शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

अकबर के सामने अनारकली का अपहरण, द्वारा सलीम !



जलील सुब्हानी अकबर ने हठ न छोड़ा।  सलीम से मोहब्बत करने के अपराध में, अनारकली को फिर पकड़ मंगवाया। उसे सलीम से मोहब्बत करने के अपराध और जलील सुब्हानी की बात न मानने के दंडस्वरुप दिवार में चुनवाये जाने का दंड दे दिया।





अब अकबर अनारकली का हाथ पकड़ कर उसे कारागार की ओर लेकर चल पड़ा। तब  साथ चलती अनारकली ने अकबर से कहा - हुजूर, आपको मेरा हाथ पकड़ कर बड़ा मजा आ रहा होगा। आप मन ही मन मुझसे सेक्स करना चाहते होंगे।  कही आपकी यह आग और न भड़क जाए, इसलिए मैं आपको सलीम से सम्बन्धित कहानी सुनाती हूँ। 






जलील सुब्हानी, आपसे अधिक कौन जानता होगा कि मेरा घर कहाँ पर है।  मेरी माँ आपके घर चाकरी करती थी। उसकी पहुँच आपकी बेगमों के कमरों तक थी और आपकी उनके कमरों तक। 






ऐसे में माँ का और आपका मिलना स्वाभाविक भी था। एक दिन ऐसा ही हुआ। उस दिन माँ, अस्तव्यस्त सी पोछा लगा रही थी कि तभी आप कमरे में घुस आये।  वहां आपकी बेगम तो बाथरूम थी, किन्तु,अस्तव्यस्त माँ सामने जरूर थी। 






आपकी लम्पट निगाहों ने उनकी जवानी के हर कोण, गोलाई और मोटाई को नाप लिया। आप कामुक हो गए।  आप मन ही मन गा रहे थे - सलवार के नीचे क्या है ?





किन्तु, हरम में अम्मीजान की सलवार के नीचे झांकना संभव नहीं था। कोई भी बेगम ख़ास तौर पर रुकैया या जोधा आ गई तो बड़ा ग़दर खडा हो सकता था।





अनारकली का इस प्रकार से उनका कच्चा चिटठा खोलना, अकबर को नागवार गुजरा। इससे उनकी कामुकता में थोड़ी कमी आई। अनारकली की कलाई से पकड़ ढीली हुई। 





अनारकली ने आगे सुनाया - आप मौका ढूढने के लिए मेरी अम्मी का पीछा करने लगे। आप मौके की तलाश में रोज उनके पीछे आने लगे। 






एक दिन माँ ने आपको पीछा करते देख लिया।  वह आपके इरादे भांप गई थे।  आप उनके साथ मुताह करते तो कोई बात  नहीं थी। क्योंकि, दासियाँ इसी लिए होती है। किन्तु, दासी पुत्री नहीं।





इसलिए माँ ने मुझे समझाया कि लम्पट सुब्हानी मेरा पीछा करता है।  कभी वह मुझे घर के अंदर दबोच सकता है। इसलिए, जैसे ही वह नामुराद मेरे पीछे आता दिखे तो तुम कमरे में छुप जाना। सामने न पड़ना। मैं  ऐसा ही करती। 





हालाँकि, इस तरकीब से मैं तो बचती रही।  किन्तु, अपनी इस आदत से आप बुरी तरह फंस गए।  आपका चिश्ती दरगाह की कृपा से जन्मा लौंडा सलीम आपसे कम लम्पट नहीं था।  वह आपकी नीयत भांप गया था। इसलिए वह आपका पीछा करने लगा।





वह समझ नहीं पा रहा था कि जब दासी रोज घर आती है, तो आप उसका पीछा क्यों करते है। इसलिए एक दिन जब आप बीमार पड़ने के कारण माँ के पीछे नहीं आये, उस दिन भी वह माँ का पीछा करता रहा। 





एक दिन उसने मुझे देख लिया।  मेरे हुस्न और जवानी ने उसे मोमबत्ती की तरह पिघला दिया।  वह तुरंत मेरे घर आ घुसा।  उसने मुझ से कहा- मेरे अब्बू लम्पट है।  वह हू ला ला और मुता के शौक़ीन है।  वह कभी बीच तुम्हारे साथ मुता कर सकते है। इसलिए तुम मुझे अपना शरीर सौंप दो। मैं अकबर से इसकी रखवाली करूँगा।





मैं मरती क्या करती! सलीम ने मुझे बिस्तर पर गिरा दिया और खूब हू ला ला किया। 





इतना सुनते ही अकबर का पारा आस्मान छूने लगा। अनारकली का हाथ उसकी गिरफ्त से छूट गया।  वह जोर से खींचा - मरदूद सलीम तू कहाँ है?





सलीम सामने से दौड़ता आ रहा था।  अनारकली ने सलीम को देखा। वह सरपट उसकी ओर भाग ली।  सलीम अनारकली को लेकर एक बार फिर घोड़े पर सवार हो गया। 

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

कॉलोनी में स्वतंत्रता दिवस !



