बुधवार, 27 जून 2012

ओ प्रधानमंत्री

ऐ प्रधानमंत्री
तुम मुस्कराते नहीं
तुम हिन्दी नहीं बोल पाते
तुम अपने एसी दफ्तर से निकल कर
कभी गाँव शहर नहीं घूमे
तुम कार से उतर कर पैदल नहीं चले
तुमने कभी किसी बनिए की दुकान से सामान नहीं खरीदा
कभी किसी सब्जी वाले से मोलतोल नहीं किया
तुमने कभी कीरोसिन के लिए लाइन नहीं लगाई
तुम कैसे प्रधानमंत्री हो !
जो अपने आम जन की भाषा नहीं जानता
वह उसके दुख दर्द किस भाषा में समझेगा
जिसने ज़मीन पर पाँव नहीं रखा
वह चटकती धूप की तपन
टूटी सड़कों में भरे गंदे पानी की छींट
बजबजाते नाले की दुर्गंध 
कैसे महसूस कर सकेगा
तुम बनिए की दुकान गए नहीं
तो महंगाई का मर्म क्या समझोगे
तुमने सब्जी वाले से मोलभाव नहीं किया
तो कैसे जानोगे कि अब शहर के आस पास
सब्जी उगाने के लिए ज़मीन ही नहीं
सारी जमीने  सेज़ (एसईज़ेड) की सेज चढ़ गईं
तुम कैसे जानोगे कि राशन की दुकान पर
अब कीरोसिन बिकता नहीं ब्लैक  होता है
ओह प्रधानमंत्री !!
शायद अपनी इसी गैर जानकारी के दुख से
तुम मुसकुराते नहीं।

सोमवार, 25 जून 2012

क्यूँ नहीं बदलती हमारी मानसिकता ?

यह छोटी खबर लखनऊ से है। लखनऊ के जिलाधिकारी के आवास के सामने मर्सिडीज स्पोर्ट्स कार  पर सवार  एक रईसजादे ने एक मोटर साइकल सवार को इसलिए गोली मार दी कि उसने कार को पास नहीं दिया था।  उस रईसजादे की गिरफ्तारी के बाद पता चला कि वह रईसज़ादा उस दिन अपने महिला मित्र के साथ एक रेस्तरां में गया था। वहाँ एक मोटर साइकल से आए लड़के ने लड़की से छेड़खानी की। जब लड़का लड़की बाहर आकर अपनी कार से जा रहे थे तो मोटर साइकल सवार युवक ने कार का पीछ किया और फिर लड़की पर भद्दे कमेंट्स किए। इस पर नाराज़ रईसजादे ने मोटर साइकल को ओवरटेक कर पहले सवार की पिटाई की फिर फायर झोंक दिया।
इस खबर से एक्शन थ्रिलर फिल्म निर्माताओं को सीन क्रिएट करने की खाद मिल सकती है। चाहे तो वह इसका उपयोग कर लें।
इस खबर का दूसरा पहलू भी है। यह आधुनिक होते और पाश्चात्य सभ्यता तेज़ी से अपनाते लखनऊ की त्रासदी भी है। अब लखनऊ के माल्स में जवान लड़के लड़कियां हाथों और कमर में हाथ डाले घूमने लगे है, होटलों और रेस्तरोन में खाने लगे हैं। लेकिन ब्रांडेड कपड़े पहने लखनऊ के युवाओं की मानसिकता अभी भी नहीं बदली है। आज भी किसी दूसरे लड़के के साथ घूमती लड़की, बशर्ते वह बहन न हो, माल है। उसे स्थानीय भाषा में छिनाल भी कहा जाता है। ऐसी लड़कियां गली गली छिनेती करती घूमती हैं। यह सस्ती होती हैं। इन्हे छेड़ा जाना, इनका दुपट्टा (अगर पहने हों तो) खींच लिया जाना किसी राह चलते शोहदे का अधिकार है।
आखिर क्यूँ नहीं बदली लखनऊ की मानसिकता? अभी भी हम पेंट शर्ट के अंदर विचारों से वैसे ही नंगे हैं, जैसे हमारे बाप दादा हुआ करते थे। इससे साफ है कि विकास नंगे आदमी को कपड़े तो पहना सकता है, पर उसके नंगे विचार नहीं बदल सकता। इसका प्रमाण वह आईपीएस अधिकारी भी है जो यह कहता है कि अगर मेरी घर की लड़की इस तरह भाग जाती तो मैं उसे ढूंढ कर जान से मार देता । ज़ाहिर है कि आईपीएस अधिकारी पढ़ा लिखा भी होता है और खुले विचारों वाला भी माना जाता है। साफ है कि आधुनिक ब्रांडेड कपड़े पहन लेने भर से मानसिक नंगई  खत्म नहीं हो जाती है। क्या इस पर कभी किसी महिला आयोग ने सोचा? नहीं,  क्यूंकी मानसिकता बदलने की तमीज़  इस आयोग  में नहीं। इससे सुर्खियां भी तो नहीं मिलती । वैसे भी जब महिला आयोग  खुद पुरुषों  द्वारा ईज़ाद भोगवादी अंग्रेज़ी शब्द सेक्सी को सही मानेगा तो ऐसा ही होगा ।

