बत्तीस दांत और उनके बीच लचीली जीभ इसलिए नहीं दी कि अपने पैरों तले मानवता को रौंद दे हाथों से रक्तपात और अशुभ करे । बुरा सूंघने और देखने के लिए नहीं हैं दो आंखे और एक नाक दूसरों को काटने के लिए नहीं हैं दाँत  क्योंकि बोलने की आज़ादी की रक्षा के लिए हैं दाँत मानवता को बचाने के लिए हैं हाथ अन्यायी के खिलाफ मजबूती से खड़ा होने के लिए हैं पैर नाक के दो छेद और आँखें अच्छा और बुरा समझने बूझने और देखने के लिए हैं । मगर ऐसा क्यों नहीं हो पाता ? क्योंकि, हमारे हृदय में नहीं बहता इंसानियत का खून नियंत्रण में नहीं होता मस्तिष्क बल्कि, नियंत्रित करते हैं दूसरे जो इंसानियत जैसा नहीं सोंचते ।

मुकद्दर

मैंने मुकद्दर से कहा- मेरी मुकद्दर में जो है लिख दो मेरी मुकद्दर में । मुकद्दर ने लिख दिया मुकद्दर को कोसना मेरी मुकद्दर में ।  

तिरंगा

स्वतंत्रता दिवस पर, उससे पहले हर साल गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराया जाता है। तिरंगा, खुद में फूल लपेटे रस्सी से बंधा नेता के द्वारा नीचे से ऊपर को खींचा जाता है। जब चोटी पर पहुँच जाता है तिरंगा लंबे डंडे से जकड़ दिया जाता है तिरंगा तब नेता एक जोरदार झटका देता है तिरंगा नेता पर फूल बरसाते हुए हर्षित मन से प्रफुल्लित तन से लहराने लगता है मानो अभिवादन कर रहा हो नेता का। क्या यह स्वतंत्रता है यह गणतंत्र है जिसमे रस्सी से जकड़ा तिरंगा नेता के द्वारा स्वतंत्र किए जाने पर फूल बरसाता है, प्रफुल्लित लहराता है और बेचारा जन गण मन ही मन तरसता हुआ राष्ट्रगान गाता है।

होरी

होरी को रचते समय प्रेमचंद ने होरी से कहा था- मैं ग़रीबी का ऐसा महाकाव्य रच रहा हूँ जिसे पढ़ कर लाखों करोड़ों लोग डिग्री पा जाएंगे, डॉक्टर बन जाएंगे प्रकाशक पूंजी बटोर लेंगे साम्यवादी मुझे अपनी बिरादरी का बताएंगे किसी गरीब फटेहाल को कर्ज़ से बिंधे नंगे को लोग होरी कहेंगे । इसके बाद तू अजर हो जाएगा किसी गाँव क्या शहर कस्बे में गरीबों की बस्ती में ही नहीं सरकारी ऑफिसों में भी तू पाया जाएगा, साहूकारों से घिरे हुए पास के पैसों को छोड़ देने की गुहार करते हुए और पैसे छिन जाने के बाद सिसकते हुए। निश्चित जानिए उस समय भी होरी रो रहा होगा तभी तो प्रेमचंद को उसका दर्द इतना छू पाया कि वह अमर हो गया।

रात्री

रात के घने अंधेरे में पशु पक्षी तक सहम जाते हैं चुपके से दुबक कर सो जाते हैं अगर किसी आहट से कोई पक्षी अपने पंख फड़फड़ाता है तो मन सिहर उठता है वातावरण की नीरवता मृत्यु की शांति का एहसास कराती है क्यूँ कि, जीवन तो सहम गया हो जैसे दुबक कर सो गया हो जैसे । ऐसे भयावने वातावरण में झींगुरों की आवाज़े ही सन्नाटे का सीना चीरती हैं यह जीवन का द्योतक है कि कल सवेरा हो जाएगा जीवन एक बार फिर चहल पहल करने लगेगा। फिलहाल तो हमे सन्नाटे को घायल करना है जुगनुओं की रोशनी में भटके हुए मनुष्य को उसके गंतव्य तक पहुंचाना है।

राजा हरिश्चंद्र

अगर आज राजा हरिश्चंद्र होते सच की झोली लिए गली गली भटकते रहते कि कोई परीक्षा ले उनके सच की लेकिन यकीन जानिए उन्हे कोई नहीं मिलता परीक्षा लेने वाला जो मिलते वह सारे श्मशान के डोम होते जो उनकी झोली छीन लेते उनके ज़मीर की चिता लगवाने से पहले ।

बेकार

तुमने मुझे बेकार कागज़ की तरह फेंक दिया था ज़मीन पर। गर पलट कर देखते तो पाते कि मैं बड़ी देर तक हवा के साथ उड़ता रहा था तुम्हारे पीछे।   कभी हवाओं से पूछो कि क्यूँ देती है आवाज़ पीछे से बताएगी कि कहीं कुछ रह तो नहीं गया तेरा पीछे।

न्याय

ग़रीब  की झोपड़ी में इतने और ऐसे छेद ! कि उनसे झाँकने में झिझकती हैं सूरज की किरणें चाँदनी भी असफल रहती है अपनी चमक फैलाने में झोपड़ी के अंदर गर्मी को कम करने अंदर नहीं आ पाती ठंडी बयार । ऐसा क्यूँ होता है सिर्फ ग़रीब की झोपड़ी के साथ कि बारिश का पानी चू चू कर ताल बना देता है टूटी चारपाई के नीचे सर्द हवाएँ तीर की तरह चुभती हैं आंधी तूफान में सबसे पहले झोपड़ी ही ढहती है। क्यों नहीं करती पृकृति भी गरीब की झोपड़ी के साथ न्याय ?

