''माँ तुम तो राजू के लिए कुछ ज्यादा प्रोटेक्टिव हो. वह अब इतना बच्चा भी नहीं रहा कि हर समय देखना पड़े. बच्चा है. खेलेगा तो गिरेगा भी, चोट भी लगेगी. तुम इतना फ़िक्र क्यों करती हो?'' पिताजी दादी से कह रहे थे.
मुझे बहुत अच्छा लगा. दादी हर समय टोकती रहती है. यह न करो, वह न करो. तो करो क्या. साथ के बच्चे मज़ाक उड़ाते हैं 'क्या हाल हैं यह न करो बच्चे के'. मैं खिसिया जाता. दादी से मना करता पर वह कहाँ सुनने वाली थीं.
दादी मुझे फूटी आँख न सुहाती. सच कहूँ मुझे उनका झुर्रियों भरा चेहरा बिलकुल अच्छा नहीं लगता. वास्तविकता तो यह थी कि मैं खुद के बुड्ढे हो जाने के ख्याल से घबरा जाता था. शीशे में चेहरा देखता, झुर्रियों की कल्पना करता तो सिहर उठता. क्यों जीते हैं लोग इतना कि चेहरे पर समय की मार नज़र आने लगती है.
दादी का चेहरा छोटा था. झुर्रियां होने के कारण मुझे बड़ा अजीब सा लगता. जैसे किसी अख़बार के कागज़ को बुरी तरह से मसल कर फेंक दिया गया हो.
इस चिढ का एक बड़ा कारण यह भी था कि दादी हर दम मेरे पीछे लगीं रहती. वैसे वह मेरी पैदायश से मेरा ख्याल रखती रही हैं. माँ नौकरी करती थीं. मैं पैदा हुआ तो पिता ने अपनी माँ यानि मेरी दादी को अपने पास बुला लिया. पिताजी के पिताजी यानि मेरे दादाजी काफी पहले गुज़र गए थे. माँ गाँव में घर में अकेले रहती थी. वह कहती रहती कि बेटा अपने पास कुछ दिन बुला ले, यहाँ अकेले मन नहीं लगता. तेरा और बहु का चेहरा देख कर जी लूंगी. पर पिताजी ने कभी नहीं बुलाया. आज- कल और कल-आज कह कर टालते रहे. माँ भी कहाँ चाहती थीं कि उनकी सास साथ रहे. वैसे माँ पिताजी जब चाहते घर आते थे. पिक्चर देखते, बाहर खाते. खूब खरीदारी करते. माँ के आने पर यह सब बंद हो जाता. बूढ़े लोग टोका टाकी बहुत करते हैं, यह माँ मुझसे काफी पहले से जानती थीं. इसके बावजूद उन्होंने पता नहीं क्यूँ दादी को घर आने दिया. खुद उन्होंने ही पिताजी से कहा कि माँ आ जायेंगी तो बहुत मदद हो जाएगी.
ऐसा हुआ भी. दादी आयी, माँ पहले की तरह छड़ी जैसी हो गयीं. उनका काम मुझे दूध पिलाने तक सीमित था. उसके बाद सब दादी करतीं. मुझे नहलाना धुलाना, टट्टी साफ़ करना, कपडे बदलना, मुझे बाँहों में डुलाते हुए सुलाना, सब कुछ दादी करतीं. माँ इत्मीनान से हो गयी थीं. केवल ऑफिस जाती और घर आकर खाना खा कर इधर उधर के काम में जुट जाती. वह बेहद खुश थी दादी के आने से. क्यूंकि उनके आने से माँ की जो आज़ादी कथित तौर पर छिन सकती थी, वह नहीं छिनी थी. दादी मुझ में ही खो गयीं थीं. कहते हैं न कि मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है. दादी को अपने बेटे का बेटा ज्यादा प्यारा था. माँ का तो जैसा सारा भार कम हो गया था.
लेकिन मेरी मुसीबत थी. जब तक मैं चल फिर नहीं सकता था, तब तक दादी की उंगलिया या बढे हाथ भले लगे. लेकिन अब मैं चल फिर सकता था. दौड़ भी सकता था. मुझे किसी सहारे की ज़रुरत नहीं थी. यह तो इंसानी फितरत है कि जब तक डगमगाता है, सहारा ढूढता है. जैसे ही संतुलन बना लेता है, सहारे की तरफ से मुंह फेर लेता है. मैं भी तो इंसान की औलाद था.
हाँ तो बात दादी की हो रही थी. दादी को गठिया था. बैठी बैठी कराहती रहती थीं. सब उनकी कराह को सुन कर अनसुना कर देते. मैं भी. कभी दादी से तफरी करने का मन होता तो मैं कहता- क्या पैर दबा दूं. दादी ढेरों आशीर्वाद देते हुए कहती- तू खूब जिए. अपने बाप से बड़ा आदमी बने. मुझे यह आशीर्वाद समझ नहीं आता. पिता से बड़ा बनने में कौन सा फायदा है. पिताजी पाल ही रहे हैं. मैं उनसे बड़ा हो जाऊंगा तो मुझे उन्हें पालना पड़ेगा. दादी को भी पालना पड़ेगा. कौन उठाएगा इतना भार. यह सोच कर मैं दादी के पास आता. दादी टांगे आगे कर देती. मैं उनके पाँव में चढ़ जाता. पहले धीरे धीरे दबाता. फिर, यकायक जोर से दबा देता. दादी दर्द से बिलबिला जातीं. मैंने देखा कि कभी उनकी आँखों में आंसू भी छलक आते. पर वह जोर से नहीं चिल्लाती. मैं सोचता, पिताजी से डरती हैं कि डांटेंगे कि बेकार बैठी रहती हो. पैर में दर्द होता है तो चिल्लाती हो. मैं इंसान की औलाद इतना भी नहीं समझ पाता था कि वह मुझे डांट पड़ने के डर से नहीं चिल्लाती थीं. मैं उन्हें दर्द पहुंचा कर हँसता हुआ भाग जाता. लेकिन अगले दिन या थोड़ी देर बाद दादी फिर कराहते हुए मिलतीं.
दादी की सबसे ख़राब आदत यह थी कि जैसे ही मैं खेलने के लिए घर से बाहर निकलता, वह धीरे धीरे चलते हुए, बाहर निकल आतीं और चबूतरे पर बैठ जातीं. लगातार मुझे देखती रहतीं. मैं एक पल उनकी आँखों से ओझल हो जाता तो चिल्लाने लगतीं- अरे राजू, तू कहाँ गया. साथ के बच्चे चिल्लाने लगते- अरे राजू, तू कहाँ चला गया. मैं शर्मिंदा होता हुआ दादी के सामने आ जाता. दादी मेरे सर पर हाथ फेरतीं. मैं सर झटक कर फिर खेलने में लग जाता. मैं दौड़ता तो उसके साथ ही दादी की जुबां भी दौड़ने लगती- धीरे बेटा धीरे. गिर जायेगा. चोट लग जायेगी. घुटने रगड़ खा गए तो बहुत दर्द होगा. धीरे खेल धीरे. ऐ किसना बेटा, धीरे खेलो. राजू गिर जायेगा. किसना दादी के सामने कुछ न बोलता. पर अन्य बच्चों के सामने कहता- भैया धीरे खेलो राजू गिर जायेगा. फिर व्यंग्य मारता हुआ कहता- हम लोग तो अपने माँ बाप की औलाद हैं ही नहीं. मैं कुछ ज्यादा खिसिया जाता.
मेरे खेलने में दादी के इस ज्यादा हस्तक्षेप ने मुझे दादी का छोटा मोटा दुश्मन बना दिया. अब मैं उन्हें सताने की जुगत में रहने लगा. बच्चे दादी के पीछे जाकर उनके धोती खींच देते. कभी उनकी लकड़ी उठा कर फेंक देते. उन्हें मिल कर चिढाते- दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ. पोपला मुंह बंद करो न, अब न सताओ.
एक दिन माँ ने मुझे दादी को परेशान करने के लिए बच्चों को उकसाते हुए देख लिया. उन्होंने मेरे कान पकड़ कर एक चपत लगायी- अब ऐसा किया तो तेरे पापा से शिकायत कर मार लगवाऊंगी.
मुझे कतई विश्वास नहीं था कि कोई माँ किसी बुड्ढी के लिए अपने बेटे को मार लगवायेगी. वह भी उस औरत के लिए, जिसे उन्होंने अपनी ज्यादा ज़िन्दगी पसंद ही नहीं किया, पास नहीं फटकने दिया.
