सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

हारने का दर्द लँगड़ाना

यह कविता मैंने अभिव्यक्ति समूह की वाल पर ११ नवम्बर २०११ को लिखी थी. आज ब्लॉग में अंकित कर रहा हूँ. हारने का दर्द उसे क्या मालूम जो कभी जीता ही नहीं. यह कविता मैंने १९ नवम्बर को लिखी थी कभी कभी लंगड़ाना भी अच्छा होता है. आप इच्छाओं की दौड़ में भाग नहीं ले पाते.

पाँच बचपन

जानते हो बच्चा इस बेफिक्री से हंस कैसे लेता है? क्यूंकि, वह जानता नहीं कि रोना क्या होता है. क्यूंकि रोना तो उसके लिए माँ को पास बुलाने का उसका वात्सल्य पाने का एक मासूम बहाना है. जबकि हम रोने को रोते हैं रोने की तरह कुछ न पाने और कुछ खो देने के कारण . यही तो फर्क है माँ और मान पाने के लिए रोने का !      (२) एक दिन मैंने ज़िंदगी से मनो-विनोद किया  उस दिन मैं  ऑफिस से जल्दी आ गया था।  मेरा नन्हा  सोया न था।        (३) नन्हें से मैंने पूछा- तुम मुझे कितना प्यार करते हो? उसने अपने दोनों हाथ फैला दिये दूसरे पल सारी दुनिया का प्यार मेरी सीने से चिपका था। (४) मैंने  सिसकते बेटे से पूछा- रो क्यूँ रहे हो? बोला- माँ ने मारा। मैंने कृत्रिम क्रोध दिखाया-   अभी मैं उसे मारता हूँ। बेटे ने तुरंत आँसू पोछ लिए बोला- नहीं तुम नहीं मारो। मैंने पूछा- क्यूँ? तो बोला- नहीं, तुम माँ नहीं हो।   (५) बच्चा घुटनों...

एक सौ हम

हम दोनों के बीच लम्बे समय की संवादहीनता के कारण बड़ा सा शून्य बन गया था. पर हम इस शून्य में उलझे नहीं इससे खुद को गुणा नहीं किया शून्य से खुद को घटाया नहीं शून्य को बांटने की कोशिश भी नहीं की क्यूंकि हर दशा में हम खुद शून्य हो जाते हम खुद भी   शून्य के पीछे नहीं लगे हमने शून्य को अपने पीछे लगाया तब शून्य के कारण दस गुणा समझदार हो गए हम फिर हम मिले न किसी को घटाया बढाया न अपने से बांटा जोड़ा भी नहीं सिर्फ एक दूसरे को गुणा किया और एक सौ हो गए.

क्यूँ ???

क्या ईश्वर ने बीज,पौंधे, पेड़, पशु-पक्षी और मनुष्य इसलिए बनाये कि पौंधा पेड़ बन कर बीज को सुखा दे? शेर मेमने को निगल ले, बाज मैना को झपट जाए? ताक़तवर कमज़ोर को सताए मनुष्य जीवित मनुष्य को मृत कर दे? अगर ब्रह्मा को अपनी पृकृति यूँ ही ख़त्म करनी होती तो पालने और रक्षा करने वाले विष्णु क्यों बार बार जन्म लेते ब्रह्मा ही खुद शंकर बन कर अपनी पृकृति स्वयं नष्ट न कर देते?

मैदान की लड़की

बेटी अब माँ बन गयी थी सुबह सुबह उठ कर बच्चों, पति और खुद के लिए नाश्ता बनाना बच्चों को उठा कर ब्रश कराना, नहलाना धुलाना, पति को बेड टी देना फिर बच्चों को टिफिन दे कर स्कूल भेजना और फिर अपना नाश्ता करना इसी बीच पति और अपना खाना बनाना और पैक करना खुद और पति के नहाने के बाद उनके कपड़े निकाल देना पति के तैयार हो जाने के बाद उन्हें उनका टिफिन पकड़ाना और दरवाज़े तक विदा करना बिलकुल माँ की तरह सब करती थी बेटी अब खुद तैयार होने के लिए वह आईने के सामने है बालों पर कंघी करते हुए उसे यकायक माँ याद आ जाती हैं जब भी वह माँ की कंघी करती तो उनके सर के बीचो बीच पाती बालों का अभाव वह माँ से मज़ाक करती पूछती माँ तुम्हारे सर यह गड्ढा कैसे हुआ? माँ गहरी सांस लेकर कहती- बेटा पहाड़ की ज़िन्दगी बेहद कठिन होती है हम औरतों को ही दूर से पानी भर कर और लकड़ियाँ बटोर कर उनका भार सर पर ढो कर लाना पड़ता है जिस सर पर हर दिन इतने भार रखे जाएँ उस सर पर बाल कैसे हो सकते हैं? तुम भाग्यशाली हो बेटी मैदान में हो, ज़िन्दगी इतनी कठिन नहीं हैं फिर तुम्हारे सर पर बाल भी कितने लम्बे और घने हैं . बे...

भिखारन माँ

फटे गंदे कपड़ों वाली मैली कुचैली भिखारन उसके हाथों के बीच छाती से चिपकी नन्ही बच्ची बिलकुल गुलाब की कली जैसी सुन्दर कपड़ों में लिपटी हुई बरबस ध्यान आकृष्ट कर रही थी आते जाते लोगों का- इस मैली भिखारन की गोद में                                फूल जैसी गोरी बच्ची कैसे कपडे भी देखो कितने सुन्दर हैं एक का ध्यान गया तो दूसरे से कहा ऐसे ही काफी लोगों की भीड़ इक्कट्ठा हो गयी किसकी हैं बच्ची ? इसकी तो नहीं ही है. कही से उठा लायी है, तभी तो सुन्दर कपड़ों में है. भिखारन को सशंकित निगाहें शूल सी चुभने लगीं क्या यह लोग मुझसे मेरी बच्ची छीन लेना चाहते हैं ? इसलिए भागी लोगों का शक सच साबित हो गया वह पीछे पीछे दौड़े पकड़ो पकड़ो ! बच्ची चोर को पकड़ो कमज़ोर भिखारन भाग न सकी पकड़ ली गयी पोलिस आ गयी, पूछ ताछ करने लगी मालूम पड़ा- भिखारन के साथ किसी अमीर शराबी ने बलात्कार किया था बच्ची इसी बलात्कार की देन थी अस्पताल ...

इंतज़ार

मैंने देखा है प्रतीक्षा करती आँखों को जो बार बार दरवाजे से जा चिपकती थीं। यह मेरी माँ की आंखे थी जो पिता जी की प्रतीक्षा किया करती थीं। वह हमेशा देर से आते माँ बिना खाये पिये उनका इंतज़ार करती हम लोगों को खिला देतीं खुद पिता के खाने के बाद खातीं। पिता आते, खाना खाते फिर 'थक गया हूँ' कह कर अपने कमरे में जा सो जाते। माँ से यह भी न पूछते कि तुमने खाया या नहीं यह तक न कहते कि अब तुम खा लो। मुझे माँ की यह हालत देख कर पिता पर और ज़्यादा माँ पर क्रोध आता कि वह खा क्यूँ नहीं लेतीं। क्यूँ प्रतीक्षा करती हैं उस निष्ठुर आदमी की जो यह तक नहीं कहता कि तुम खा लो। आज कई साल गुज़र गए हैं माँ नहीं हैं फिर भी दो जोड़ी आंखे दरवाजे से चिपकी रहती हैं अपने पति के इंतज़ार में मेरी।