रात काफी गहरी हो चली थी। मैं पैदल ही घर की ओर चल पड़ा। यद्यपि, मेरी जेब में घर तक जाने के लिए पर्याप्त पैसा था। किन्तु, मैं पैदल ही क्यों चल पड़ा था ! रिक्शा क्यों नहीं पकड़ा मैंने?
मैं उस समय १२-१४ साल का रहा होऊंगा। आठवी कक्षा में पढ़ रहा था। सरकारी स्कूल में दाखिला था। इसलिए फीस कम थी। किन्तु, अन्य अभाव तो थे ही। कभी खाने पीने की चीज़ का । कभी जूतों कपड़ों का।
पिताजी को पेंशन मिलती थी। उससे सात जनों के परिवार का गुजारा कैसे होता! अभाव तो बना ही रहता था। किसी न किसी वस्तु की। यह अभाव मुझे बहुत सालता था। मैं किसी न किसी प्रकार से पैसे बचाने या बनाने की जुगत में रहता।
यह आदत मेरी स्कूल में भी थी। माँ, मुझे इंटरवल में लैया चना खाने के लिए इकन्नी दिया करती थी। वह मेरी हाफ निक्कर की जेब में पड़ी रहती। इंटरवल होता। मैं खोमचे के पास आता। तमाम बच्चे खोमचे को घेरे अपनी लैया चने की पुड़िया का इंतज़ार करते। पुड़िया मिलते ही खुशी खुशी खाने लगते।
मैं उन्हें खड़ा देखता रहता। मन ललचाता। सोचता एक पुड़िया ले कर खा ही लूँ। किन्तु, मैं खोमचे तक जाने की हिम्मत ही नहीं कर पाता। इकन्नी, मेरी जेब में हाथ की उँगलियों के बीच गोल गोल घूमती रहती। यह सिलसिला तब तक चलता, जब तक इंटरवल ख़त्म होने की घंटी न बज जाती। मैं चैन की सांस लेता क्लास की ओऱ बढ़ जाता। अब मैं कैसे खा सकता था !
मैं आज भी, जेब में एक रुपये का सिक्का डाले चला जा रहा था। सीतापुर बस स्टैंड से कब डालीगंज पार हो गया पता ही नहीं चला। क्यों? है न सोचने में बड़ी शक्ति होती है! समय और दूरी का पता ही नहीं चलता। कितना कदम, कितना मील, कितना समय, कितने दिन हफ्ते और महीने साल गुजर जाते है!
गोमती पर बना डालीगंज का पुराना पुल पार हो गया। अब मेरा दिल सहम गया था। दिल का सहमना उस आसन्न भय के कारण था, जो कुछ कदम चलने के बाद, कुछ मिनटों में आना था।
उस समय, लखनऊ का यह क्षेत्र इतना भरापूरा नहीं हुआ करता था। पुल के बाद, दोनों तरफ खेतों की शृंखला थी। इन खेतों में अधिकतर सब्जियां उगाई जाती थी। यह ताजा सब्जियां, उखाड़ कर किसानों द्वारा रकाबगंज सब्जी मंडी में बेचीं जाती थी। हम लोगों को अच्छी ताजा सब्जी सस्ते में मिल जाया करती थी।
किन्तु, इन खेतों के कारण रात बड़ी डरावनी हो जाया करती थी। इतनी रात को कोई इधर से नहीं गुजरता था। लोग कहते थे कि यहाँ रात में चोर डकैत छुपे रहते हैं और लूटपाट करते है। किन्तु, मैं तो इस डरावनी रात में भी गुजर रहा था!
होता यह था कि हमारे घर में एक सज्जन आया करते थे। सीतापुर में उनकी फ्लोर मिल थी। उसके काम के सिलसिले में उन्हें लखनऊ आना होता था। वह जब भी लखनऊ आते, हमारे घर जरूर आते। देर शाम,वह बस पकड़ने निकलते तो मुझे ले लेते। बस में बैठने के बाद वह मुझे रिक्शा के लिए एक रूपया थमा देते। कभी फिल्म देखने के बहाने भी पैसे दे देते थे । मैं फिल्म देखने का बड़ा शौक़ीन था। वह इस बात को अच्छी तरह से जानते थे। कभी फिल्म देखने साथ ले भी जाते।
खेतों के बीच से गुजरती सड़क पर मैं तेज कदमों से चला जा रहा था। डाकुओं का डर भी था और एक रुपया छिन जाने का भी। मार देंगे इसका भय उतना नहीं था। एक छोटे बच्चे कोई कौन डकैत मारेगा !
सहसा मैं एक कुत्ता ऊंची आवाज में रोया। उसकी आवाज बंद होती, इससे पहले ही सिटी स्टेशन से चलने की तैयारी कर रही ट्रेन के इंजन ने सीटी बजाई। इन दोनों आवाजों ने मेरे शरीर में भय का संचार कर दिया। मैं लगभग काँप उठा। तेज तेज कदमों से चलने लगा। थोड़ा चैन तब आया, जब सिटी स्टेशन पर पहुँच गया। अब घर नजदीक था। मैं खुश था कि मैंने एक रुपया बचा लिया था।
इंटरवल ख़त्म हो जाता तो मैं क्लास में पढ़ने लगता। पूरा समय सोचता रहता कि आज मैंने इकन्नी बचा ली। माँ को दे दूंगा। घर खर्च में काम आएंगी।
घर पहुँच कर मैंने बस्ता किनारे रखा। माँ ने मुझे देखा तो पूछा- आज पढ़ाई कैसी हुई?
मैंने जवाब दिया - ठीक।
फिर मैंने निक्कर की जेब में हाथ डाला। इकन्नी निकाल कर माँ के हाथ में रख दी।
माँ ने हथेली में इकन्नी देखी। माँ बिलख पड़ी - खरूंड़ा इकन्नी भी नहीं खर्च कर पाया तू।
मैं चुप रहा ।
रात घर पहुंचा। माँ मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। मैंने उनके पास जा कर एक रुपये का सिक्का उन्हें थमा दिया। माँ बोली - रिक्शा क्यों नहीं कर लिया बेटा?
मैं इस बार भी चुप रहा।
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