इसका नतीजा यह हुआ कि मैं दादी का कुछ ज्यादा बड़ा दुश्मन बन गया. बच्चों के लिए जब कोई दुश्मन बन जाता है, जो वह उससे डरने लगते हैं. लेकिन यदि वह घर का हो दादी जैसा, तो उसका इन्तेकाम बढ़ जाता हैं. मैं भी हर समय दादी से इन्तेकाम लेने की फिक्र में रहने लगा.
एक दिन मैंने साथ के बच्चों को सिखाया कि मुझे दादी के कारण बहुत डांट पड़ती है. उनसे बदला लेना है. तय यह पाया गया कि जब दादी खडी हों तो उनको धक्का दे दिया जाये. उन्हें चोट लगेगी तो वह हमारा पीछा नहीं कर पाएंगी, घर में ही दुबकी रहेंगी. मैंने दोस्तों से कहा कि मैं दादी की और दादी दादी कहता हुआ भागूंगा. जैसे ही मैं उनके पास पहुंचूंगा, तुम लोग मुझे उन पर धक्का दे देना और भाग जाना. सभी तैयार हो गए.
दादी से बदला लेने का सुनहरा दिन आज ही आ गया. दादी की कमर में दर्द कुछ ज्यादा था. हवा भी ठंडी चल रही थी. इसलिए वह अन्दर जाने के लिए खडी हुई . मैंने बच्चों को इशारा किया. बच्चों ने हां में सर हिला दिया. मैं दादी दादी कहता दादी की तरफ भागा. बच्चे मेरे पीछे थे. जैसे ही मैं पास पहुंचा, मुझे लगा कि अब वह मुझे पीछे से धक्का मारेंगे, मैं दादी को धकेल दूंगा. तभी दादी ने पीछे पलट कर देखा. लेकिन यह क्या बच्चे भाग गए थे. लेकिन मैं दादी को धक्का देने के ख्याल में इतना खोया हुआ था कि खुद को दादी पर गिरा देने में नहीं हिचकिचाया. दादी एक चीख के साथ जमीन पर गिर पड़ी. तभी मेरी निगाह घर के दरवाज़े पर पड़ी. माँ खडी हुई मुझे घूर रही थीं. डर के कारण मैं रोता हुआ भाग निकला.
शाम को अन्धेरा होने पर घर पहुंचा. पिताजी आ गए थे. घर का माहौल काफी गंभीर था. पिताजी शायद तभी आये थे. माँ उनसे मेरी शिकायत कर रही थीं. पिताजी ने मुझे घूर कर देखा. वह चीखे- राजू यहाँ आओ.
मैं कांपता हुआ उनके सामने जा खड़ा हुआ. पिताजी क्रोध से काँप रहे थे. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा. उनकी हथेली मेरे गालों पर पड़ने के लिए हवा में थी कि दादी आ गयीं. वह कराहते हुए बोली- रुक जा बेटा. उसे ना मार. इसमें उसकी इतनी गलती नहीं. वह बड़ा हो गया है. मैं बेकार ही उसको हर बात पर टोकती रहती थी. साथी बच्चे चिढाते थे. इसलिए उसने ऐसा किया. बच्चा है. बड़ा हो कर ही समझेगा कि उसने क्या गलती की थी.
दादी कराहते हुए जमीन पर बैठ गयीं थीं.
माँ और पिताजी दादी की और दौड़ पड़े. दोनों ने उठा कर कमरे में चारपायी पर बैठाया. दादी बेहाल थी. मुझे पहली बार बेहद दुःख हुआ. अगर दादी मना नहीं करती तो शायद मुझे बहुत मार पड़ती. लेकिन दादी ही तो कह रही थीं कि मैं बड़ा हो गया हूँ, साथी बच्चों के चिढाने का मुझे बुरा लगता है. मगर क्या मैं इतना बड़ा नहीं हुआ हूँ कि समझ सकूं कि दादी जो मेरी इतनी फ़िक्र करती हैं तो मुझे प्यार करने के कारण करती हैं. उन्हें फिक्र है. वह मेरी सुरक्षा के ख्याल से हर समय साथ रहती हैं. जबकि मैं उन्हें अपना दुश्मन समझता रहता हूँ.
मेरी आँखों में अनायास आसूं आ गए. मैं दादी से रोता हुआ लिपट गया. मुझे रोता देख कर दादी मेरे आंसू पोछने लगीं. वह बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेर रही थीं.
लेकिन मैं एक बात नहीं समझ पाया हूँ कि मेरे आंसू पोंछ रही दादी अपने आंसू क्यों नहीं रोक पा रही थीं.