कॉलोनी में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर झंडारोहण होने वाला था।  मंच सजा हुआ था। एक डंडे पर डोरी से शीर्ष से कम ऊंचाई पर बंधा हुआ राष्ट्रीय ध्वज, स्वयं के खुलने की प्रतीक्षा कर रहा था। 





कॉलोनी के गणमान्य और कम-मान्य लोग आने लगे थे ।  सामने लगी  कुर्सियों पर  बैठते जा रहे थे।  अपने कार्यालय में सदैव विलम्ब से पहुँचने वाले महानुभाव भी समय से पहले पहुँच जाना चाहते थे। किसी ने  नाश्ता भी नहीं किया था।  यह भुखमरी देश-भक्ति या महंगाई का परिणाम नहीं, बल्कि समारोह के पश्चात् मिलने वाले जलपान के लिए थी।





घर में कौन बनाये! नाश्ते के लिए चंदा दिया है।  उसे खाना है।  घर  से खा कर आएंगे तो पैसे बर्बाद हो जायेंगे। इतना चंदा बेकार जाएगा।




 

चंदे की पूरी वसूली हो जाए, इसलिए घर में बच्चों और पत्नी को निर्देश दे कर आये थे कि समय से पूर्व पहुँच जाये। यह नहीं कि इधर उधर खेलने लगे या  पड़ोसिनों से बकबक करने लगे।  नाश्ता ख़त्म हो जायेगा।





इस निर्देश का पालन हो भी रहा था।  बच्चे मंच के पास ही धमाचौकड़ी मचाये हुए थे।  महिलाएं कॉलोनी की महिलाओं के साथ किटी पार्टी और बढती महंगाई पर बातें कर रही थी।  बहुत महंगाई है।





लोग आते जा रहे थे।  आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि नाश्ते की टेबल पर अवश्य जाती।  देखते कि  जलपान में क्या क्या है !  कुछ तो टेबल पर जा कर निकट दर्शन करते। मेज के  पीछे खड़े व्यक्ति से क्या क्या है की पूछताछ करते। और खुश खुश अंदर आ जाते।





 समारोह स्थल पर वातावरण देश-भक्तिमय था। देशभक्तिपूर्ण फिल्मी गाने सप्तम स्वर में बज रहे थे।  एआर रहमान से लेकर मोहम्मद रफ़ी तक, सभी एक घंटे से अपनी आवाज थका रहे थे। बी प्राक ने तेरी मिटटी में मिल जावां की चीख पुकार मचा रखी थी।  अपनी देश भक्ति का परिचय देने के लिए लोग अपने अपने सर झुमा रहे थे।  वातावरण देशभक्तिमय हो चूका था। 





किन्तु, अभी तक मुख्य  अतिथि नहीं आये थे। लोगों की दृष्टि मुख्य गेट पर।  फिर नाश्ते पर।  उसके बाद मंच पर टिक जाती।  कुछ लोग टिप्पणी कर रहे थे - यह इस दिन हमेशा देर से आते हैं।  एक दिन भी समय का ध्यान नहीं रखते।  नाश्ता ठंडा हो रहा है। यद्यपि हो नहीं रहा था। बर्तन के नीचे हलकी आंच जल रही थी। किन्तु नाश्ता गटकने की जल्दी उन्हें बेचैन किये हुई थी। 





तभी सुगबुगाहट हुई।  लो जी मुख्य अतिथि की गाडी गेट अंदर आ रही है।





अब वह उतर रहे है। मोहल्ले के कुछ उनसे कम गणमान्य व्यक्ति अपने से एक डंडा अधिक गणमान्य मुख्य अतिथि महोदय का स्वागत कर रहे थे। थोड़ी देर जलपान के मोह को परे रखते हुए, उन्हें घेर का चला गया। मंच तक लाया गया। इसलिए नहीं कि वह सादर लाये जा रहे थे, बल्कि इस लिए कि बीच में रुक कर कहीं  किसी से बातचीत न करने लगे।  नाश्ते को देर हो जाएगी। 





मुख्य अतिथि मंच पर पहुंचे।  लोगों ने खड़े हो कर उनका जोरदार स्वागत किया।  कुछ ने तालियां भी बजाई।  मुख्य अतिथि प्रसन्न भये।  अपने मोटे होंठो को कान तक खीच कर मुस्कान बिखेरी। 





सब बैठ गए। किन्तु, आगे वालों ने यह ध्यान रखा कि पहले मुख्य अतिथि बैठ जाए। जबकि पीछे बैठे लोग, पहले ही बैठ चुके थे। मुख्य अतिथि ने कहा - बैठ जाएँ। बैठ जाए। यद्यपि  उस समय तक पीछे से लेकर आगे तक लोग अपनी तशरीफ़ कुर्सियों पर रख चुके थे।





मंच संचालक ने  उद्घोष किया- अब स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम का  प्रारम्भ होता है। जोर से बोलिये- भारत माता की जय।  सभी ने, भारत माँ की जय का घोष किया।  पता नहीं उन्होंने किया या नहीं, जो किसी को माँ नहीं मानते।




 

मुख्य अतिथि उठे।  कुछ दूसरे उनसे दो डंडा कम गणमान्य भी उन्हें घेर कर खड़े हो गए।   मुख्य अतिथि ने डोरी खीची।  थोड़ी मेहनत के बाद ध्वज  खुल गया। ध्वज को डोरी से खींच कर शीर्ष पर पहुंचा कर डोरी बाँध दी गई। तालियां बजी। 





जनगणमन  गाया गया।  सब ने गाया।  जिन्हे आता था उन्होने तीव्र स्वर में गाया।  जो नहीं जानते थे. उन्होंने केवल  होंठ हिला कर पार्श्व गायन का लाभ उठाया। राष्ट्र गान समाप्त हुआ। लोगों ने राहत की सांस ली।  भारत माता की जय का फिर घोष हुआ।





सब बैठ गए। किन्तु, मुख्य अतिथि खड़े रहे।  वह चलते हुए मंच पर सजे डायस के माइक्रोफोन पर खड़े हो गए।  पहले ही टेस्ट किए जा चुके माइक को उंगली  से ठकठका कर चेक किया।  आवाज आ रही थी। मुंह माइक के चुम्बन की मुद्रा में ले गए। 





 

मुख्य अतिथि हेलो जेंटलमेन एंड वीमेन कह कर शुरू हो गए।  उनका अंग्रेजों से आजादी के अवसर पर दिया गया भाषण अंग्रेजो द्वारा छोड़ी गई आंग्ल भाषा में था। उन्होंने देश पर संभावित खतरे से लोगों को आगाह किया। स्विट्ज़रलैंड से आई शर्ट पैंट पहने अतिथि ने स्वदेशी के गुण गाये।  लोग  ऊबने लगे थे। नाश्ता..नाश्ता  का शोर शुरू होने लगा।





तभी बारिश प्रारम्भ हो गई। देश को संभावित संकट से सचेत करने वाले मुख्य अतिथि, शायद  बारिश से सचेत नहीं थे।  वह भीगने लगे।  उन्होने झट से भाषण कट शार्ट किया।  जयहिंद बोला। 






तब तक देश की स्वत्नत्रता के लिए मर मिटने का गीत सुन कर झूमने वाले लोग बारिश घबरा कर शेड  ढूंढने लगे।  नाश्ता बड़े शेड के नीचे ही लगाया गया था ।  लोग वहां पहुँच गए। बारिश से बचने से अधिक जलपान चरने के लिए।





स्वतंत्रता दिवस समारोह  बारिश की भेंट चढ़ चुका था। 

सोमवार, 28 जुलाई 2025

इकन्नी !



रात काफी  गहरी हो चली थी।  मैं पैदल ही घर की ओर चल  पड़ा।  यद्यपि, मेरी जेब में घर तक जाने  के लिए पर्याप्त पैसा था।  किन्तु, मैं पैदल ही क्यों चल पड़ा था ! रिक्शा क्यों नहीं पकड़ा मैंने?


मैं उस समय १२-१४ साल का रहा होऊंगा। आठवी कक्षा में पढ़ रहा था।  सरकारी स्कूल में दाखिला था। इसलिए  फीस कम थी।  किन्तु, अन्य अभाव तो थे ही। कभी खाने पीने की चीज़ का । कभी जूतों कपड़ों का। 


पिताजी को पेंशन मिलती थी। उससे सात  जनों के परिवार का गुजारा कैसे होता! अभाव तो बना ही रहता था।  किसी न किसी वस्तु की।  यह अभाव मुझे बहुत सालता था।  मैं किसी न किसी प्रकार से पैसे बचाने या बनाने की जुगत में रहता।


यह आदत मेरी स्कूल में भी थी।  माँ, मुझे इंटरवल में लैया चना खाने के लिए  इकन्नी  दिया करती थी। वह मेरी हाफ निक्कर की जेब में पड़ी रहती।  इंटरवल होता।  मैं खोमचे के पास आता।  तमाम बच्चे  खोमचे को घेरे अपनी लैया चने की पुड़िया का इंतज़ार करते।  पुड़िया मिलते ही खुशी खुशी खाने लगते। 


मैं उन्हें खड़ा देखता रहता।  मन ललचाता।  सोचता एक पुड़िया ले कर खा ही लूँ। किन्तु, मैं खोमचे तक जाने की हिम्मत ही नहीं कर पाता।  इकन्नी, मेरी जेब में हाथ की  उँगलियों के बीच गोल गोल घूमती रहती।  यह सिलसिला तब तक चलता, जब तक इंटरवल ख़त्म होने की घंटी न बज जाती।  मैं चैन की सांस लेता क्लास की ओऱ बढ़ जाता। अब मैं कैसे खा सकता था ! 


मैं आज भी, जेब में एक रुपये का सिक्का डाले चला जा रहा था।  सीतापुर बस स्टैंड से कब डालीगंज पार हो गया पता ही नहीं चला। क्यों? है न सोचने में बड़ी शक्ति होती है!  समय और दूरी का पता ही नहीं चलता।  कितना कदम, कितना मील,  कितना समय, कितने दिन हफ्ते और महीने साल गुजर जाते है!


गोमती पर बना डालीगंज का पुराना पुल पार हो गया।  अब मेरा दिल सहम गया था।  दिल का सहमना उस आसन्न भय के कारण था, जो कुछ कदम चलने के बाद, कुछ मिनटों में आना था। 


उस समय, लखनऊ का यह क्षेत्र इतना भरापूरा नहीं हुआ करता था।  पुल के बाद, दोनों तरफ खेतों की शृंखला थी। इन खेतों में अधिकतर सब्जियां उगाई जाती थी।  यह ताजा सब्जियां, उखाड़ कर  किसानों द्वारा रकाबगंज सब्जी मंडी में बेचीं जाती थी।  हम लोगों को अच्छी ताजा सब्जी सस्ते में मिल जाया करती थी।


किन्तु, इन खेतों के कारण रात बड़ी  डरावनी हो जाया करती थी। इतनी रात को कोई इधर से नहीं गुजरता था।  लोग  कहते थे कि यहाँ रात में चोर डकैत छुपे रहते हैं और  लूटपाट करते है।  किन्तु, मैं तो इस डरावनी रात में भी गुजर रहा था!


होता यह था कि हमारे घर में एक सज्जन आया करते थे। सीतापुर में उनकी फ्लोर मिल थी।  उसके काम के सिलसिले में उन्हें लखनऊ आना होता था।  वह जब भी लखनऊ आते, हमारे घर जरूर आते। देर शाम,वह बस पकड़ने निकलते तो मुझे ले लेते।  बस में बैठने के बाद वह मुझे रिक्शा के लिए एक रूपया थमा देते। कभी फिल्म देखने के बहाने भी पैसे दे देते थे । मैं फिल्म देखने का बड़ा शौक़ीन था।  वह इस बात को अच्छी तरह से जानते थे।  कभी फिल्म देखने साथ ले भी जाते।


खेतों के बीच से गुजरती सड़क पर मैं तेज कदमों से चला जा रहा था।  डाकुओं का डर भी था और एक रुपया छिन जाने का भी।  मार देंगे इसका भय उतना नहीं था।  एक छोटे बच्चे कोई कौन डकैत मारेगा !


सहसा मैं एक कुत्ता ऊंची आवाज में रोया।  उसकी आवाज बंद होती, इससे पहले ही सिटी स्टेशन से चलने की तैयारी कर रही ट्रेन के इंजन ने सीटी बजाई। इन दोनों आवाजों ने मेरे शरीर में भय का संचार कर दिया।  मैं लगभग काँप उठा।  तेज तेज कदमों से चलने लगा। थोड़ा चैन तब आया, जब सिटी स्टेशन पर पहुँच गया।  अब घर नजदीक था। मैं खुश था कि मैंने एक रुपया बचा लिया था।


इंटरवल ख़त्म हो जाता तो मैं क्लास में पढ़ने लगता।  पूरा समय सोचता रहता कि आज मैंने इकन्नी बचा ली।  माँ को दे दूंगा।  घर खर्च में काम आएंगी।


घर पहुँच कर मैंने बस्ता किनारे रखा। माँ ने मुझे देखा तो पूछा- आज पढ़ाई कैसी हुई?


मैंने जवाब दिया - ठीक। 


फिर मैंने निक्कर की जेब में हाथ डाला।  इकन्नी निकाल कर माँ के हाथ में रख दी।


माँ ने हथेली में इकन्नी देखी। माँ  बिलख पड़ी - खरूंड़ा इकन्नी भी नहीं खर्च कर पाया तू।



मैं चुप रहा ।


रात घर पहुंचा।  माँ मेरी प्रतीक्षा कर रही थी।  मैंने उनके पास जा कर एक रुपये का सिक्का उन्हें थमा दिया।  माँ  बोली - रिक्शा क्यों नहीं कर लिया बेटा? 


मैं इस बार भी चुप रहा। 

सोमवार, 14 जुलाई 2025

कही कोई किसी के बच्चे के लिए ऐसे कहता है !




कभी अतीत के पृष्ठ पलटो तो कुछ खट्टी, कुछ मीठी यादें कौंध जाती है। जीवन है।  समाज है।  हेलमेल। आना जाना। सम्बन्ध है। क्रिया प्रतिक्रिया होती रहती है।  इस प्रक्रिया में कुछ ऐसे अनुभव हो ही जाते है।





हम ऎसी कुछ स्मृतियाँ याद रखते हैं। कुछ बिसार दिया जाना चाहते  हैं। कुछ ऐसे अनुभव होते हैं, जिन्हे पुनः पुनः स्मरण करना बड़ा भला लगता है।  कुछ को विस्मृत कर देने का मन करता है।






किन्तु, इस अनुभव को क्या कहें ? क्या इन्हे भुला दिया जाए या याद रखा जाये ! यह मेरा निजी अनुभव या जिया हुआ क्षण नहीं है।इसे मुझे बताया गया। मेरी माँ ने बताया।  अपना अनुभव।  जिसे मैंने अनुभव किया।






मैं अपने इस अनुभव को एक कथा के रूप में आपके समक्ष रखता हूँ। कदाचित इस प्रकार से आप सुनना या पढ़ना चाहेंगे। स्मृतियों या विस्मृतियों का इतना आकर्षण नहीं, जितना कथा का होता है।






कथा एक माँ और उसके बच्चे की है।






बच्चा कोई बड़ा नहीं। अबोध शिशु।  कठिनाई से कुछ महीने का होगा।  माँ के आँचल में स्वयं को सुरक्षित अनुभव करने वाला। पूरा पूरा दिन, माँ के साथ खेलता, किलकारी भरता और रोता -खाता !






हुआ यह कि उस अबोध बालक के मूत्र थैली के निकट एक लाल दाना सा उभरा।  माँ ने नहलाते समय उसे साफ़ किया।  फिर कुछ लगा दिया।





कुछ दिन ठीक।  अचानक फिर उभरा।  इसे के बाद, एक के बाद एक कई दाने उभरते चले गए। वह लाल दाने फैलते गए।  दर्द करने वाले बन गए। बालक दर्द से बिलखता।  माँ उससे अधिक बिलख जाती।





घरेलु ईलाज से कोई लाभ न होता देख कर, माँ उसे डॉक्टर के पास ले गई। डॉक्टर ने जांच की।  पाया कि यह एक्जिमा था।  डॉक्टर ने दवा लिख दी।  किन्तु, दवा से कोई लाभ नहीं हुआ।  एक्जिमा पूरे शरीर में फैलता चला गया। एक समय ऐसा आया कि अबोध शिशु का पूरा बदन सड़ गया।  माँ उसको हाथ में उठती तो खाल हाथ में आ जाती।  माँ बच्चे की इस दशा पर रो पड़ती। बच्चे का रुदन माँ को एक पल भी चैन न लेने देता।





पैसे कम थे।  निजी चिकित्सक को दिखाना संभव नहीं हो पा रहा था। उस पर दवा से लाभ भी नहीं हो रहा था। इसलिए, माँ ने बच्चे को मेडिकल कॉलेज दिखाने का निर्णय लिया। कुछ शुभचिंतकों ने बताया भी था कि मेडिकल कॉलेज में स्किन डिपार्टमेंट बहुत अच्छा है। सटीक ईलाज हो जायेगा। कोई पैसा भी नहीं देना पड़ेगा।  सब निःशुल्क।






मेडिकल कॉलेज घर से दूर था।  पैसे की कमी थी। किन्तु, माँ को इसकी चिंता नहीं थी।  उसे अपने बच्चे को किसी भी प्रकार से ठीक करना ही था।  इसलिए वह उसे हाथों के बीच रख कर मेडिकल कॉलेज निकल पड़ी।






जैसा कि बताया कि पैसे की कमी थी। घर से मेडिकल कॉलेज पांच किलोमीटर से अधिक दूर था। रिक्शा पर ले जाना खर्चीला था। किन्तु, माँ को इससे कोई सरोकार नहीं था। उसे तो बस मेडिकल कॉलेज जाना ही थी।





माँ ने बच्चे को एक बारीक कपडे से ढका और पैदल ही निकल पड़ी मेडिकल कॉलेज की ओर। कड़ी धुप थी। सड़क तप रही थी। माँ पसीना पसीना हो रही थी।  किन्तु, उसे किंचित भी कष्ट अनुभव नहीं हो रहा था। पर वह उस समय बिलख उठती, जब बच्चा धुप की गर्मी से बेचैन हो कर रोने लगता। माँ उसे सीने से लगा कर कहती - बेटा बस पहुँच ही रहे है।





अस्पताल में लम्बी लाइन थी।  डॉक्टर के कमरे के बाहर लम्बी लाइन लगी थी।  माँ परचा बनवा कर लम्बी लाइन में खडी हो गई।





कुछ औरतों ने देखा।  पूछा - किसे दिखाने आई हो ?





अपने बेटे को - माँ ने संक्षिप्त उत्तर दिया।





औरतों में उत्सुकता बढ़ी।  एक गोद के बच्चे को एक्जिमा !!!





 देखें ज़रा।  माँ ने कपड़ा हटा दिया।





औरतें चीख उठी।  बच्चे के सड़े हुए चेहरे के बीच केवल दो काली काली आँखे जीवंत दिखाई दे रही थी।  अत्यंत वीभत्स दृश्य था।





औरते स्तब्ध। बिलख उठी।  बच्चा रो पड़ा।





औरतें हाथ जोड़े, आकाश की ओर देख कर कह रही थी - हाय हाय ऎसी औलाद देने से अच्छा होता यदि न ही देता।





माँ ने क्रोधित  दृष्टि से उन्हें भस्म कर देना चाहा।  औरतें सहम कर हट गई।




                               X                   X              X

कहानी अब ख़त्म।





इसके आगे क्या! बच्चा आज भी जीवित है।  माँ की उम्र से बड़ा हो गया है। किन्तु, माँ स्वर्गवासी हो चुकी है।





बच्चे ने माँ के दुःख को उनके मुंह से सुना है।  एक बार नही बार बार सुना है। माँ का ऐसा दुखद  अनुभव! इसे अनुभव कर ही वह बिलख उठता है।  सहम जाता है। उद्विग्न हो जाता है।





कही कोई किसी के बच्चे के लिए ऐसे कहता है !

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

१ जुलाई १९५३

१ जुलाई १९५३। भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न सन्दर्भ। किसी के लिए यह मात्र एक तिथि माह या सन। संभव है कि कई लोग इस तिथि की महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर दृष्टिपात करना चाहें। करते भी है।





किन्तु मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है। इस लिए कि सरकारी दस्तावेजों के अनुसार इस तिथि को मेरा जन्म हुआ था। इसी तिथि के अनुसार मुझे सेवा निवृत होना था। ३० जून २०१३ को। क्या मैं सेवानिवृत हुआयह किसी और समय पर हल करने वाला प्रश्न है।




मैं, सरकारी सेवा पुस्तिका का अनुसार, १ जुलाई १९५३ को जन्मा था।  यद्यपि, यह पूर्ण सत्य नहीं था। कारण यह कि हम लोगों के समय में घर आकर पढ़ाने वाले मास्टर ही विद्यालय में प्रवेश दिलाते थे।  उन्होंने ही, ७ जुलाई को स्कूल खुलने की तिथि के आधार पर ही मेरी जन्मतिथि १ जुलाई १९५३ लिखवा दी थी।  कहते हैं की कि उस समय बच्चों के स्कूल में भर्ती होने की आयु ५ या छह साल से कम नहीं होनी चाहिए थी। इसलिए १ जुलाई १९५३ मेरी जन्मतिथि मान ली गई। किसी जन्मकुंडली की आवश्यकता नहीं पड़ी।




इस जन्मतिथि की यात्रा, स्कूल की टीसी से निकल कर, कॉलेज, यूनिवर्सिटी और फिर प्रतियोगिता परीक्षा से होती हुई, सरकारी सेवा अभिलेखों में पसर गई। मैं प्रत्येक १ जुलाई को इसी तिथि पर बड़ा होता चला गया। और एक दिन सेवानिवृत भी होना था। अर्थात ३० जून १९१३ को।




किन्तु, झोल यहाँ है।




एक दिन मैं पुराने कागज पत्र टटोल रहा था।  पुराने कागजों को देखते हुए, मुझे एक कागज के टुकड़े में पिता की लिखाई दिखाई पड़ी। उत्सुकतावश मैंने उसे उठा लिया।




मैंने उसमे लिखा पढ़ा तो मैं चौंक गया। अरे, मेरी जन्मतिथि तो गलत दर्ज हुई है। पिता की लिखाई के अनुसार मेरा जन्म १ जुलाई १९५३ नहीं, १७ जुलाई १९५१ को हुआ था। अर्थात मैं आज ७२ साल का पूरा हो कर ७३वें में नहीं, ७४ साल पूरा हो कर, ७५वे प्रवेश करने में १५ दिन पूर्व की तिथि में था।





मैंने आगे पढ़ा तो मालूम हुआ कि १७ जुलाई १९५१ को बुद्धवार के दिन मैं जन्मा था। मैंने इसका फैक्ट चेक किया। इसके अनुसार, १७ जुलाई १९५१ को, बुद्धवार नहीं, मंगलवार था।  अर्थात पिताजी गलत थे। उन्होंने १७ जुलाई १९५१ को दिन बुद्धवार होना बताया था। १७ जुलाई १९५१ की तिथि याद रखने वाले पिता जी दिन के लिखने में असफल साबित हो रहे थे।





अब मैंने अपनी सरकारी जन्मतिथि १ जुलाई १९५३ के दिन का फैक्टचेक किया। इस तारीख़ को बुद्धवार था। मैंने सोचा। सोचा क्या तय ही कर लिया कि पिताजी ने तिथि १७ और सन गलत लिखा।  जुलाई उनको ठीक याद रहा। किन्तु, दिन भी गलत लिख गए।  




पिताजी ने तीन तीन गलतियां की थी। तिथि सन और दिन की।  जबकि, मेरी सरकारी अभिलेखों में लिखी १ जुलाई १९५३ की तिथि मंगलवार होने के कारण सही थी।





इस प्रकार से, मेरी जन्मतिथि के मामले में मास्टर, सरकारी दस्तावेज और मैं सही साबित हुए। पिता गलत।  

शुक्रवार, 20 जून 2025

शब्द चित्र!

 शब्द चित्र 

कैसे बनते हैं ? 

एकाधिक शब्दों और वाक्यों का सम्मिलन 

प्रभावशाली ढंग से !

तो 

इसे कोई भी बना सकता है 

इतना सरल है 

शब्द चित्र का निर्माण ! 

नहीं, कदापि नहीं 

शब्द चित्र इतने सरलीकृत नहीं 

यदि अनुभव और संवेदना का मिश्रण नहीं !

मंगलवार, 17 जून 2025

कुत्ता था !


एक आदमी और कुत्ता 

चले जा रहे थे - साथ साथ 

कुत्ते के गले मे पट्टा था 

उसकी जंजीर आदमी के हाथ में थी 

आदमी नौकर था 

कुत्ते को टहलाने लाया था 

दोनों ही सोच रहे थे 

कुत्ता सोच रहा है 

यह आदमी कितना अच्छा है 

मुझे टहलाता है 

मेरी टट्टी साफ करता है 

मुझे नहलाता धुलाता भी है 

उसी समय आदमी ने सोचा -

इस कुत्ते के कारण मुझे काम मिला है 

अच्छा पैसा मिलता है 

इसे  मेरी और मुझे इसकी जरुरत है 

इसलिए 

मालिक चाहे मर जाए 

किन्तु यह कुत्ता न मरे 

आदमी की सोच  कुत्ते तक पहुँच गई थी शायद !

इसलिए

कुत्ता घर पहुँच कर मालिक से  चिपट गया 

नौकर की तरफ मुड़ कर नहीं देखा 

कुत्ता स्वामिभक्त था !

रविवार, 8 जून 2025

कबूतर उड़!

 




कबूतर

प्रेम का कबूतर 

कबूतरी

प्रेम की प्रेमिका 

दोनों दुनिया से अलग 

प्रेम प्यार मे डूबे रहते 

एक दिन

कबूतरी ने अंडा दिया 

प्रेम और अपने ऑयरन के अंश को 

वह सेने लगी 

दिन भर बैठी रहती

इस से ऊब ने लगा कबूतर 

उड़ चला

प्रेम की खोज में। 

गुरुवार, 5 जून 2025

पेड और सूख गया!

धूप सर चढ़ आई थी

 

भूख लगने लगी थी

 

उसने खाने की पोटली निकाली

 

पानी की तलाश में इधर उधर दृष्टि डाली

 

न पानी था, न छाया थी

 

एक सूखा पेड़ खड़ा था उदास

 

वह पेड़ की लंबी छाया के आश्रय मे बैठ गया

 

सूखा पेड़ खुश हो गया

 

भूखा खाता रहा

 

खाना खा कर

 

फिर पानी की तलाश मे इधर इधर देखा

 

निराश हो कर

 

ढेर सा थूक इकट्ठा कर पी गया

 

उदास पेड़ और सूख गया।

मंगलवार, 3 जून 2025

पिता, पिता नहीं होता!

पिता

 

पीटता है 

 

इसलिए पिता नहीं होता।

 

पिता

 

पालता है!

 

तो इससे क्या होता है।

 

पिता

 

तुम्हारे प्रत्येक सुख दुख सहता है!

 

इससे क्या होता है?

 

यह प्रत्येक पिता करता है।

 

तो,

 

पिता केवल पिता होता है!

रविवार, 25 मई 2025

कर्ज़ से छुटकारा




19 जून 2023। यह वह दिन है, जिस दिन मैं एक कर्ज से उबर गया।




यह वह कर्ज था, जो मुझ पर जबरन लादा गया था। इस कर्ज को न मैंने माँगा, न कभी स्वीकार किया। फिर भी यह कर्ज 40 साल तक मुझ पर लदा रहा। इसकी वजह से मैं अपमानित किया गया। मुझे नकारा बताया गया। यह केवल इसलिए किया गया ताकि मेरे परिवार पर एहसान लादा जा सके।





मेरी पत्नी को 100 रुपये के स्टाम्प पेपर पर लिख कर दिया गया कि मकान तुम्हारे पति के नाम कर दिया गया है। यह काग़ज़ के टुकड़े से अधिक नहीं था। पर कानूनी दांव पेंच नावाकिफ पत्नी समझती रही कि मकान हमे दे दिया गया। वह बहुत खुश और इत्मीनान से थी। उसने, यदि मुझे काग़ज़ का टुकड़ा दिखा दिया गया होता तो मैं उसे हकीकत बता देता। पर उसे किसी को दिखाना नहीं, ऐसे समझाया गया, जैसे गुप्त दान कर दिया गया हो। सगे रिश्तों का यह छल असहनीय था। इसे नहीं किया जाना चाहिए था। एक मासूम की भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए था। 




पर अच्छा है कि यह कर्ज 40 साल बाद ही सही, उतर गया। अब मैं आत्मनिर्भर हो कर, सुख से मर सकता हूँ। पर दुःख है कि भाई- बहन का सगा रिश्ता तार तार हो गया। अफ़सोस, यह नहीं होना चाहिए था। 

बुधवार, 21 मई 2025

बूँद !


एक बूँद ऊपर उठी

 

उठती चली गई  

 

दूसरी बूँद भी उठी और उठती चली गई

 

उठती चली गई

 

इसके बाद...एक के बाद एक

 

ढेरो बूँदें ऊपर उठती चली गई

 

आसमान की गोद में मिली

 

नृत्य करने लगी -

 

हम उड़ रही है

 

एकत्र हो कर दूजे का हाथ थामे

 

आसमान विजित करने  

 

बूंदे मिलती गई

 

एक दूजे में सिमटती गई

 

घनी होती गई

 

और अब ...

 

अपने ही बोझ से

 

नीचे गिरने लगी

 

फिर  बिखरने लगी

 

अपने मूल स्वरुप में आकर

 

पृथ्वी पर बरसने लगी

 

और बन गई तालाब

 

आसमान छूने जा रही बूंदों को

 

अब प्रतीक्षा है

 

सूर्य की तपिश की

 

ताकि बन सके एक  बूँद  . 

....रोया न था !



