सोमवार, 13 अप्रैल 2020

क्यों नहीं प्रभावित कर सकी ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान?


ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान के निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य लेखकनिर्देशकसंवाद लेखक और गीतकार हैं. उन्होंने धूम और धूम २ को लिखा था. गुरु में उनके लिखे संवाद थे. अक्षय कुमारकरीना कपूर और सैफ अली खान की फिल्म टशन से उनका बॉलीवुड फिल्म डेब्यू हुआ. यह फिल्म वितरकों और प्रदर्शकों के साथ विवाद में फंस कर काफी सिनेमाघरों में रिलीज़ नहीं हो सकी. विजय कृष्ण आचार्य की निर्देशक के रूप में दूसरी फिल्म धूम सीरीज की तीसरी फिल्म धूम ३ थी. इस फिल्म के नकारात्मक नायक आमिर खान थे. उनकी नायिका कैटरीना कैफ थी. जैकी श्रॉफ ने पिता की भूमिका की थी. इस फिल्म को जिन लोगों ने देखा हैवह समर्थन करेंगे कि यह फिल्म बेहद बेसिरपैर की बेवकूफियों से भरी फिल्म थी. पटकथा में ऐसा कोई लॉजिक नहीं दीया गया था कि आमिर खान के चरित्र ने डकैतियाँ डाली तो कैसे. बस पड़ गई डकैती. फिर भी आमिर खान और हिट गीतों के कारण क्रिसमस वीकेंड २०१३ पर रिलीज़ यह फिल्म सुपरहिट हो गई.

इस फिल्म के ५ साल बादविक्टर आचार्य की तीसरी निर्देशित फिल्म ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान दीवाली वीकेंड पर रिलीज़ हुई थी. विक्टर को इस फिल्म को लिखने में पांच साल लगे. लेकिनवह इन सालों में यह भ्रम पाले रहे कि सितारों की भरमार करकेभारी सेट्स के साथ वह फिल्म हिट करा ले जायेंगे. ऐसा सोचा जाना स्वाभाविक भी था. उन्होंने जिस आमिर खान के साथ सुपरडुपर हिट फिल्म धूम ३ बनाई थीवह ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान के एक ठग थे. अमिताभ बच्चन और कैटरीना कैफ भी थे. आमिर खान ने अपनी ख़ास फातिमा सना शैख़ को भी रखवा लिया था.

इतना सब तो ठीक था. विक्टर आचार्य और फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा ने फिल्म का फॉर्मेट अंग्रेजों के जमाने के डाकुओं वाला लिया. जोहनी डेप की फिल्म पाइरेट्स ऑफ़ द कॅरीबीयन का खाका दिमाग में रख कर सेट्स बनाए गए थे. आमिर खान ने जोहनी डेप की भद्दी नक़ल करके अभिनय किया था. अमिताभ बच्चन बूढ़े गोरिल्ला के तरह झूम रहे थे. यह दोनों अभिनेता ओवर एक्टिंग करने की होड़ में थे. कैटरीना कैफ की छोटी भूमिका रोबोट जैसी थी. फातिमा सना शैख़ का एक्टिंग से कभी रिश्ता ही नहीं था. कहने का मतलब यह कि पूरी फिल्म का फिल्म क्राफ्ट से कोई रिश्ता नहीं था. पाइरेट्स ऑफ़ द कॅरीबीयन की इस भद्दी नक़ल को हालाँकि५२ करोड़ की ओपनिंग मिली. लेकिनइस ओपनिंग का खामियाजा भी फिल्म को भोगना पडा. बड़ी आशा और अपेक्षा से फिल्म देखने आये दर्शकों की एक स्वर से नकारात्मक प्रतिक्रिया मिली. फिल्म दूसरे दिन ही औंधे मुंह आ गिरी. ट्रेड से सभी लोगों को भारी नुकसान झेलना पड़ा.

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

आज बहुत याद आती है PAC


लॉकडाउन तोड़ कर कोरोना वायरस फैलाने के लिए बेचैन और मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिए आमादा लोगों के पुलिस पर हमलों के बाद, अब उत्तर प्रदेश पुलिस थोड़ी सक्रिय नज़र आती है. लेकिन, अभी कुछ कमी लगती है. मुझे याद आ जाती है सत्तर के दशक तक सक्रिय पीएसी की. मुल्लाओं के भूत भागते थे इस कांस्टेबुलरी से. इस फाॅर्स की खाकी वर्दी को देखते ही मुल्ला, ठुल्ला और कठमुल्ला की लुंगी, पेंट, जांघिया, आदि सब गीली हो जाती थी. छात्र आन्दोलन के दौरान प्रोविंशियल आर्म्स कांस्टेबुलरी का ख़ूब उपयोग किया जाता था. छात्र इन्हें मामा कह कर चिढाते थे. ऐसे में जब भांजे इनके हत्थे चढ़ जाते थे, मामा इनकी मामा की तरह नहीं धुनकी की तरह धुनाई करते थे.

अब फिर आता हूँ आज के परिदृश्य पर. देख रहा हूँ भाई लोग लॉक डाउन का पालन कराने आई पुलिस पर बेहिचक, बेधड़क, बेरहम हमला करते हैं. पुलिस अधिकारीं को खूनम खून कर देते हैं. दिल्ली में तो इन लोगों के कारण कितने पुलिस अधिकार चोटिल हुए, कोमा तक पहुँच गए. ऐसे में सोचता हूँ अगर उत्तर प्रदेश की पुलिस आर्म्स कांस्टेबुलरी यानी पीएसी होती तो क्या यह पत्थरबाज़ सडकों पर भागते हुए पुलिस वैन में बैठते? भूल जाइए. इन पिल्लों के बापों ने बताया नहीं होगा. मैं बताता हूँ. एक पत्थरबाज़ हमलावर गुंडे को चार पांच पुलिस कर्मी घेर लेते थे. इसके बाद लाठियों से उसका कीर्तन हो जाता था. जब यह कीर्तन ख़त्म होता तो वह उन्मादी जमीन सूंघ चुका होता था. उसे पीएसी के जवान, मरे हुए कुत्ते की तरह, अपनी लाठी में टांग कर पुलिस गाडी में बिदा कर देते थे. पीएसी का नाम सुनते ही मिया भाई मिआऊ बोलने लगते थे. आज मैं अपने पैरों पर भागते इन धार्मिक गुंडों को देखता हूँ तो पीएसी बहुत याद आती है.

नोट- मेरे सगे मामा पीएसी में थे. वह अपनी ड्यूटी के बारे में बताते थे तो उनकी दुर्दशा पर हम बच्चों की आँखों में आँसू आ जाते थे. बेचारे पुलिस वाले भूखे रह कर कठिन ड्यूटी करते हैं. यह कमीने पत्थर बरसाते हैं.

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

मजीठिया की निराशा नरेन्द्र मोदी पर निकालता पत्रकार !


एक बार, स्कूल की अध्यापिकाओं के छोटे बच्चों की पिटाई किये जाने पर एक सर्वेक्षण किया गया था. उसमे यह बात निकल कर सामने आई थी कि स्कूल मालिक अध्यापिकाओं को कम वेतन देते हैं और पढ़ाने के साथ साथ स्कूल के दूसरे काम भी लेते है. यह अध्यापिकाएं घर में अपने पतियों से भी हैरान परेशान रहा करती थी. स्कूल और घर का सम्मिलित निराशा उन्हें बच्चों को पीटने के लिए मज़बूर करती थी.


मैं आपसे शर्त लगा सकता हूँ. ऐसा ही सर्वेक्षण पत्रकारों पर भी कीजिये.  इनकी पोस्ट, इनके नैराश्य का प्रमाण है. यह प्रधान मंत्री पर, उनके किसी काम पर, बेसिर पैर की, तथ्यहीन टिप्पणियां करते हैं. अपने अख़बार में मजीठिया वेज बोर्ड न लागू होने लिए मोदी को दोषी बताते हैं. उनकी कोई भी पोस्ट आपको ज्ञान नहीं दे सकती. जो भी परोसते हैं, वह निराशा और नकारात्मकता से भरपूर. आप इन्हें पढ़ पढ़ कर आत्महत्या करने को मज़बूर हो सकते हैं. अगर आप प्रतिवाद में कुछ लिख दें तो तुरंत आपको भक्त की उपाधि देकर खुद राक्षस की तरह बन जाते हैं.

सर्वे होगा तो यह मालूम हो जाएगा कि यह बेचारे भी कम वेतन के मारे हैं. यह बेचारे भी घर में लताड़े जाते हैं. यह बेचारे भी मालिकों के मारे हैं. लेबर कोर्ट से बेसहारे हैं. उस पर उन्हें खिलाफ टिपण्णी लिखने पर प्रेसटीटयूट भी कर दिया जाता है.-माल उड़ाता राजदीप और बरखा दत्त और रविश कुमार है, पत्रकारिता की वेश्यावृति का दाग इन पर भी लग जाता है. बेचारे कुछ पत्रकार  अपने घर में दो चार पेज के अख़बार की चार पांच सौ कापियां निकलवा कर सूचना विभाग से विज्ञापन लूटते थे. वह भी अब बंद है. इतने नैराश्य में बेचारा पॉजिटिव लिखे भी तो कैसे! आप जांच करा लीजिये. ऐसे किसी पत्रकार का ब्लड ग्रुप बी पॉजिटिव नहीं निकलेगा. हाँ ओ नेगेटिव ज़रूर हो सकता है.

मेरा यह शोध अपने फेसबुक मित्रों में दैनिक जागरण और अमर उजाला के पत्रकारों की लेखनी को पढ़ने का परिणाम है. आप चाहें इसमे कुछ दूसरे अख़बारों के पत्रकारों भी जोड़ या घटा सकते हैं.

निराशा से आशा की ओर ले जाता है मोदी सन्देश


मैं अपने ढेरों मित्रों की तरह अति विद्वान नहीं. बहुत मामूली बुद्धि वाला हूँ. लेकिन प्रधान मंत्री के आज के सन्देश से मैंने यह अर्थ निकाला है कि उन्होंने लॉक डाउन की वजह से १० दिनों से घरों में बंद, अपने ईष्ट-मित्रों से न मिल पाने के लिए मज़बूर, करोड़ों लोगों के एकाकीपन को महसूस करते हुए; उन गरीबों को, जो दुर्भाग्य के अँधेरे में डूबे हुए है, संबल देने के लिए अन्धकार में दिया जलाने का सन्देश दिया है. यानि अगर आपके आसपास के घरों की बालकनी में ऐसा कोई दृश्य नज़र आएगा तो आप महसूस कर सकेंगे कि हम अकेले नहीं. आसपास कुछ दूसरे लोग भी हैं. जैसा प्रधान मंत्री के २१ मार्च के संबोधन के बाद महसूस किया गया था .इससे स्वाभाविक अकेलापन दूर होगा. कोरोना वायरस की बीमारी के भय से दो चार हो रहा देश इस सन्देश से आशा की किरण देख सकता है. देश एक है का सन्देश भी है इसमे.

बेशक आपको ऐसा नहीं लग रहा होगा. मैंने कहा न, आप अतिरिक्त जीनियस हैं. मैं कम बुद्धि हूँ. मैंने जो समझा उसे लिखा. आपको बताने के लिए नहीं. आप तो काफी खेले खाए और समझे है. मैंने यह अपने जैसे कम बुद्धि मित्रों के लिये लिखा है. इसलिए हाथ जोड़ कर प्रार्थना है कि आप मेरी बात से बिलकुल सहमत मत होइए (GO TO HELL नहीं कहना चाहूंगा) बेशक अन्धकार में डूबे रहिए, पर मुझे डुबोने की कोशिश मत करियेगा. मैं हर मुश्किल और खराब वक़्त के बीच आगे दूर आता अच्छा वक़्त देखता हूँ. आपको आपकी नकारात्मकता मुबारक. आप डूबे रहें अँधेरे में.

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

मुनव्वर राणा पर पड़े जूते २०, जब कहा कोरोना मुसलमान हुआ जाता है

मुनव्वर राणा ट्विटर एक शेर के ज़रिये अपनी ज़हालियत का प्रदर्शन किया . शेर था-
जो भी ये सुनता है हैरान हुआ जाता है,
अब कोरोना भी मुसलमान हुआ जाता है।
जवाब में मुनव्वर राणा को बेभाव में इतने शेर पड़े -
१- जब भी मुश्किल में मेरा देश कभी आता है,
ये मुनव्वरभी मुसलमानही हो जाता है।
२ - तबलीगी मुसलमान सच्चा मुसलमान कहाता है,
क़ुरान भी फैलाता है और कोरोना भी फैलाता है।

३- #तबलीगी_जमात के बारे में जो भी ये सुनता है, हैरान हुआ जाता है...
कोरोना से मिलकर और भी ज्यादा खतरनाक, अब मुसलमान हुआ जाता है
४-  मैंने जब ये सुना तो हैरान ना हुआ
चिंता तो हुई थोड़ी पर परेशान ना हुआ
दिमाग मे जेहाद भरा होना जिनकी निशानी है
मासूमों का कत्ल करना जिनकी कहानी है
जब मजहब के चलते कोई शैतान हुआ जाता है
तब कोरोना भी मुसलमान हुआ जाता है

५- अगर चिढ़ते हैं तो चिढ़ने दो, मेहमान थोड़ी है
ये सब हैं जाहिल, अब्दुल कलाम थोड़ी है
फैलेगा कोरोना तो आएंगे घर कई ज़द्द में
यहाँ पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ देश उनका भी है लेकिन
हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है

६- लोग घरों में बंद हैं और वो जमात लगाए बैठे हैं,
अब जो बेपर्दा हुए तो मजहब बीच में घुसाए बैठे हैं !

७- जहां इबादत में हाथ उठने थे, वहाँ पत्थर उठाए बैठे हैं,
जिन का अहसान मान लेना था उन्हें ग़ाली सुनाए बैठे हैं,
इंसानियत की चिंता होती तो यूँ मजमा ना लगाते,
अब जो बेपर्दा हुए तो मजहब बीच में घुसाए बैठे हैं !!
८- जो भी ये सुनता है हैरान हुआ जाता है
बम बंदूक छोड़ थूक से जिहाद किया जाता है
९-  जो भी ये सुनता है, हैरान हुआ जाता है
अब मुन्नवर राणा भी शीफ्र #मुसलमान हुआ जाता है।
१०- कोरोना की वजह से देश खतरे में न आये ये सोच कर देशभक्त सूखते जा रहे हैं,
कुछ टोपी वाले कोरोना के संदिग्ध क्या हुए, सड़क पर थूकते जा रहे हैं। 
११- जो  भी ये सूनता है, हैरत नही होती है
मस्जिद मौत बांटती, अजां नही होती है !!
१२- मरना है तो जल्दी मर 'मुनव्वर'
यूँ शोर मचा कर ,मोहल्ले की नींद हराम न कर।
१३- जो भी आपको सुनता है वो हैरान हुआ रहा है,
मुनव्वर राना अब तो इंसान कम और जिहादी ज्यादा नजर आ रहा है

१४- जो भी सुनता है हैरान हुआ जाता है,
लॉकडाउन होने के बाद भी कोरोना दरगाह में पाया जाता है..!
१५- जो भी सुनता है हैरान हुआ जाता है
डॉक्टरों पर थूककर शैतान हुआ जाता है।
१६- हमारे मुंह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुंह में तुम्हारी जुबां थोड़ी है।
कानून लागू है, खुदसर नहीं करते
तुम्हारे बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।
१७- अपनी शायरी से ना हमे बहलाओ
जाके अपने मौलानाओं को समझाओ
१८- कितना पाक तेरा मजहब है गालिब,
जो जान बचाए तेरी उसी पे थूकना सिखाता है ?
ओ तेरा खुदा फिर तुझसे जुदा क्या होगा ?
जो गैरों कत्ल करने को वजा फरमाता है ।।
१९- एक वायरस की जद में इंसान मौत का खिलौना हो गया
जिहाद की ऐसी लत के मुसलमान ख़ुद कोरोना हो गया.

२०- अंदर का ज़हर चूम लिया , धुल के आ गए |
कितने शरीफ़ लोग थे , सब खुल के आ गए ||

शनिवार, 28 मार्च 2020

कोरोना वायरस के बहाने भूखों की अपने प्रदेश वापसी ?

कभी आप मुंबई, दिल्ली या अहमदाबाद में किसी अपने प्रदेश के व्यक्ति से बात कीजिये. वह आपको अपने संघर्ष के दिनों की याद दिलाएगा कि कैसे उसने संघर्ष किया. भूख झेली. इसके बाद यह मुकाम पाया. उसकी यह तकरीर आपको एक नामाकूल व्यक्ति साबित कर देगी, जो बिना संघर्ष किये कुछ बनना चाहता है, पाना चाहता है. लेकिन, उस समय तकरीर करता व्यक्ति यह भूल जाता है कि ऐसा कहते समय वह यह भी बता रहा था कि वह अपने प्रदेश में भूखा मर रहा था, कोई काम नहीं था. या फिर वह अपनी निजी आकांक्षाओं यथा एक्टर, फिल्म राइटर, डायरेक्टर बनने की, पूरी करने के लिये यह संघर्ष कर रहा था. इसमे समाज या देश सेवा की कोई भवना नहीं थी. खालिस निजी स्वार्थ। यह व्यक्ति जब सफल हो जाता है, उसमे वह सब बुराइयां आ जाती है, जो बॉलीवुड में है. काला पैसा, ज्यादा पैदा लेकर कम आय दिखाना, कर बचाने के लिए फर्जी बिलिंग करना, आदि आदि.
ऐसे ही कुछ कथित संघर्षशील लोग,पिछले दो-तीन दिनों से वापस हो रहे हैं अपने प्रदेश कि वह मुंबई, दिल्ली या अहमदाबाद रह कर भूखें मारें क्या ? सरकार को कोस रहे हैं कि वह कुछ नहीं कर रही उनके लिए. चैनल इसका ढिंढोरा पीट रहे हैं.
मैं ऐसे लोगों से यह पूछना चाहूंगा कि तुम अपना प्रदेश छोड़ कर इन राज्यों में क्यों गए, अगर तुम भूखे नहीं मर रहे थे ? बड़े शहर की चकाचौंध का मज़ा लेने न ! अगर नहीं तो भूखा मरने के लिए वापस क्यों जा रहे हो ? वही रहते. इन सरकारों को आइना दिखाते कि ऐ सरकारों तुम निकम्मी हो ! हमारे लिए कुछ नहीं कर रही. लेकिंन, तुम बिलखते हुए वापस आ रहे हो. बहाना भूखों मरने का है. हो सकता है इसी बहाने फसल भी कट जाए.

मंगलवार, 17 मार्च 2020

क्या माँ बाप गलत अपेक्षाएं रखते हैं बच्चों से ?

इक्का दुक्का अपवाद हो सकते हैं. लेकिन, ज्यादातर माँ-पिता बच्चों से गलत अपेक्षाएं नहीं रखते. यहाँ तक कि उनकी अपेक्षाएं भी गलत नहीं होती, जिन्हें हम गलत समझते हैं.
मुझे ऐसा लग रहा है कि आप उन अपेक्षाओं को गलत बता रहे हैं, जिन्हें बच्चे गलत समझते हैं. इसमे कोई शक नहीं कि नई पीढ़ी का एक्स्पोजर ज्यादा है. लेकिन, अनुभव के सामने यह कहीं नहीं टिकती. अच्छा-बुरा की समझ समय करता है, अनुभवों से यह समझ आती है.
एक उदाहरण देना चाहूंगा. इधर लिव-इन रिलेशनशिप का चलन हो गया है. कोर्ट ने इसे मान्यता भी दे दी है. बिना शादी के एक साथ रहना पश्चिम से प्रभावित अपने आप में नया कांसेप्ट है. इसमे थ्रिल भी काफी है. एक लड़की के साथ अकेले रात दिन रहना और सब कुछ करना. लेकिन, क्या इससे यह पता चल जाता है कि लिव-इन का अनुभव कर चुके लड़का लड़की अब अच्छे पति-पत्नी बन सकते हैं. शायद शतप्रतिशत नहीं. ऐसे काफी मामले प्रकाश में आये है, जिनमे लड़की ने शादी करने का झांसा देकर बलात्कार करने का आरोप लगा दिया. सबसे बड़ी बात तो यह है कि कुछ महीने थ्रिल के नशे में गुजारने के बाद यह कैसा पता चल जाता है कि नशा सही चढ़ा है! जब यह नशा उतरता है तो शादी उसी तलाक के ढर्रे पर आ जाती है.
एक बात और. इस समय भी ज्यादा शादियाँ माता-पिता द्वारा तय की हुई ही हो रही हैं. क्या यह असफल हो रही हैं? नहीं ! तब फिर लिव-इन के थ्रिल का क्या मतलब.
आजकल एक्स्पोजर का नतीजा है कि युवा लडके लड़कियाँ विदेश में नौकरी करना पसंद करने लगे हैं. उन्हें लगता है कि इस प्रकार से वह विदेश में नौकरी करने का कारण ज्यादा सम्मानित हो जाते है. उन्हें अच्छी नौकरी और तनख्वाह भी मिल रही है. लेकिन, aआधुनिक युग की अर्थव्यवस्था कई कारणों पर टिकी हुई है. अब देखी न कोरोना वायरस ने भी अमेरिका की शक्तिशाली अर्थव्यवस्था की चूलें हिला दी है. वहाँ मंदी का ख़तरा मंडरा रहा है. सोचिये, ज्यादा कमाने और अच्छी नौकरी के लालच में विदेश गया बच्चा, आर्थिक मंदी के दौरान बिलकुल अकेला हो जाता है. उसे रोने के लिए माँ-पिता का कंधा तक नहीं मिलता

अकबर के सामने अनारकली का अपहरण, द्वारा सलीम !

जलील सुब्हानी अकबर ने हठ न छोड़ा।  सलीम से मोहब्बत करने के अपराध में, अनारकली को फिर पकड़ मंगवाया। उसे सलीम से मोहब्बत करने के अपराध और जलील स...