मंगलवार, 29 मई 2012

शुभ रात्री

जब सोने के लिए जाओ
तब
किसी को शुभरात्री क्यूँ बोलना
पता नहीं कितनों ने कुछ खाया भी हो
कितनों के पास पत्थर का बिछोना हो
कितनों को सुस्त पड़ी हवा में
ठंडक अनुभव करनी पड़ती हो
जब भूखे पेट भजन नहीं हो सकता
पत्थर पर जीवन पैदा नहीं हो सकता
सुस्त हवा में दम घुटता हो, तो
किसी को नींद कैसे आ सकती है? 
तब आखिरी आदमी की रात्री
कैसे शुभ हो सकती है?
क्या अच्छा नहीं होगा
अगर
सोने से पहले
कुछ देर नींद को दूर भगाते हुए
कल कुछ लोगों के लिए
दो रोटियों, एक अदद बिछोने और खजूर के पंखे का
प्रबंध करने की सोचते हुए सोया जाए।

लोग



आप चलिये,
अपनी राह पर आगे बढ़िए
देखिये आपके पीछे आने वाले
और आपको पुकारने वाले
ढेरों लोग दिख जाएंगे।
लेकिन भरोसा रखिए
इनमे से ज्यादातर
आपके अनुगामी नहीं
वह आपको
इसलिए आवाज़ दे रहे हैं
कि आप पलटे
लड़खड़ा कर गिरे
और आगे नहीं बढ़ पाएँ

सोमवार, 28 मई 2012

रिश्ते

मैं पैदा हुआ
माँ को बेटा मिला
मुझे माँ मिली।
फिर माँ को बेटी हुई
वह पत्नी और दो बच्चों की माँ में बंटी  
पर उसे दो बच्चे मिले
मुझे एक बहन मिली ।
फिर मैं पढ़ने गया
मुझे दोस्त और अध्यापक मिले
मेरी शादी हुई
मुझे पत्नी मिली
उसे पति मिला
हमारे बच्चे हुए
वह माँ, बेटी, बहू और पत्नी बनी
मैं पिता, बेटा, दामाद और पति बना
हमारे नए रिश्ते बने
हम खुद बंटे नहीं
हमने रिश्ते बांटे और रिश्ते के दुख दर्द बांटे
लेकिन यह बंटना कहाँ हुआ
यह बनाना हुआ, बांटना हुआ
रिश्तों और उनके दुख दर्द को।

शनिवार, 19 मई 2012

घड़ी

रुक जाओ !
कहा समय ने 
घड़ी की सेकंड, मिनट और घंटे की सुइयां रुक गयीं 
समय ने 
सेकंड की सुई को डपटा-
कितना तेज़ चलती हो 
क्या सबसे आगे निकल जाना चाहती हो?
कम से कम मिनट के साथ तो चलो 
फिर मिनट को डपटा-
तुम घंटे से लम्बी हो 
इसका मतलब यह नहीं कि 
उसे परास्त करने की कोशिश करो 
तुम्हारी प्रतिस्पर्द्धा सेकंड से नहीं 
फिर घंटे से कहा-
ओह, सेकंड एक चक्कर लगा चुकी है 
तुम साठवां भाग ही हिले हो 
तुम मिनट के साठ डगों को 
अपने एक डग  से नापना चाहते हो 
इतनी सुस्ती भी ठीक नहीं 
थोडा तेज़ चलो .
घंटा शांत ही रहा 
बोला- हे समय 
हम सब अपना काम कर रहे हैं 
सेकंड युवा है, उसमे ऊर्जा है 
वह एक मिनट में दुनिया नाप लेना चाहती है 
क्या दुनिया नापी  जा सकती है ?
मिनट अनुभवी है 
जानता  है कि फूँक फूँक कर भरा डग 
मुझे सहारा देता है 
और मैं 
हर एक सेकंड 
हर एक मिनट के साथ मिल कर 
केवल घंटे नहीं बनाता 
मैं चौबीस घंटे में एक दिन बनाता हूँ 
हर दिन कुछ नया होता है, देश का इतिहास बनता है 
तभी तो तुम समय कहलाते हो,
काल और अतीत बनाते हो .
अपनी नादानी पर शर्मिंदा समय आगे बढ़ लिया 
सेकंड खिलखिलाते हुए डग  भरने लगी 
मिनट फूँक फूँक कर कदम रखने लगा 
और घंटा इतिहास बनाने में जुट गया है।