कल

तीव्र गति से बढ़ती रात को संसार की बागडोर सौंपने के लिए शाम बन कर ढलता दिन संसार के विछोह से म्लान पीला पड़ गया है रात समेटना चाहती है दिन है कि जाना ही नहीं चाहता । तब, दिन के कान में फुसफुसाती है हवा- मोह छोड़ो आज का और संसार का रात को समेत लेने दो आज करने ताकि संसार कर सके थोड़ा सा विश्राम । अगले सूर्योदय के साथ तो  लोग करेंगे तुम्हें ही प्रणाम क्योंकि संसार के मोह से उबरने के बाद दिन कल तुम्हारा ही होगा  !

तुक्का फिट

भागता हुआ पहुंचा उठाने को चिलमन उनकी मालूम न था कि वो कफन ओढ़े लेते हैं। रहते हैं वह मेरे हमराह तब तक रास्ता जब तलक नहीं मुड़ता। मेरे आँगन में शाम बाद होती है पहले उनके घर अंधेरा उतरता है। देखा मैं रास्ते पे गिरा रुपया उठा लाया हूँ। पर वहाँ इक बच्चा अभी भी पड़ा होगा। मेरे आसमान पर चाँद है तारे हैं, पंछी नहीं। सुना है ज़मीन पर आदमी भी भूखा है।

खुशी के आँसू

पिता जी मर रहे थे घर में अफरा तफरी मच गयी जल्दी से गंगाजल लाओ पंडितजी के मुंह में डालो सीधे स्वर्ग जाएंगे। रोना पीटना शुरू हो गया लेकिन माँ की आंखो में एक बूंद आँसू नहीं थे बुजुर्गों ने कहा- बहू सदमे में है उसे रुलाओं । सहेलियों ने झकझोरा- कमला, तू रोती क्यूँ नहीं, रो ? माँ ने कुछ सुना नहीं वह तो उधेड़बुन में थीं। कैसे होगा दाह संस्कार और बाद के काम काज घर में इतने पैसे कहाँ। इनकी तनख्वाह तो रोजमर्रा की जरूरतों के लिए काफी नहीं थी, बचत क्या खाक होती। पिता शायद मर गए थे आवाज़ें आने लगी भाई कफन दाह संस्कार के इंतज़ाम करो शव को घर में ज़्यादा देर रखना ठीक नहीं। माँ की परेशानी ज़्यादा बढ़ गयी कि तभी कुछ लोग अंदर आए पिता के ऑफिस के लोग थे उनमे से एक बुजुर्ग ने बेटे के हाथ में ऑफिस में एकत्र हुए कुछ रुपये रख दिये। वह बोला- बेटा अभी यह रखो पिताजी का काम करवाओ हम जीपीएफ़ आदि के पैसे जल्द भेज देंगे। सदमे में जाती लग रही माँ सब देख और सुन रही थी। यह सुनते ही माँ दहाड़ मार कर रोने लगी। सब कहने लगे- चलो रोई तो अब सदमे में नहीं जाएगी। पर म...

गब्बर सिंह

भूख से बिलबिला रहे बेटे से माँ ने कहा- बेटा सो जा! नहीं तो गब्बर आ जाएगा। बेटे ने माँ के चेहरे को निहारा फिर बोला- माँ, यह गब्बर कौन है? यह कहाँ रहता है? इसका नाम लेते समय तुम इतनी उदास और चिंतित क्यूँ हो? बेटे को थपकते हुए माँ बोली- बेटा यह गब्बर सिंह पचास पचास कोस दूर नहीं हर कहीं आस पास रहता है यह भूख का दैत्य है जो महंगाई के शेर पर सवार रहता है इसे देख कर तेरे बाबा और चाचा भी काँप जाते हैं दूर देश मजूरी करते है फिर भी इस गब्बर को भगा नहीं पाये हैं महंगाई पर सवार गब्बर ज़्यादा भयानक लगता है तुझे जागा देखेगा तो तुरंत पकड़ लेगा। बेटे ने कहा- माँ अगर मैं सो गया तो क्या गब्बर सिंह नहीं आएगा? तू मुझे लोरी गा कर भी तो सुला सकती थी गब्बर का डर क्यूँ दिखा रही है ? माँ बोली- बेटा लोरी में दूध की कटोरी और बताशे का जिक्र होता है इसे सुन कर गब्बर भागता हुआ आ जाता है। तुझे उठा ले गया तो मैं क्या करूंगी। तू ठीक कहता है कि गब्बर कल भी आएगा लेकिन, अगर तू आज सो गया तो यह आज तेरे पास नहीं आएगा। कल तो मैं इस गब्बर को भगाने का कोई उपाय ढूंढ लूँगी। चल अब स...

ईमानदारी की पोटली

भागता आ रहा एक आदमी बदहवास, निराश और भयभीत कुछ लोग पीछे भाग रहे हैं उसके कृशकाय शरीर वाला वह व्यक्ति भाग नहीं पाता, गिर पड़ता है भीड़ उसे घेर लेती है । वह गिड़गिड़ाता है- छोड़ दो मुझे जीने दो क्या बिगाड़ लूँगा मैं तुम सबका अकेले ! लोग चीखने लगते हैं- मारो नहीं छीन लो इससे पोटली । कृशकाया थरथराने लगती है- नहीं, मुझसे इसे मत छीनो मैंने इसे परिश्रम से तिनका तिनका करके बटोरा है बरसों सँजो कर रखा है यही तो मेरी पूंजी है । उस कमजोर पड़ चुकी काया के बगल से दबी हुई थी ईमानदारी की पोटली, जो थी उसकी प्रतिष्ठा, मान सम्मान और संपत्ति । कैसे यूं ले जाने देता उन्हे । भीड़ आरोप लगाती है- इसने धीरे धीरे चुरा ली है जमाने की ईमानदारी और बना ली है अपनी पोटली कैसे रख सकता है यह हम सभी बेईमानों के बीच सहेज कर अपनी ईमानदारी की पोटली ?

