सोमवार, 28 नवंबर 2011

हारने का दर्द लँगड़ाना

यह कविता मैंने अभिव्यक्ति समूह की वाल पर ११ नवम्बर २०११ को लिखी थी. आज ब्लॉग में अंकित कर रहा हूँ.

हारने का दर्द
उसे क्या मालूम
जो कभी
जीता ही नहीं.

यह कविता मैंने १९ नवम्बर को लिखी थी

कभी कभी
लंगड़ाना भी
अच्छा होता है.
आप इच्छाओं की दौड़ में
भाग नहीं ले पाते.


शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

पाँच बचपन

जानते हो
बच्चा इस बेफिक्री से
हंस कैसे लेता है?
क्यूंकि,
वह जानता नहीं कि
रोना क्या होता है.
क्यूंकि
रोना तो उसके लिए
माँ को पास बुलाने का
उसका वात्सल्य पाने का
एक मासूम बहाना है.
जबकि
हम रोने को रोते हैं
रोने की तरह
कुछ न पाने और
कुछ खो देने के कारण .
यही तो फर्क है
माँ और मान पाने के लिए
रोने का !
     (२)
एक दिन मैंने
ज़िंदगी से मनो-विनोद किया 
उस दिन मैं 
ऑफिस से जल्दी आ गया था। 
मेरा नन्हा 
सोया न था। 
      (३)
नन्हें से
मैंने पूछा-
तुम मुझे कितना प्यार करते हो?
उसने अपने दोनों हाथ फैला दिये
दूसरे पल
सारी दुनिया का प्यार
मेरी सीने से
चिपका था।
(४)
मैंने सिसकते बेटे से पूछा-
रो क्यूँ रहे हो?
बोला- माँ ने मारा।
मैंने कृत्रिम क्रोध दिखाया-  
अभी मैं उसे मारता हूँ।
बेटे ने तुरंत आँसू पोछ लिए
बोला- नहीं तुम नहीं मारो।
मैंने पूछा- क्यूँ?
तो बोला- नहीं, तुम माँ नहीं हो।
  (५)
बच्चा
घुटनों के बल
सरक रहा था
मैंने कहा- यह क्या कर रहे हो?
हँसते हुए बोला-
बाबा, मुझे पकड़ो।
अगले पल
मैं भी
उसको पकड़ने के लिए
घुटनों के बल रेंग रहा था।

  

बुधवार, 23 नवंबर 2011

एक सौ हम

हम दोनों के बीच
लम्बे समय की संवादहीनता के कारण
बड़ा सा शून्य बन गया था.
पर हम
इस शून्य में उलझे नहीं
इससे खुद को गुणा नहीं किया
शून्य से खुद को घटाया नहीं
शून्य को बांटने की कोशिश भी नहीं की
क्यूंकि हर दशा में हम
खुद शून्य हो जाते
हम खुद भी  
शून्य के पीछे नहीं लगे
हमने शून्य को अपने पीछे लगाया
तब शून्य के कारण
दस गुणा समझदार हो गए हम
फिर हम मिले
न किसी को घटाया बढाया
न अपने से बांटा
जोड़ा भी नहीं
सिर्फ
एक दूसरे को गुणा किया
और एक सौ हो गए.


क्यूँ ???

क्या
ईश्वर ने
बीज,पौंधे, पेड़, पशु-पक्षी और मनुष्य
इसलिए बनाये कि
पौंधा पेड़ बन कर बीज को सुखा दे?
शेर मेमने को निगल ले,
बाज मैना को झपट जाए?
ताक़तवर कमज़ोर को सताए
मनुष्य जीवित मनुष्य को मृत कर दे?
अगर ब्रह्मा को
अपनी पृकृति यूँ ही ख़त्म करनी होती
तो पालने और रक्षा करने वाले
विष्णु क्यों बार बार जन्म लेते
ब्रह्मा ही
खुद शंकर बन कर
अपनी पृकृति स्वयं नष्ट न कर देते?