पंछी

सुबह होने को है 
एक पंछी जागता है 
उसके जगे होने का एहसास कराती  है 
उसके पंखों की फड़फड़ाहट 
जैसे झटक देना चाहता हो 
कल की थकान और सुस्ती .
वह आँख खोलता है 
घोसले से झाँक कर कुछ देखना चाहता है 
धुंधलके के बीच से 
फिर दोनों पंजों के बल 
खड़ा हो जाता है पेड़ की डाल पर 
उसे उड़ना ही होगा 
जाना होगा दूर तक 
कुछ खाने की खोज में 
बरसात से घर बचाने को 
तिनकों की तलाश करनी ही होगी 
उड़ चलता है वह 
जोर की आवाज़ करता 
ताकि और साथी भी जग जाएँ 
वह भी तलाश कर लें अपने भविष्य की 
यह सुन कर 
अभी तक बादलों की ओट में 
आलस करने की कोशिश करता सूरज 
बाहर निकल आता है 
जैसे सलाम कर रहा हो 
पंछी की भविष्य की कोशिशों को .
और तभी 
खिल उठता है आकाश पर 
इन्द्रधनुष ।

रविवार, 13 मई 2012

खेल

रोशनदान के नीचे बना घोंसला 
छोटी चिड़िया झांकती, इधर उधर देखती
उड़ कर कहीं जाती, लौट कर आती 
चोच में दाना या तिनका लिए 
रख कर फिर उड़ जाती या थोडा फुदकती इधर उधर 
नन्हा देख रहा है ध्यान से 
नन्ही चिड़िया के करतब और खुश हो रहा है 
रोशनदान की झिरी से 
धूप  का एक छोटा टुकड़ा झांकता है,
फिर बैठ जाता है घोंसले पर 
चिड़िया चीं चीं करने लगती है 
मानो कह रही हो हटो मेरे घोंसले से 
टुकड़ा नहीं मानता तो समझौता कर लेती 
खेलने लगती है उससे .
नन्हा देख रहा है सब 
वह भी खेलना चाहता है चिड़िया और धूप  के संग 
इसलिए बाजरे के थोड़े दाने लाकर 
चिड़िया को दिखाने लगता है-
आ आ कह नन्हे हाथों से बुलाने लगता है 
सशंकित चिड़िया कभी पास उड़ती, फिर दूर चली जाती 
यह कौतुक देख 
धूप का टुकड़ा भी नीचे सरक आता है, 
फर्श पर नन्हे के पास 
नन्हा धूप  को पकड़ने की असफल कोशिश करता है 
नन्हे को धूप के साथ खेलते देख 
चिड़िया नीचे उतर आती है 
बाजरे को चोंच से बटोर कर गले में धकेलती जाती है 
फिर उड़ जाती है अपने घोसले पर
फिर संतुष्ट चिड़िया 
झांक कर नीचे देखने लगती है 
नन्हे की धूप के साथ खिल खिल .
मिला लेती हैं साथ उनके
अपनी चीं चीं .

शुक्रवार, 11 मई 2012

बेटी

जब बेटी
पिता के काम से वापस आने पर
उसकी गोद में बैठ जाती है
तो बेटी जैसी लगती है।
जब वह
अपनी नन्ही उंगलियों से हाथ सहलाती है
तब स्नेहमयी माँ जैसी लगती है।
2-
क्यूँ फिक्र होती है
कि बेटी जल्दी बड़ी हो गयी
यह  क्यूँ नहीं सोचते
कि कितनी जल्दी सहारा बन गयी।
3-
बेटी
कविता है
जिसे पढ़ा भी जा सकता है
और गुनगुनाया भी जा सकता है।
4-
खुद को बेटी समझने वाली
जब माँ बन जाती है
तब बेटी को
माँ की तरह क्यूँ देखती है
बेटी की तरह क्यूँ नहीं देखती
जो माँ बनना चाहती थी।
5-
भ्रूण में मारी जा रही
बेटी ने कहा-
तुम कैसी माँ हो
तुमने मुझे
अपना बचपन समझने के बजाय
भ्रूण समझ लिया।

गुरुवार, 10 मई 2012

माँ की चिंता

एक माँ 
दरवाज़े पर बैठी बाट जोह रही है 
अपने बेटे की .
ऑफिस से अभी तक वापस नहीं आया है 
क्यूँ देर हो गयी ?
क्या बात हो गयी ?
फ़ोन भी नहीं किया ?
दसियों अनर्थ 
मस्तिष्क में विचर जाते 
चिंता की लकीरें ज्यादा गहरी हो जाती 
माँ के माथे पर .
माँ बहु से पूछती-
लल्ला क्यूँ नहीं आया अभी तक?
सास बहु के टीवी सीरियल देखती बहु 
व्यंग्य करती-
माजी अब वह आपके लल्ला नहीं रहे 
बड़े हो गए हैं,  
ऑफिस में नौकरी करते है,
ज़िम्मेदार है, फंस गए होंगे किसी काम से ।
बहु टीवी का वोल्यूम कुछ ज्यादा तेज़ कर देती 
ताकि कानों तक न पहुंचे माँ की चिंता .
माँ मन मसोस कर दरवाज़े पर आ बैठती
बहु अभी नादान है 
वह क्या जाने माँ की चिंता 
जब बच्चे होंगे तब मालूम पड़ेगा .
थोड़ी देर बाद लल्ला पहुंचता है घर 
माँ पूछती है-
बेटा आज बहुत देर हो गयी ?
लल्ला को माँ की चिंता तक से सरोकार नहीं 
वह सीधा घुस जाता है अपने कमरे में 
बहु भड़ाक से दरवाज़ा बंद कर लेती है 
माँ की चिंता बाहर रह जाती हैं 
माँ के साथ।

शनिवार, 5 मई 2012

गंगा- हाइकु

सूखती गंगा 
पाप बढ़ रहे हैं 
धोता कौन है .