नहा रहा बच्चा

नहलाने जा रही है बच्चे को माँ नन्हें बदन से नन्हें कपड़े बड़े दुलार से एक एक कर उतारती फिर थोड़ा तेल मल देती सिर पर और चुपड़ देती बदन पर बच्चा कौतुक से निहार रहा है माँ को क्या कर रही है माँ! फिर माँ बच्चे को पानी के टब में बैठा देती है बच्चा चीख उठता है हालांकि पानी गरम नहीं, गुनगुना है शरीर की थकान उतारने वाला फिर भी नन्हा ऐसे बिलखता है जैसे पानी बहुत गरम या ठंडा है पर माँ बाहर नहीं निकालती बच्चा बिलख बिलख कर रोने लगता है मानो ज़िद कर रहा हो कि मुझे बाहर निकालो लेकिन क्यूँ निकाले  माँ बच्चे के भले और स्वास्थ्य के लिए रोज़ नहाना ज़रूरी है, माँ जानती है बच्चा गला फाड़ कर रोना शुरू कर देता है माँ साबुन लगाती जाती  है हौले हौले शरीर मलती जाती है बच्चा छाती का पूरा ज़ोर लगा कर रोता है क्यूँ करती है माँ इतनी ज़िद ? माँ को इत्मीनान हो जाता है कि वह अब ठीक से नहा चुका है  उसे टब से बाहर निकाल लेती है मुलायम मोटे तौलिये पर लिटा देती है बच्चा थोड़ा संतुष्ट है कि अब पानी में नहीं पर रोना बंद नहीं करता कहीं माँ फिर से टब में न डाल दे। माँ...

नपुंसक

मैं जन्मना न ब्राह्मण हूँ न क्षत्रिय हूँ, न वैश्य न ही ठाकुर हूँ। मैं जन्मना नपुंसक हूँ क्यूंकि मेरे पैदा होने के बाद नाल काटने से पहले दाई ने पैसे धरवा लिए थे यानि मेरी ईमानदारी की नाल तो सबसे पहले काट दी गयी थी।

हॅप्पी बर्थड़े

जन्मदिन पर खूब सजावट की गयी दोस्त पड़ोसी बुलाये गए गुल गपाड़ा मचा केक काटा गया खाया कम गया, चेहरों पर ज़्यादा लिपटाया गया देर तक नाचते रहे सब फिर पार्टी के बाद बचा खाना और केक कौन खाता बाहर फेंक दिया गया सोने जा रहे थे सब कि बाहर तेज़ शोर मचा झांक कर देखा सामने फूटपाथ के भिखारी फेंका हुआ केक और खाना खा रहे थे हमारी तरह चेहरे पर लगा रहे थे लेकिन साथ ही पोंछ कर खाये भी जा रहे थे। माजरा समझ में नहीं आया था कि तभी ज़ोर का शोर उठा- हॅप्पी बर्थ डे टु यू !

ओ प्रधानमंत्री

ऐ प्रधानमंत्री तुम मुस्कराते नहीं तुम हिन्दी नहीं बोल पाते तुम अपने एसी दफ्तर से निकल कर कभी गाँव शहर नहीं घूमे तुम कार से उतर कर पैदल नहीं चले तुमने कभी किसी बनिए की दुकान से सामान नहीं खरीदा कभी किसी सब्जी वाले से मोलतोल नहीं किया तुमने कभी कीरोसिन के लिए लाइन नहीं लगाई तुम कैसे प्रधानमंत्री हो ! जो अपने आम जन की भाषा नहीं जानता वह उसके दुख दर्द किस भाषा में समझेगा जिसने ज़मीन पर पाँव नहीं रखा वह चटकती धूप की तपन टूटी सड़कों में भरे गंदे पानी की छींट बजबजाते नाले की दुर्गंध  कैसे महसूस कर सकेगा तुम बनिए की दुकान गए नहीं तो महंगाई का मर्म क्या समझोगे तुमने सब्जी वाले से मोलभाव नहीं किया तो कैसे जानोगे कि अब शहर के आस पास सब्जी उगाने के लिए ज़मीन ही नहीं सारी जमीने  सेज़ (एसईज़ेड) की सेज चढ़ गईं तुम कैसे जानोगे कि राशन की दुकान पर अब कीरोसिन बिकता नहीं ब्लैक  होता है ओह प्रधानमंत्री !! शायद अपनी इसी गैर जानकारी के दुख से तुम मुसकुराते नहीं।

क्यूँ नहीं बदलती हमारी मानसिकता ?