सोमवार, 21 नवंबर 2011

मैदान की लड़की

बेटी
अब माँ बन गयी थी
सुबह सुबह उठ कर
बच्चों, पति और खुद के लिए नाश्ता बनाना
बच्चों को उठा कर
ब्रश कराना, नहलाना धुलाना,
पति को बेड टी देना
फिर बच्चों को टिफिन दे कर स्कूल भेजना
और फिर अपना नाश्ता करना
इसी बीच पति और अपना खाना बनाना और पैक करना
खुद और पति के नहाने के बाद उनके कपड़े निकाल देना
पति के तैयार हो जाने के बाद
उन्हें उनका टिफिन पकड़ाना और दरवाज़े तक विदा करना
बिलकुल माँ की तरह सब करती थी बेटी
अब खुद तैयार होने के लिए वह आईने के सामने है
बालों पर कंघी करते हुए
उसे यकायक माँ याद आ जाती हैं
जब भी वह माँ की कंघी करती
तो उनके सर के बीचो बीच पाती बालों का अभाव
वह माँ से मज़ाक करती पूछती
माँ तुम्हारे सर यह गड्ढा कैसे हुआ?
माँ गहरी सांस लेकर कहती-
बेटा पहाड़ की ज़िन्दगी बेहद कठिन होती है
हम औरतों को ही
दूर से पानी भर कर और लकड़ियाँ बटोर कर
उनका भार सर पर ढो कर लाना पड़ता है
जिस सर पर हर दिन इतने भार रखे जाएँ
उस सर पर बाल कैसे हो सकते हैं?
तुम भाग्यशाली हो बेटी
मैदान में हो, ज़िन्दगी इतनी कठिन नहीं हैं
फिर तुम्हारे सर पर बाल भी कितने लम्बे और घने हैं .
बेटी ने सर पर ज़ल्दी ज़ल्दी कंघी फेरी
सर पर बचे थोड़े बालों में से
कुछ बाल टूट कर कंघी से लिपटे थे
लड़की ने देखा, अपने सर पर हाथ फेरा
फिर बुदबुदाई-
ऊँह!  मैदान की लड़की !


रविवार, 20 नवंबर 2011

भिखारन माँ

फटे गंदे कपड़ों वाली
मैली कुचैली भिखारन
उसके हाथों के बीच
छाती से चिपकी नन्ही बच्ची
बिलकुल गुलाब की कली जैसी
सुन्दर कपड़ों में लिपटी हुई
बरबस
ध्यान आकृष्ट कर रही थी
आते जाते लोगों का-
इस मैली भिखारन की गोद में                               
फूल जैसी गोरी बच्ची कैसे
कपडे भी देखो कितने सुन्दर हैं
एक का ध्यान गया तो दूसरे से कहा
ऐसे ही
काफी लोगों की भीड़ इक्कट्ठा हो गयी
किसकी हैं बच्ची ?
इसकी तो नहीं ही है.
कही से उठा लायी है,
तभी तो सुन्दर कपड़ों में है.
भिखारन को
सशंकित निगाहें
शूल सी चुभने लगीं
क्या यह लोग मुझसे
मेरी बच्ची छीन लेना चाहते हैं ?
इसलिए भागी
लोगों का शक सच साबित हो गया
वह पीछे पीछे दौड़े
पकड़ो पकड़ो !
बच्ची चोर को पकड़ो
कमज़ोर भिखारन भाग न सकी
पकड़ ली गयी
पोलिस आ गयी, पूछ ताछ करने लगी
मालूम पड़ा-
भिखारन के साथ
किसी अमीर शराबी ने बलात्कार किया था
बच्ची इसी बलात्कार की देन थी
अस्पताल में पैदा हुई
तो भिखारन
लोक लज्जा से ग्रस्त
संभ्रांत माताओं की तरह
उसे फेंक नहीं सकी
किसी कूड़ेदान में
यह सुन कर सभी स्तब्ध थे
कि तभी
भिखारन की आवाज़ गूंजी
यह मेरी प्यारी बेटी है
इसे मैं कैसे रख सकती हूँ
गंदे कपड़ों में .

इंतज़ार

मैंने देखा है
प्रतीक्षा करती आँखों को
जो बार बार
दरवाजे से जा चिपकती थीं।
यह मेरी माँ की आंखे थी
जो पिता जी की
प्रतीक्षा किया करती थीं।
वह हमेशा देर से आते
माँ बिना खाये पिये
उनका इंतज़ार करती
हम लोगों को खिला देतीं
खुद पिता के खाने के बाद खातीं।
पिता आते, खाना खाते
फिर 'थक गया हूँ' कह कर
अपने कमरे में जा सो जाते।
माँ से यह भी न पूछते कि
तुमने खाया या नहीं
यह तक न कहते कि
अब तुम खा लो।
मुझे माँ की यह हालत देख कर
पिता पर
और ज़्यादा माँ पर
क्रोध आता कि वह खा क्यूँ नहीं लेतीं।
क्यूँ प्रतीक्षा करती हैं
उस निष्ठुर आदमी की
जो यह तक नहीं कहता
कि तुम खा लो।
आज कई साल गुज़र गए हैं
माँ नहीं हैं
फिर भी दो जोड़ी आंखे
दरवाजे से चिपकी रहती हैं
अपने पति के इंतज़ार में मेरी।

शनिवार, 19 नवंबर 2011

सात बेतुक







मैंने
एक कविता लिखी
मित्र ने पढ़ा
और पूछा-
भाई यह क्या लिखा है?
मैंने कहा-
जो तुमने समझा वही
रही बात मेरी
तो मैं अभी समझ रहा हूँ।
      (२)
मैंने कसम खाई
कि
मैं शराब नहीं पीऊँगा
पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ
लोगो के मेरे प्रति
इस अविश्वास से
मैं इतना दुखी हुआ
कि
पिछले सप्ताह से
लगातार पी रहा हूँ।
        (३)
मैंने पत्नी से कहा-
तुम बच्चों को सम्हालती नहीं
बहुत शरारती हो गए हैं।
पत्नी
एक शरारती मुस्कान के साथ बोली-
शरारती बाप के बच्चे और क्या होंगे।
               (४)
अंधे को नाच दिखाना
बहरे को गीत सुनाना ही
जनता और नेता का रिश्ता है .
             (५ )
नेता जी मेरे पास आए,
हाथ जोड़ कर बोले-
भाई,
वोट ज़रूर देना
मुझे भूल मत जाना
मैंने कहा-
नेता जी,
भूलना साझी बीमारी है
आप वोट लेने के बाद
हमे भूल जाते हो
हम आपके जाने के बाद
आपको भूल जाते हैं।
          (६)
एक नेता
भ्रष्टाचार में फंस कर
जेल पहुँच गए
जेल पहुँच कर
दिल के बीमार हो गए
नेताओं का दिल
अगर स्वस्थ होता
तो वह जेल क्यूँ पहुंचते?
          (७)
मेरा नाम नयनसुख है
मेरी पत्नी का नाम सुनैना है,
मेरी बेटी का नाम चंद्रिका है
बेटा सूरज है।
हम
अंधेर नगरी के
अंधेरे घर में रहते हैं।

उस्ताद

मैं अक्षरों को
तर्क के अखाड़े में उतार देता हूँ
अक्षर लड़ते रहते हैं
एक दूसरे को
जकड़ते और छोड़ते ,
शब्द बनाते और उनसे
वाक्यों के जाल बुनते
मैं इन  तर्कों को उछाल देता हूँ
लोगों के बीच।
लोग मेरे बनाए तर्क जाल में उलझते,
निकलने के फेर में और ज़्यादा उलझते हैं
मैं बस दूर से देखता रहता हूँ
तर्क के  पहलवानों से लड़ते पिद्दियों को
सुनता हूँ
संतुष्ट लोगों को मुंह से
अपने लिए जय जयकार
मैं खुश होता हूँ
अपने शागिर्दों की विजय पर
मैं  तर्क के अखाड़े का उस्ताद जो हूँ ।

