सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

ऊन उलझी

जाड़ों  में
एक औरत
स्वेटर बुनती है ।
फंदा डालना है
फंदा उतारना है
अधूरे सपनों को
इनसे संवारना है
हरेक स्वेटर में
ज़िंदगी गुनती है।
जाड़ा आता है
जाड़ा चला जाता है
जिसने कुछ ओढा हो
उसे यह भाता है।
गुनगुनी धूप से
भूख कहाँ रुकती है।
जिंदगी की स्वेटर में
डिजाइन कहाँ
उलझी हुई ऊन से
सब हैं यहाँ
ऐसी ऊन से माँ
सपने बुनती है ।

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