यह छोटी खबर लखनऊ से है। लखनऊ के जिलाधिकारी के आवास के सामने मर्सिडीज स्पोर्ट्स कार  पर सवार  एक रईसजादे ने एक मोटर साइकल सवार को इसलिए गोली मार दी कि उसने कार को पास नहीं दिया था।  उस रईसजादे की गिरफ्तारी के बाद पता चला कि वह रईसज़ादा उस दिन अपने महिला मित्र के साथ एक रेस्तरां में गया था। वहाँ एक मोटर साइकल से आए लड़के ने लड़की से छेड़खानी की। जब लड़का लड़की बाहर आकर अपनी कार से जा रहे थे तो मोटर साइकल सवार युवक ने कार का पीछ किया और फिर लड़की पर भद्दे कमेंट्स किए। इस पर नाराज़ रईसजादे ने मोटर साइकल को ओवरटेक कर पहले सवार की पिटाई की फिर फायर झोंक दिया। इस खबर से एक्शन थ्रिलर फिल्म निर्माताओं को सीन क्रिएट करने की खाद मिल सकती है। चाहे तो वह इसका उपयोग कर लें। इस खबर का दूसरा पहलू भी है। यह आधुनिक होते और पाश्चात्य सभ्यता तेज़ी से अपनाते लखनऊ की त्रासदी भी है। अब लखनऊ के माल्स में जवान लड़के लड़कियां हाथों और कमर में हाथ डाले घूमने लगे है, होटलों और रेस्तरोन में खाने लगे हैं। लेकिन ब्रांडेड कपड़े पहने लखनऊ के युवाओं...

सावन ( saawan )

रिमझिम सावन भीगे आँगन तन मन मेरा। । ताल तलैया ता ता थईया गिर कर नाचे बूंद। पात पात पर बात बात पर बच्चे थिरके झूम। मोद मनाए गीत सुनाये तन मन मेरा ।। खेत तर गए डब डब भर गए क्यों भाई साथी। हलधर आओ खेत निराओ सब मिल साथी। लहके बहके चटके मटके तन मन मेरा । । बीज उगेंगे पौंध बनेंगे धरा से झाँके  । फसल उगेगी बरस उठेगी कृषक की आँखें । घिर घिर आवन सिहरत सावन तन मन मेरा।

पिता (pita)

पिता के मायने सबके लिए अलग अलग होते हैं किसी के लिए फादर है किसी के लिए पा या डेड़ी है यह अपनी भाषा में पिता समझने के शब्द है ... पर पिता को समझना है तो पिता की भाषा समझो जो केवल व्यक्त होती है अपने बच्चे को देखती चमकदार आँखों से बच्चे को उठाए हाथों के स्पर्श से बीमार पड़ने पर रात रात जागती आँखों के उनींदेपन से बच्चे की परवरिश करने की तन्मयता से बच्चे के भविष्य में अपना भविष्य खोजती बेचैनी से जिसे आम तौर पर बच्चा देख नहीं पाता इसलिए अपनी भाषा में कहता है- मेरे फादर थे, मेरे पा थे मेरे डैडी थे।

गाय

एक शहर की वीरान और साफ सुथरी गली में एक भूखी गाय घूम रही है दोनों ओर घरों के बावजूद वीरानी है क्यूंकि, घर के पुरुष ऑफिस चले गए हैं और बच्चे स्कूल  कामकाजी महिलायें भी निकल गयी हैं घर में रह गए हैं बूढ़े और निकम्मे बूढ़े  सो गए हैं उन्हे इससे मतलब नहीं कि कोई गाय भूखी घूम रही है निकम्मों के पास देने का कोई अधिकार नहीं होता गाय को चाह है किसी बड़े से टुकड़े की चाहे वह टुकड़ा रोटी का हो, दफ्ती का या कागज़ का पॉलिथीन भी चल जाएगी, अगर कुछ न मिले तो । मगर गाय को नहीं मालूम कि, शहर अब साफ सुथरे रहने लगे हैं, गलियाँ बिल्कुल गंदगी रहित हैं कूड़ा नगर पालिका वाले उठा ले जाते हैं बासी खाना भिखारी या घर में काम करें वाले नौकर गाय सोच रही है- कभी इस शहर में, शहर की इस गंदी गली में बेशक पीठ पर कुछ डंडे पड़ते थे पर मुंह मारने को इतना कुछ मिल जाता था कि पेट भर जाता था पीठ पर पड़े डंडों का दर्द नहीं होता था।

काफिर (qaafir)

जागी हुई आँखों से जैसे कोई ख्वाब देखा है, वीराने रेगिस्तानों में प्यासे ने आब देखा है। बेशक नज़र आती हो जमाने को बेहयाई मैंने उन्ही आंखो में शरमों लिहाज देखा है। नशा ए रम चूर करता होगा तुझे जमाने मैंने तो रम के ही अपना राम देखा है। मजहब के नाम पर लड़ते हैं काफिर से मैंने बुर्ज ए खुदा में अपना भगवान देखा है।

कन्या भ्रूण का विलाप (kanya bhroon ka vilaap)

वह उसे गंदे बदबूदार कूड़े में खून से सनी हुई ज़िंदगी पड़ी थी। दूर खड़े ढेरो लोग नाक से कपड़ा सटाये तमाशा देख रहे थे। कुछ कमेंट्स कर रहे थे खास कर औरते- कौन थी वह निर्मोही! जिसने बहा दिया इस प्रकार अपनी कोख के टुकड़े को नर्क में जाएगी वह दुष्ट ! बोल सकती अगर वह अब निष्प्राण हो चुकी ज़िंदगी तो शायद बोलती- उम्र जीने से पहले मृत्यु दंड पा चुकी हूँ मैं भोग रही हूँ, कोख से निकाल फेंक कर कूड़े का नर्क क्या मुझे हक़ नहीं था माँ की कोख में कुछ दिन रहने का क्यों नहीं मंजूर थी मेरी ज़िंदगी जीवांदायिनी माँ को ! क्या इसलिए कि मैं कन्या थी ? या इसलिए कि मैं उसका पाप थी? लेकिन कबसे पाप हो गया कोई जीवन और कोई कन्या?

पत्नी (patni)

पत्नी मैं तुझसे प्रेम करता हूँ। क्यूंकि, तू भी ढाई अक्षर की है और मेरा प्रेम भी। 2- पत्नी पति का पतन होने से बचाती हैं क्यूंकि, वह हमेशा कहती है- पतन-नी । 3- ढाई अक्षर वाली पत्नी ढाई अक्षर के बच्चों-  पुत्र और पुत्री को ढाई अक्षर का जन्म देती हैं। 4- शादी के मंत्रों में शादी करने वाले पंडित में 'अं' का उच्चार होता है इनके जरिये नारी और पुरुष मिलकर एक होते हैं। लेकिन ज्योही इन दोनों के बीच अहंकार का उच्चार होता है एक से दो हो जाते हैं।  5- मैंने उसे सात  फेरे लेकर पत्नी नहीं बनाया था। बल्कि साथ फेरे लेकर सात जन्मों का साथी बनाया था।

अनुभव (anubhav)

दादा जी समझाते थे अनुभव मिलना ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है हम उससे कुछ सीखते हैं ज़िन्दगी आसान हो जाती है शायद दादाजी को अनुभव नहीं हुआ था या उन्होंने मिले अनुभवों से कुछ सीखा न था एक दिन पिताजी उन्हें छोड़ कर चले गए दादाजी अकेले रह गए मैंने देखे थे हमें जाते देख रहे दादाजी के आंसू मुझे याद आ रही है दादाजी की सीख लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ पिताजी से मिले इस अनुभव से मैं क्या सीख लूं?

आकाशदीप (akashdeep)

आसमान से बरसता काला घनघोर अन्धकार आकाशदीप को घेर कर बोला- ऐ मूर्ख! इस वियावान में किसके लिए जल रहा है कितना है तेरा प्रकाश कितनो को है इसकी चाह मेरी गोद में बैठ कर निरर्थक प्रकाश की मृग मरीचिका बना हुआ है जा सोजा . आकाशदीप टिमटिम मुस्कुराया- मैं भटके हुए नाविकों को राह सुझाता हूँ उनको उनका गंतव्य बताता हूँ . ठठा कर हंसा अन्धकार- बड़ा अबोध है तू, क्या तू कभी एक कदम चला है यहाँ से क्या तूने कभी पार किया है यह क्रोधित समुद्र कितना कठिन है, भयानक जलचरों से भरा इसे रात में पार करना तो कठिनतर है जबकि तेरा प्रकाश अत्यधिक मद्धम है स्वयं कुछ दूर तक नहीं चल सकता नाविक को राह क्या दिखा पायेगा बेचारा नाविक समुद्र की क्रोधित लहरों में फंस कर डूबता है और डूबेगा ही  . शांत बना रहा आकाशदीप- मित्र ! मैं नाविक को केवल लक्ष्य दिखाता  हूँ इस लक्ष्य को पाने के लिए बिना विचलित हुए जहाज खेना  मेरा नहीं नाविक का काम है मित्र जो लोग अपना मार्ग जानते पहचानते है ...

राज एक्सप्रेस भोपाल में प्रकाशित मेरी 2 कविताएँ।

राज एक्सप्रेस 20 मई 2012 राज एक्सप्रेस 3 जून 2012

पसीना

रिक्शावाला रिक्शा खींच रहा है सिर से पैर तक पसीने से नहाया है वह नहाया तो मैं भी हूँ बुरी तरह पसीने से क्यूंकि रिक्शावाला ने हुड नहीं लगाया है। मैं डांट लगाता हूँ हुड लगा होता तो मुझे गर्मी न लगती पैसा खर्च कर भी पसीना पसीना न होना पड़ता । रिक्शावाला कुछ नहीं बोलता सुनता रहता है मेरी भुनभुनाहट । गंतव्य तक पहुँच कर मैं दस का नोट देता हूँ रिक्शावाला कहता है- बाबूजी, कितनी गर्मी है दो रुपया और दे दो। मैं चीख उठता हूँ- क्या ग़ज़ब है खुला रिक्शा चला रहा है मुझे पसीना पसीना कर दिया, उस पर दो रुपया ज़्यादा मांग रहा है। मैं आगे बढ़ जाता हूँ रिक्शावाला की बुदबुदाहट कानों में पड़ती है- क्या मेरे पसीने का मोल दो रुपया भी ज़्यादा नहीं।

शुभ रात्री

जब सोने के लिए जाओ तब किसी को शुभरात्री क्यूँ बोलना पता नहीं कितनों ने कुछ खाया भी हो कितनों के पास पत्थर का बिछोना हो कितनों को सुस्त पड़ी हवा में ठंडक अनुभव करनी पड़ती हो जब भूखे पेट भजन नहीं हो सकता पत्थर पर जीवन पैदा नहीं हो सकता सुस्त हवा में दम घुटता हो, तो किसी को नींद कैसे आ सकती है?  तब आखिरी आदमी की रात्री कैसे शुभ हो सकती है? क्या अच्छा नहीं होगा अगर सोने से पहले कुछ देर नींद को दूर भगाते हुए कल कुछ लोगों के लिए दो रोटियों, एक अदद बिछोने और खजूर के पंखे का प्रबंध करने की सोचते हुए सोया जाए।

लोग

आप चलिये, अपनी राह पर आगे बढ़िए देखिये आपके पीछे आने वाले और आपको पुकारने वाले ढेरों लोग दिख जाएंगे। लेकिन भरोसा रखिए इनमे से ज्यादातर आपके अनुगामी नहीं वह आपको इसलिए आवाज़ दे रहे हैं कि आप पलटे लड़खड़ा कर गिरे और आगे नहीं बढ़ पाएँ

रिश्ते

मैं पैदा हुआ माँ को बेटा मिला मुझे माँ मिली। फिर माँ को बेटी हुई वह पत्नी और दो बच्चों की माँ में बंटी   पर उसे दो बच्चे मिले मुझे एक बहन मिली । फिर मैं पढ़ने गया मुझे दोस्त और अध्यापक मिले मेरी शादी हुई मुझे पत्नी मिली उसे पति मिला हमारे बच्चे हुए वह माँ, बेटी, बहू और पत्नी बनी मैं पिता, बेटा, दामाद और पति बना हमारे नए रिश्ते बने हम खुद बंटे नहीं हमने रिश्ते बांटे और रिश्ते के दुख दर्द बांटे लेकिन यह बंटना कहाँ हुआ यह बनाना हुआ, बांटना हुआ रिश्तों और उनके दुख दर्द को।

घड़ी

रुक जाओ ! कहा समय ने  घड़ी की सेकंड, मिनट और घंटे की सुइयां रुक गयीं  समय ने  सेकंड की सुई को डपटा- कितना तेज़ चलती हो  क्या सबसे आगे निकल जाना चाहती हो? कम से कम मिनट के साथ तो चलो  फिर मिनट को डपटा- तुम घंटे से लम्बी हो  इसका मतलब यह नहीं कि  उसे परास्त करने की कोशिश करो  तुम्हारी प्रतिस्पर्द्धा सेकंड से नहीं  फिर घंटे से कहा- ओह, सेकंड एक चक्कर लगा चुकी है  तुम साठवां भाग ही हिले हो  तुम मिनट के साठ डगों को  अपने एक डग  से नापना चाहते हो  इतनी सुस्ती भी ठीक नहीं  थोडा तेज़...

पंछी

सुबह होने को है  एक पंछी जागता है  उसके जगे होने का एहसास कराती  है  उसके पंखों की फड़फड़ाहट  जैसे झटक देना चाहता हो  कल की थकान और सुस्ती . वह आँख खोलता है  घोसले से झाँक कर कुछ देखना चाहता है  धुंधलके के बीच से  फिर दोनों पंजों के बल  खड़ा हो जाता है पेड़ की डाल पर  उसे उड़ना ही होगा  जाना होगा दूर तक  कुछ खाने की खोज में  बरसात से घर बचाने को  तिनकों की तलाश करनी ही होगी  उड़ चलता है वह  जोर की आवाज़ करता  ताकि और साथी भी जग जाएँ  वह भी तलाश कर लें अपने...

खेल

रोशनदान के नीचे बना घोंसला  छोटी चिड़िया झांकती, इधर उधर देखती उड़ कर कहीं जाती, लौट कर आती  चोच में दाना या तिनका लिए  रख कर फिर उड़ जाती या थोडा फुदकती इधर उधर  नन्हा देख रहा है ध्यान से  नन्ही चिड़िया के करतब और खुश हो रहा है  रोशनदान की झिरी से  धूप  का एक छोटा टुकड़ा झांकता है, फिर बैठ जाता है घोंसले पर  चिड़िया चीं चीं करने लगती है  मानो कह रही हो हटो मेरे घोंसले से  टुकड़ा नहीं मानता तो समझौता कर लेती  खेलने लगती है उससे . नन्हा देख रहा है सब  वह भी खेलना चाहता है चिड़िया ...

बेटी

जब बेटी पिता के काम से वापस आने पर उसकी गोद में बैठ जाती है तो बेटी जैसी लगती है। जब वह अपनी नन्ही उंगलियों से हाथ सहलाती है तब स्नेहमयी माँ जैसी लगती है। 2- क्यूँ फिक्र होती है कि बेटी जल्दी बड़ी हो गयी यह  क्यूँ नहीं सोचते कि कितनी जल्दी सहारा बन गयी। 3- बेटी कविता है जिसे पढ़ा भी जा सकता है और गुनगुनाया भी जा सकता है। 4- खुद को बेटी समझने वाली जब माँ बन जाती है तब बेटी को माँ की तरह क्यूँ देखती है बेटी की तरह क्यूँ नहीं देखती जो माँ बनना चाहती थी। 5- भ्रूण में मारी जा रही बेटी ने कहा- तुम कैसी माँ हो तुमने मुझे अपना बचपन समझने के बजाय भ्रूण समझ लिया।

माँ की चिंता

एक माँ  दरवाज़े पर बैठी बाट जोह रही है  अपने बेटे की . ऑफिस से अभी तक वापस नहीं आया है  क्यूँ देर हो गयी ? क्या बात हो गयी ? फ़ोन भी नहीं किया ? दसियों अनर्थ  मस्तिष्क में विचर जाते  चिंता की लकीरें ज्यादा गहरी हो जाती  माँ के माथे पर . माँ बहु से पूछती- लल्ला क्यूँ नहीं आया अभी तक? सास बहु के टीवी सीरियल देखती बहु  व्यंग्य करती- माजी अब वह आपके लल्ला नहीं रहे  बड़े हो गए हैं,   ऑफिस में नौकरी करते है, ज़िम्मेदार है, फंस गए होंगे किसी काम से । बहु टीवी का वोल्यूम कुछ ज्यादा तेज़ कर देती...