बुधवार, 16 नवंबर 2011

छेद

एक बार मैंने
आसमान में छेद कर दिया
मैंने आसमान से
कुछ गिरने के अंदेशे से
सावधानीवश
अपने सर पर हाथ रख लिया
मगर कुछ न हुआ,
ना आसमान गिरा, न कुछ और.
इससे मैं उत्साहित हुआ
आसमान में छेद करने में सफल होने के उत्साह में
मैंने अपने घर की छत में
छेद कर दिया
थोड़ी देर बाद,
बदल घिर आये
जम कर बरसे
छत पर मेरे बनाये छेद से
बारिश का पानी
धार बन कर
मेरे सर को चोट पहुंचा रहा था.

शनिवार, 12 नवंबर 2011

आदमी घड़ी नहीं

आदमी समय के साथ नहीं बदलते
समय के साथ
मौसम बदलते हैं,
महीने हफ्ते बीतते हैं,
दिन और रात होती हैं
घड़ी की सुइयां सरकते हुए स्थान बदलती है।
मगर आदमी !
ऐसा नहीं करता
वह समय से अनुभव लेता है
इस अनुभव से सीख कर
खुद को मौसम के अनुकूल ढालता है
हफ्ते महीने बीतने के बाद
हर साल जन्मदिन की खुशियां मनाता है
दिन में अपने काम करता है
रात में घर को समय देता है आराम करता है
वह घड़ी की सुई नहीं है
क्यूंकि घड़ी की सुइयां
समय नहीं बताती
बेटरी के इशारे पर चलती है।
आदमी किसी के इशारों का ग़ुलाम नहीं है भाई।

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

पाँच बातें

 (1)
छोटे पैर वालों पर
हँसना कैसा !
तीन लोक नापने वाले वामन
ऐसे ही होते हैं।
(2)
हम राम नहीं हो सकते
क्यूंकि,
शबरी ने राम को
जूठा कर वह बेर खिलाये
जो सचमुच मीठे थे।
राम ने इसमे भक्ति देखी
हमने शबरी की
जाति देखी।
(3)
इंसान और फल का फर्क
पेड़ से फल गिरता है
लोग उठा कर खा जाते हैं
लेकिन जब इंसान गिरता है
तो उसे कोई उठाता तक नहीं,
सभी हँसते है।
क्यूंकि,
जहां गिरा फल मीठा होता है
वहीं गिरा इंसान विषैला होता है।

(4)
नन्ही चींटी का रेंगना
सबक है
वह रेंग रेंग कर भी
भोजन मुंह मे दबा कर
घर ही जाती है।

(5)
जीवन कितना है ?
एक सौ साल या हजार साल
अगर सांस लेते रहो
हर सांस के साथ सौ साल तक
अगर कुछ करते रहो
तो हजारों हज़ार साल भी।

(6)
'जाने दो'
'हटाओ'
'फिर देखेंगे'
'हम ही हैं क्या'
दोस्त टालने के लिए
ज़्यादा शब्द ज़रूरी नहीं।

ढाबे के गुलाब

ये वह फूल नहीं हैं
जो चाचा नेहरु की
जैकेट के बटन होल से
टंगा नज़र आता है.
कहाँ
चाचा के दिल से सटा सुर्ख गुलाब
कहाँ
पसीने और गंदगी से बदबूदार
पीले चेहरे और खुरदुरे हाथों वाले
ढाबे पर बर्तन मांजते बच्चे !
उनके चारों ओर
रक्षा करने वाले गुलाब के कांटे नहीं
उन्हें बींध देने वाले
नागफनी काँटों की भरमार है.
ऐसे बच्चे
चाचा के गुलाब कैसे हो सकते हैं?
फिर,
क्या कभी किसी ने देखे हैं
चाचा की नेहरु जैकेट पर सजा
मुरझाया गुलाब?

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

अमर जीवन

अगर जीवन
सिर्फ इतना होता कि
मरने के साथ
खत्म हो जाता
तब वह लोग
अमर क्यूँ हुए होते
जो सदियों से
हमारे बीच नहीं हैं
लेकिन हम उन्हे आज भी
उनकी वर्षगांठ या पुण्य तिथि पर
याद करते हैं.