आसमान घिरने लगा

 

बदल एकत्र होने लगे

 

मिल कर साथ घने होते चले गए

 

नीचे होते गए...और नीचे

 

आसमान से दूर

 

गिरते चले गए

 

यकायक पृथ्वी से कुछ दूर

 

बरसने लगे

 

आसमान साफ होने लगा

 

आसमान सोचने लगा

 

मुझसे दूर जा कर

 

बदल क्यों रोने लगे ?

 

वह समझ न सका !

 

वह  कभी रोया न था !

गुरुवार, 15 मई 2025

तीन हाइकू : भाव

 ग्रीष्म की धूप 

श्रमिक का पसीना

परास्त नहीं  !

२-

नभ में सूर्य 

यात्री संग श्रमिक

विश्राम नहीं। 


३- 

नभ में मेघ 

गली में खेलें बच्चे 

प्रसन्न मन । 


रविवार, 4 मई 2025

प्रकृति और जीवन : पाँच हाइकु

कक्ष में पक्षी 
अतिथि आये है 
अद्भुत स्वर ।

२ 
मेघ गर्जना 
मुन्ना रो पड़ता है 
जल वृष्टि ही ।

३ 
सूर्य ऊर्जा से 
विचलित पथिक 
छाँह कहाँ है !

४ 
प्रातः से साँय
घर लौटते लोग 
यही जीवन ।

प्राण निकले 
रो रहे परिजन
अब प्रारंभ ।

शुक्रवार, 2 मई 2025

दूध का उबाल !


 अपने से बिछुड़ने का दर्द 

दूध से पूछो 

जैसे जैसे पानी साथ छोड़ता है 

दूध उबाल खाने लगता है। 

रविवार, 27 अप्रैल 2025

सत्य

 सत्य 

भागता नहीं है 

हम उससे भागते है 

वह एक है 

अनंत है 

अकेला है

हमें उसका साथ देना है 

और साथ लेना भी है 

किन्तु आप विचलित हो रहे है 

भाग रहे हैं 

अपने सत्य से ।

अंततः अश्व: तीन हाइकु

अश्व की शक्ति 

मनुष्य का मस्तिष्क 

घर मे बंधा। 

अश्व की गति 

मनुष्य से स्पर्द्धा मे 

 कोसों दूर है ।

अश्व की निष्ठा 

मानव का विश्वास 

अश्व विजयी। 

मेरा शत्रु!

 मैंने 

अपने शत्रुओं से पूछा? 

मेरा सबसे प्रमुख शत्रु कौन है ? 

वह बोला- तू स्वयं! 

जो आस्तीन नहीं मोड़ता कभी !

शनिवार, 1 मार्च 2025

प्रकृति के हाइकु

 प्रातः काल मे 

सुगंधित पवन 

सब जागते। 

पशु पक्षी मैं 

प्रकृति की छांव 

सब प्रसन्न ।

मार्ग मे ओस 

पथिक चल रहा 

थकान कहाँ। 

सूर्य उनींदे 

पक्षी जाग रहे है 

प्रातः हो रही ।

चंद्रमा अस्त 

सूर्योदय की बेला 

कुछ क्षण मे ।



गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

तनाव

जब तनाव अधिक होता है न 

तब गाता हूँ 

रोता नहीं 

पड़ोसी बोलते हैं- 

गा रहा है 

मस्ती में है 

तनाव उनको होता है 

मुझे तनाव नहीं होता। 

पाती नहीं आती !

अब चिट्ठी नहीं आती 

किसी स्व-जन की कुशल पाती नहीं आती 

उन की कठिनाइयों, अभाव से अवगत नहीं हो पाता 

अब मेल आती है 

जिनसे मेल नहीं उनकी!

फोन आते हैं 

जिन्हें कभी देखा नहीं 

स्वर से सूरत का मिलान नहीं हो पाता 

अपरिचित स्वर सुनाई देते है 

जिसमें विनम्रता होती है, अपनत्व नहीं 

अब अपने कहाँ 

हमने तो इन्हें अतीत मे भेज दिया 

अब उनकी भी मेल ही आती है 

पाती नहीं आती ।

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

मेरे विचार!

मैं चुप रहा 

क्या मैं डर गया 

चुप्पी का डर। 



2-

सब चल रहे थे 

मैं भी चला 

चलता चला गया  

पता नहीं कहाँ निकल आया 

वापसी कैसे करूँ   !



3-

किसी ने कहा था 

कुछ ने सुना था 

सभी सुनने वालों ने 

निकाले मतलब 

अपने मतलब के ।


4- 

समझ लो 

कोई नहीं बोल रहा 

कोई बोलेगा भी नहीं 

क्या सब गूंगे है ? 

नहीं 

सब बहरे हैं ।


5- 

अरे वाह ! 

चारो तरफ सन्नाटा है 

कितनी शांति है! 

नहीं, 

कुछ देर पहले बम फटा था ।

अकबर के सामने अनारकली का अपहरण, द्वारा सलीम !

जलील सुब्हानी अकबर ने हठ न छोड़ा।  सलीम से मोहब्बत करने के अपराध में, अनारकली को फिर पकड़ मंगवाया। उसे सलीम से मोहब्बत करने के अपराध और जलील स...