गंगा- हाइकु

सूखती गंगा  पाप बढ़ रहे हैं  धोता कौन है . 2- गंगा निकली  शिव की जटाओं से  भटक गयी। 3- गंगा नदी है  माँ का नाम गंगा  दोनों उपेक्षित . 4- गंगा का पानी  बिसलेरी बोतल  बेचते हम . 5- बहती गंगा  कूदी गंगा  नदी में  दोनों ही ख़त्म .

बेचारी भिखारन

मैं बहुत दयालु हूँ  मेरी दयाद्रता के बारे में जानना हो तो  मेरे मोहल्लें में आने वाली  एक भिखारन से पूछो  वह बताएगी कि मैं कितना दयालु हूँ  मैं उसे अपने घर के दरवाज़े पर बुलाता हूँ निकट बिठालता  हूँ   बेशक उस समय मेरी पत्नी घर नहीं होती  इन औरतों का क्या कहिये  बेहद शक्की होती हैं  भिखारिन को ही क्या कह दें, क्या न कह दें  मैं भिखारिन को कुछ खाने को देता हूँ  पानी पिलाता हूँ  कुछ न कुछ ले जाने के लिए भी देता हूँ  कभी नकदी भी  मैं उसका पैनी दृष्टि से निरीक्षण करता हूँ  मुझे उसकी...

गरीब

अरे गरीब आदमी ! दूर ऊंचाई से आती संगीत की धुनों को सुनो यह उन अमीर लोगों के घरों से आ रही हैं जो तुम्हें अपने नीचे देख कर भी शर्म खाते हैं मजबूरन ही सही, फिर भी तुम्हें रहने देते हैं तुम एक बदनुमा दाग हो उनकी ऐश्वर्यशाली इमारत के लिए तुम्हारे भूखे  बच्चों का रूदन उन्हे ऊंची आवाज़ में संगीत बजाने को विवश करता है । इसके बावजूद, वह कुछ बासी टुकड़े नीचे फेंक देते हैं ताकि तुम और तुम्हारे बच्चे उठा कर खा लें भूखे न रहे और बिलख कर उनका संगीत बेसुरा न करे। तुम इस संगीत को सुनो फेंके भोजन को चखो यह कर्णप्रिय संगीत महादेव की देन है जिनकी तुम सपरिवार एक दिन व्रत रख कर पूजा करते हो ताकि, इस एक दिन तुम्हारे बच्चे रोटी न मांगे। तुम इसे सुनते भी हो तुम इसे सुनते हुए अपना दुख भी तब  भूल जाते हो जब तुम्हारे बच्चे तेज़ धुन पर, बेतरतीब नाचने लगते हैं खुश हो कर शोर मचाने लगाते हैं तभी यकायक संगीत रुक जाता है एक कर्कश आवाज़ गूँजती है- साले नंगे-भूखे गाना भी नहीं सुनने देते न खुद सुख से रहते हैं, न हमे रहने देते हैं। ऐ गरीब ! ...

ऐ पिता !!!

ऐ पिता ! तेरी बाँहें इतनी मज़बूत क्यों हैं कि जब कोई बच्चा हवा में उछाला जाता है तो वह खिलखिलाता हुआ उन्ही बाँहों में वापस आना चाहता है. तेरी भुजाएं इतनी आरामदेह क्यों होती हैं कि कोई बच्चा इनमे झूलता हुआ सो जाना चाहता है ऐ पिता !! तेरी उंगलियाँ पकड़ कर वह लड़खड़ाता हुआ चलना सीखता है तेरी उंगलियाँ पकड़ कर बड़ा होना चाहता है इतना बड़ा कि तेरे कंधे तक पहुँच सके. मगर ऐ पिता !!! इस बच्चे की बाँहें इतनी कमज़ोर क्यों होती हैं भुजाएं इतनी कष्टप्रद क्यों होती हैं कि कोई पिता इनमें समां नहीं पाता, आराम नहीं पा सकता क्यों बेटे की उंगली यह बताने के लिए नहीं उठ पातीं कि वह मेरे पिता हैं. क्यों ! क्यों !! क्यों !!! ऐ पिता, यह बात तो बेटा उस समय भी समझ नहीं पाता जब वह अपने बेटे को हवा में उछाल रहा होता है भुजाओं में समेटे सुला रहा होता है उंगलिया पकड़ कर चलना सिखा रहा होता है. ऐ पिता ! ऐसा क्यों होता है यह पिता ???

दादी

''माँ तुम तो राजू के लिए कुछ ज्यादा प्रोटेक्टिव हो. वह अब इतना बच्चा भी नहीं रहा कि हर समय देखना पड़े. बच्चा है. खेलेगा तो गिरेगा भी, चोट भी लगेगी. तुम इतना फ़िक्र क्यों करती हो?'' पिताजी दादी से कह रहे थे. मुझे बहुत अच्छा लगा. दादी हर समय टोकती रहती है. यह न करो, वह न करो. तो करो क्या. साथ के बच्चे मज़ाक उड़ाते हैं 'क्या हाल हैं यह न करो बच्चे के'. मैं खिसिया जाता. दादी से मना करता पर  वह कहाँ सुनने वाली थीं. दादी मुझे फूटी आँख न सुहाती. सच कहूँ मुझे उनका झुर्रियों भरा चेहरा बिलकुल अच्छा नहीं लगता. वास्तविकता तो यह थी कि मैं खुद के बुड्ढे हो जाने के ख्याल से घबरा जाता था. शीशे में चेहरा देखता, झुर्रियों की कल्पना करता तो सिहर उठता. क्यों जीते हैं लोग इतना कि चेहरे पर समय की मार नज़र आने लगती है. दादी का चेहरा छोटा था. झुर्रियां होने के कारण मुझे बड़ा अजीब सा लगता. जैसे किसी अख़बार के कागज़ को बुरी तरह से मसल कर फेंक दिया गया हो. इस चिढ का एक बड़ा कारण यह भी था कि दादी हर दम मेरे पीछे लगीं रहती. वैसे वह मेरी पैदायश से मेरा ख्याल रखती रही हैं. माँ नौकरी करती थी...