2-
गंगा निकली 
शिव की जटाओं से 
भटक गयी।

3-
गंगा नदी है 
माँ का नाम गंगा 
दोनों उपेक्षित .

4-
गंगा का पानी 
बिसलेरी बोतल 
बेचते हम .

5-
बहती गंगा 
कूदी गंगा  नदी में 
दोनों ही ख़त्म .

शुक्रवार, 4 मई 2012

बेचारी भिखारन

मैं बहुत दयालु हूँ 
मेरी दयाद्रता के बारे में जानना हो तो 
मेरे मोहल्लें में आने वाली 
एक भिखारन से पूछो 
वह बताएगी कि मैं कितना दयालु हूँ 
मैं उसे अपने घर के दरवाज़े पर बुलाता हूँ
निकट बिठालता  हूँ  
बेशक उस समय मेरी पत्नी घर नहीं होती 
इन औरतों का क्या कहिये 
बेहद शक्की होती हैं 
भिखारिन को ही क्या कह दें, क्या न कह दें 
मैं भिखारिन को कुछ खाने को देता हूँ 
पानी पिलाता हूँ 
कुछ न कुछ ले जाने के लिए भी देता हूँ 
कभी नकदी भी 
मैं उसका पैनी दृष्टि से निरीक्षण करता हूँ 
मुझे उसकी हालत देखी नहीं जाती 
पूरे वस्त्र भी नहीं है उसके पास 
जब वह ज़मीन पर रखा खाना 
झुक कर उठा रही होती है 
तब उसकी छातिया साफ़ नज़र आती हैं 
मैं सोचता हूँ 
कितनी पुष्ट छातियाँ  हैं 
इन पर तो किसी की भी बुरी नज़र पड़ सकती है 
मैं उससे कहता भी हूँ-
बदन ढाक कर रखा करो 
ज़माना सही नहीं है 
वह सहम जाती, खुद में ही  सिमट जाती 
अपनी छातियों को छुपाने के लिए 
मैं खुश होता 
कोई तो है उस गरीब भिखारन का 
जो उसकी लाज के बारे में सोचता है
मैं उसकी पीठ पर हाथ रख कर हलके से सहलाता हूँ
वह सहमी सी जाती है
मैं जानता  हूँ  कि  फिर भी वह कल आएगी 
उसे  इस प्रकार सांत्वना देते हुए मुझे हार्दिक संतोष होता है  
क्यूँ, दयालू हूँ न मैं !!!

मंगलवार, 1 मई 2012

गरीब

अरे गरीब आदमी !
दूर ऊंचाई से आती संगीत की धुनों को सुनो
यह उन अमीर लोगों के घरों से आ रही हैं
जो तुम्हें
अपने नीचे देख कर भी शर्म खाते हैं
मजबूरन ही सही, फिर भी तुम्हें रहने देते हैं
तुम एक बदनुमा दाग हो
उनकी ऐश्वर्यशाली इमारत के लिए
तुम्हारे भूखे  बच्चों का रूदन
उन्हे ऊंची आवाज़ में
संगीत बजाने को विवश करता है ।
इसके बावजूद,
वह कुछ बासी टुकड़े नीचे फेंक देते हैं
ताकि
तुम और तुम्हारे बच्चे उठा कर खा लें
भूखे न रहे और बिलख कर उनका संगीत बेसुरा न करे।
तुम इस संगीत को सुनो
फेंके भोजन को चखो
यह कर्णप्रिय संगीत
महादेव की देन है
जिनकी तुम सपरिवार एक दिन व्रत रख कर पूजा करते हो
ताकि, इस एक दिन तुम्हारे बच्चे रोटी न मांगे।
तुम इसे सुनते भी हो
तुम इसे सुनते हुए
अपना दुख भी तब  भूल जाते हो
जब तुम्हारे बच्चे
तेज़ धुन पर, बेतरतीब नाचने लगते हैं
खुश हो कर शोर मचाने लगाते हैं
तभी यकायक
संगीत रुक जाता है
एक कर्कश आवाज़ गूँजती है-
साले नंगे-भूखे गाना भी नहीं सुनने देते
न खुद सुख से रहते हैं, न हमे रहने देते हैं।
ऐ गरीब !
यही तो कमी है तुम लोगों में
तुम किसी का भी
स्वादिष्ट भोजन बेस्वाद कर सकते हो
संगीत के राग बेसुरे कर सकते हो !!!