सोमवार, 4 जून 2012

आकाशदीप (akashdeep)


आसमान से बरसता
काला घनघोर अन्धकार
आकाशदीप को घेर कर बोला-
ऐ मूर्ख!
इस वियावान में
किसके लिए जल रहा है
कितना है तेरा प्रकाश
कितनो को है इसकी चाह
मेरी गोद में बैठ कर निरर्थक
प्रकाश की मृग मरीचिका बना हुआ है
जा सोजा .
आकाशदीप टिमटिम मुस्कुराया-
मैं भटके हुए नाविकों को राह सुझाता हूँ
उनको उनका गंतव्य बताता हूँ .
ठठा कर हंसा अन्धकार-
बड़ा अबोध है तू,
क्या तू कभी एक कदम चला है यहाँ से
क्या तूने कभी पार किया है यह क्रोधित समुद्र
कितना कठिन है, भयानक जलचरों से भरा
इसे रात में पार करना तो कठिनतर है
जबकि तेरा प्रकाश अत्यधिक मद्धम है
स्वयं कुछ दूर तक नहीं चल सकता
नाविक को राह क्या दिखा पायेगा
बेचारा नाविक समुद्र की क्रोधित लहरों में फंस कर
डूबता है और डूबेगा ही  .
शांत बना रहा आकाशदीप-
मित्र ! मैं नाविक को केवल लक्ष्य दिखाता  हूँ
इस लक्ष्य को पाने के लिए
बिना विचलित हुए जहाज खेना 
मेरा नहीं नाविक का काम है
मित्र जो लोग अपना मार्ग जानते पहचानते है
वह पथभ्रष्ट नहीं होते, लहरों से टकराकर लुढ़कते नहीं
उनको उनका लक्ष्य देखने और पहचानने  के लिए
मेरा अस्तित्व ही पर्याप्त है।
आकाशदीप का प्रकाश धूमिल पड़ने लगा
उससे पहले अन्धकार मद्धम पड़ कर लुप्त हो गया
क्यूंकि सूर्य निकल आया था।

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