प्रार्थना

बेटे ने कहा- माँ ! तू मरना मत मैं तेरे बिना कैसे जिऊँगा. माँ बीमार थी डॉक्टर ने जवाब दे दिया था. माँ की जीने की जिजीविषा थी या बेटे का विलाप कि माँ ठीक हो गयी. माँ ने कहा- बेटे की प्रार्थना मुझे लग गयी मैं बच गयी. माँ बेटे का बहुत ख्याल रखती चाहती बेटा ज़ल्दी से बड़ा हो जाये, अपने पैरों पर खड़ा हो जाये ताकि उसे माँ के सहारे की ज़रुरत न पड़े. बेटा नौकरी करने लगा माँ ने शादी कर दी सुन्दर बहु लायी सुशील भी लग रही थी माँ को माँ और खुद को उसकी बेटी मानती थोड़े दिन ऐसे ही गुज़रे फिर बेटी बहु बन गयी यहाँ तक कि बेटा भी बहु का पति बन गया एक दिन माँ और बहु साथ बीमार पड़ीं बेटे को लगा माँ बीमार है पर पत्नी बहुत ज्यादा बीमार है माँ ने कहा भी- बेटा बहुत तकलीफ हो रही है लगता है बचूंगी नहीं बेटे ने कहा- नहीं माँ! ऐसा मत कहो. तुम ठीक हो, मैं अभी तुम्हारी बहु को दिखला कर आता हूँ फिर तुम्हे अस्पताल ले जाता हूँ. बेटा पत्नी को डॉक्टर के पास लेकर चला गया माँ समझ गयी बेटा अब बड़ा हो गया है माँ के बिना रह सकता है. अब माँ को बेटे की प्रार्थना की ज़रुरत नहीं थी.

धूल

धूल पर हम चाहे जितनी नाक भौंह सिकोड़ें यह अजर, अमर और सर्वत्र है इसका अपना महत्व है घमंडी धूल में मिल जाता है शरीर को धूल में ही मिल जाना है यह ज़मीन से उठती है हवा के साथ उड़ कर आसमान छू लेती है हमारे शरीर पर पैर से सर तक लिपट जाती है धूल का घमंड उसे आसमान से ज़मीन पर बिखेर देता है सर- माथे पर जमी धूल को हम सर माथे नहीं लगाते पैर की धूल के साथ नाली में बहा देते हैं.

मैं लड़की

भाई मैं एक लड़की हूँ मैं आपको भाई नहीं कहना चाहती पर मुझे कहना पड़ेगा अन्यथा मेरे सम्बोधन के अनर्थ निकाले जाएंगे आप किसी औरत को किसी नीयत, किसी मक़सद से भाभी कहो कोई अनर्थ नहीं खोजेगा लेकिन मेरा किसी को जीजा कहना कितने ही अनर्थ को जन्म देगा क्यूंकि लड़की यानि औरत  हर मायने में ग़रीब होती है।

बच्चे की सुबह

बच्चा सुबह ज़ल्दी जाग जाता है वह डर जाता है बाहर से अन्दर झाँक रहा है अँधेरा बच्चा कस कर ऑंखें भींच लेता है अपनी मुंदी पलकों के अँधेरे से बाहर के अँधेरे को झुठलाने की कोशिश करता है. ऐसे ही लेटा रहता है देर तक थोड़ी देर में सुबह का उजाला खिडकियों की झिरी से दरवाज़े की सरांध से अन्दर झांकता है फिर बच्चे को देख कर अन्दर पसर जाता है, उसके चारों ओर बाहर चिड़ियाँ दाना चुग रही हैं एक दूसरे को बुला रही हैं चूँ चूँ पुकार करके उनका कलरव, पंखों का फड़फड़ाना बच्चे के कानों में दस्तक देता है बच्चा आँख खोल देता है, आ हा ! सुबह हो गयी ! वह हाथ पाँव फेंकता हुआ मानो माँ को जगा रहा है- उठो माँ, सुबह हो गयी।

मालती

मेरे हाथों में मालती का ख़त है. उसने लिखा है- तुम हमेशा मेरे दिल में ही थे राजेश!         #        #          #         #        #      # हम दोनों कॉलेज के दिनों में मिले थे. को-एजुकेशन वाला कॉलेज था. मालती मेरे ही क्लास में ही पढ़ती थी. बेहद खूबसूरत थी और उतनी ही चंचल भी. अपनी सहेलियों के साथ दिन भर हंसी मज़ाक करना उसका शगल था. लेकिन, थी वह पढ़ने में तेज़. क्लास टेस्ट में भी वह हम लड़कों से अव्वल आती। . वह मेरी और कब आकृष्ट हुई पता नहीं. पर मैं पहले ही दिन से उस पर फ़िदा हो गया था।  यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि कॉलेज का हर लड़का उस पर फ़िदा था. कुछ कम फ़िदा थे तो कुछ ज्यादा और कुछ तो बहुत ज्यादा. जान देने वाले भी थे एक दो. ऐसे विरल जीवों में से एक मैं भी था. लेकिन वक़्त आने पर यह स्पीसीज जान देने में पीछे हट जाती है. हाँ तो मैं बता रहा था ...