सोमवार, 7 नवंबर 2011

सपने

मैं कई दिन
सोया नहीं
खुली आँख लिए जागता रहा
होता यह था कि मैं
सोते हुए
सपने बहुत देखता था
फिर यकायक
आँख खुल जाती थी
सपने खील खील हो बिखर जाते थे.
मुझे सपनों का टूटना
बड़ा ख़राब लगता था.
ऐसे ही
कई दिन बीत गए,  
मुझे जगे हुए
कि एक दिन
ख्वाब मेरे सामने आ गया
बोला- तुम सो क्यूँ नहीं रहे ?
मैंने पूछा- तुम कौन हो पूछने वाले
यह मेरा निजी मामला है.
ख्वाब बोला-
यही तो कमी है
तुम ख्वाब देखने वालों की कि
आँख खुलते ही
तुम मुझे भूल जाते हो.
अरे, अगर तुम्हे जागने के बाद
मैं याद रहूँगा
तभी तो तुम मुझे साकार कर पाओगे
भाई, सपने जाग कर भूल जाने के लिए
और टूटने पर रोने के लिए
मत देखा करो.

रविवार, 6 नवंबर 2011

आसमान गिरा

एक दिन आसमान
मेरे सर पर गिर पड़ा
आसमान के बोझ से
मैं दबा
और फिर उबर भी गया.
आसमान हंसा-
देखा,
तुम मेरे बोझ से दब गए
मैंने कहा-
लेकिन गिरे तो तुम !!!

शहर के लोग

तुमने देखा
मेरे शहर में
मकान कैसे कैसे हैं
कुछ बहुत ऊंचे
कुछ बहुत छोटे
और कुछ मंझोले
इनके आस पास, दूर
कुछ गंदी झोपड़ियाँ
पहचान लो इनसे
मेरे शहर के लोग भी
ऐसे ही हैं.

माँ और नदी

माँ कहती थीं-
बेटा, औरत नदी के समान होती है
आदमी उसे कहीं, किसी ओर मोड़ सकता है
इस नहर उस खेत से जोड़ सकता है
वह नहलाती और धुलाती है
अपने साथ सारी गंदगी बहा ले जाती है
मैंने पूछा- माँ,
नदी को क्रोध भी आता है
तब वह बाढ़ लाती है
सारे खेत खलिहान और घर
बहा ले जाती है  !!!
माँ काँप उठीं, बोली-
ना बेटा, ऐसा नहीं कहते
नदी को हमेशा शांत रहना चाहिए
उसे कभी किसी का
नुकसान नहीं करना चाहिए ।
एक दिन,
पिता नयी औरत ले आए
घर के साथ माँ के दिन और रात भी बंट गए
माँ क्रोधित हो उठी
पर वह बाढ़ नहीं बनीं
उन्होने खेत  खलिहान और घर नहीं बहाये
उन्होने आत्महत्या कर ली
चार कंधों पर जाती माँ से मैंने पूछा-
माँ तुम खुद क्यूँ सूख गईं
विनाशकारी  बाढ़ क्यूँ नहीं बनी
कम से कम
विनाश के बाद का निर्माण तो होता.
लेकिन
यह याद नहीं रहा मुझे
कि माँ केवल नदी नहीं
औरत भी थीं.






मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अर्जुन

यह शब्द
तब तक हमारे हैं
जब तक यह
मुंह के तरकश से निकल कर
जिव्हा की कमान से छोड़े नहीं जाते
लेकिन यह तब
घातक हो जाते हैं,
जब अनियंत्रित और खतरनाक तरीके से
सामने वाले पर छोड़े जाते हैं
उस समय इनसे घायल हो कर
न जाने कितने भीष्म पितामह
इच्छा मृत्यु की बाट जोहते हैं
लेकिन तब भी
घमंड भरा अर्जुन
अपने  गाँडीव का रक्त पोंछता हुआ
अगले कुरुक्षेत्र की 
तैयार में जुट जाता है.