मैं बहुत दयालु हूँ
मेरी दयाद्रता के बारे में जानना हो तो
मेरे मोहल्लें में आने वाली
एक भिखारन से पूछो
वह बताएगी कि मैं कितना दयालु हूँ
मैं उसे अपने घर के दरवाज़े पर बुलाता हूँ
निकट बिठालता हूँ
बेशक उस समय मेरी पत्नी घर नहीं होती
इन औरतों का क्या कहिये
बेहद शक्की होती हैं
भिखारिन को ही क्या कह दें, क्या न कह दें
मैं भिखारिन को कुछ खाने को देता हूँ
पानी पिलाता हूँ
कुछ न कुछ ले जाने के लिए भी देता हूँ
कभी नकदी भी
मैं उसका पैनी दृष्टि से निरीक्षण करता हूँ
मुझे उसकी हालत देखी नहीं जाती
पूरे वस्त्र भी नहीं है उसके पास
जब वह ज़मीन पर रखा खाना
झुक कर उठा रही होती है
तब उसकी छातिया साफ़ नज़र आती हैं
मैं सोचता हूँ
कितनी पुष्ट छातियाँ हैं
इन पर तो किसी की भी बुरी नज़र पड़ सकती है
मैं उससे कहता भी हूँ-
बदन ढाक कर रखा करो
ज़माना सही नहीं है
वह सहम जाती, खुद में ही सिमट जाती
अपनी छातियों को छुपाने के लिए
मैं खुश होता
कोई तो है उस गरीब भिखारन का
जो उसकी लाज के बारे में सोचता है
मैं उसकी पीठ पर हाथ रख कर हलके से सहलाता हूँ
वह सहमी सी जाती है
मैं जानता हूँ कि फिर भी वह कल आएगी
वह सहमी सी जाती है
मैं जानता हूँ कि फिर भी वह कल आएगी
उसे इस प्रकार सांत्वना देते हुए मुझे हार्दिक संतोष होता है
क्यूँ, दयालू हूँ न मैं !!!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें