एक बार, स्कूल की अध्यापिकाओं के छोटे बच्चों की
पिटाई किये जाने पर एक सर्वेक्षण किया गया था. उसमे यह बात निकल कर सामने आई थी कि
स्कूल मालिक अध्यापिकाओं को कम वेतन देते हैं और पढ़ाने के साथ साथ स्कूल के दूसरे
काम भी लेते है. यह अध्यापिकाएं घर में अपने पतियों से भी हैरान परेशान रहा करती
थी. स्कूल और घर का सम्मिलित निराशा उन्हें बच्चों को पीटने के लिए मज़बूर करती थी.
मैं आपसे शर्त लगा सकता हूँ. ऐसा ही सर्वेक्षण पत्रकारों पर भी
कीजिये. इनकी पोस्ट,
इनके नैराश्य का प्रमाण है. यह प्रधान मंत्री पर,
उनके किसी काम पर, बेसिर पैर की, तथ्यहीन
टिप्पणियां करते हैं. अपने अख़बार में मजीठिया वेज बोर्ड न लागू होने लिए मोदी को
दोषी बताते हैं. उनकी कोई भी पोस्ट आपको ज्ञान नहीं दे सकती. जो भी परोसते हैं,
वह निराशा और नकारात्मकता से भरपूर. आप इन्हें पढ़ पढ़ कर आत्महत्या करने को
मज़बूर हो सकते हैं. अगर आप प्रतिवाद में कुछ लिख दें तो तुरंत आपको भक्त की उपाधि
देकर खुद राक्षस की तरह बन जाते हैं.
सर्वे होगा तो यह मालूम हो जाएगा कि यह बेचारे भी कम वेतन के मारे हैं. यह
बेचारे भी घर में लताड़े जाते हैं. यह बेचारे भी मालिकों के मारे हैं. लेबर कोर्ट
से बेसहारे हैं. उस पर उन्हें खिलाफ टिपण्णी लिखने पर प्रेसटीटयूट भी कर दिया जाता
है.-माल उड़ाता राजदीप और बरखा दत्त और रविश कुमार है,
पत्रकारिता की वेश्यावृति का दाग इन पर भी लग जाता है. बेचारे कुछ
पत्रकार अपने घर में दो चार पेज के अख़बार
की चार पांच सौ कापियां निकलवा कर सूचना विभाग से विज्ञापन लूटते थे. वह भी अब बंद
है. इतने नैराश्य में बेचारा पॉजिटिव लिखे भी तो कैसे! आप जांच करा लीजिये. ऐसे
किसी पत्रकार का ब्लड ग्रुप बी पॉजिटिव नहीं निकलेगा. हाँ ओ नेगेटिव ज़रूर हो सकता
है.
मेरा यह शोध अपने फेसबुक मित्रों में दैनिक जागरण और अमर उजाला के
पत्रकारों की लेखनी को पढ़ने का परिणाम है. आप चाहें इसमे कुछ दूसरे अख़बारों के
पत्रकारों भी जोड़ या घटा सकते हैं.
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