रविवार, 17 जून 2012

सावन ( saawan )

रिमझिम सावन
भीगे आँगन
तन मन मेरा। ।
ताल तलैया
ता ता थईया
गिर कर नाचे बूंद।
पात पात पर
बात बात पर
बच्चे थिरके झूम।
मोद मनाए
गीत सुनाये
तन मन मेरा ।।
खेत तर गए
डब डब भर गए
क्यों भाई साथी।
हलधर आओ
खेत निराओ
सब मिल साथी।
लहके बहके
चटके मटके
तन मन मेरा । ।
बीज उगेंगे
पौंध बनेंगे
धरा से झाँके  ।
फसल उगेगी
बरस उठेगी
कृषक की आँखें ।
घिर घिर आवन
सिहरत सावन
तन मन मेरा।






पिता (pita)


पिता के मायने
सबके लिए अलग अलग होते हैं
किसी के लिए फादर है
किसी के लिए पा या डेड़ी है
यह अपनी भाषा में पिता समझने के शब्द है
... पर
पिता को समझना है तो
पिता की भाषा समझो
जो केवल व्यक्त होती है
अपने बच्चे को देखती चमकदार आँखों से
बच्चे को उठाए हाथों के स्पर्श से
बीमार पड़ने पर रात रात जागती
आँखों के उनींदेपन से
बच्चे की परवरिश करने की तन्मयता से
बच्चे के भविष्य में अपना भविष्य खोजती बेचैनी से
जिसे आम तौर पर बच्चा
देख नहीं पाता
इसलिए
अपनी भाषा में कहता है-
मेरे फादर थे,
मेरे पा थे
मेरे डैडी थे।

शुक्रवार, 15 जून 2012

गाय



एक शहर की
वीरान और साफ सुथरी गली में
एक भूखी गाय घूम रही है
दोनों ओर घरों के बावजूद वीरानी है
क्यूंकि, घर के पुरुष ऑफिस चले गए हैं
और बच्चे स्कूल 
कामकाजी महिलायें भी निकल गयी हैं
घर में रह गए हैं
बूढ़े और निकम्मे
बूढ़े  सो गए हैं
उन्हे इससे मतलब नहीं
कि कोई गाय भूखी घूम रही है
निकम्मों के पास देने का कोई अधिकार नहीं होता
गाय को चाह है किसी बड़े से टुकड़े की
चाहे वह टुकड़ा रोटी का हो, दफ्ती का या कागज़ का
पॉलिथीन भी चल जाएगी,
अगर कुछ न मिले तो ।
मगर गाय को नहीं मालूम कि,
शहर अब साफ सुथरे रहने लगे हैं,
गलियाँ बिल्कुल गंदगी रहित हैं
कूड़ा नगर पालिका वाले उठा ले जाते हैं
बासी खाना भिखारी या घर में काम करें वाले नौकर
गाय सोच रही है-
कभी इस शहर में,
शहर की इस गंदी गली में
बेशक पीठ पर कुछ डंडे पड़ते थे
पर मुंह मारने को
इतना कुछ मिल जाता था
कि पेट भर जाता था
पीठ पर पड़े डंडों का
दर्द नहीं होता था।

रविवार, 10 जून 2012

काफिर (qaafir)

जागी हुई आँखों से जैसे कोई ख्वाब देखा है,
वीराने रेगिस्तानों में प्यासे ने आब देखा है।
बेशक नज़र आती हो जमाने को बेहयाई
मैंने उन्ही आंखो में शरमों लिहाज देखा है।
नशा ए रम चूर करता होगा तुझे जमाने
मैंने तो रम के ही अपना राम देखा है।
मजहब के नाम पर लड़ते हैं काफिर से
मैंने बुर्ज ए खुदा में अपना भगवान देखा है।

कन्या भ्रूण का विलाप (kanya bhroon ka vilaap)

वह
उसे गंदे बदबूदार कूड़े में
खून से सनी हुई ज़िंदगी पड़ी थी।
दूर खड़े ढेरो लोग
नाक से कपड़ा सटाये तमाशा देख रहे थे।
कुछ कमेंट्स कर रहे थे
खास कर औरते-
कौन थी वह निर्मोही!
जिसने बहा दिया इस प्रकार
अपनी कोख के टुकड़े को
नर्क में जाएगी वह दुष्ट !
बोल सकती अगर वह
अब निष्प्राण हो चुकी ज़िंदगी
तो शायद बोलती-
उम्र जीने से पहले मृत्यु दंड पा चुकी हूँ मैं
भोग रही हूँ, कोख से निकाल फेंक कर कूड़े का नर्क
क्या मुझे हक़ नहीं था
माँ की कोख में कुछ दिन रहने का
क्यों नहीं मंजूर थी मेरी ज़िंदगी
जीवांदायिनी माँ को !
क्या इसलिए कि मैं कन्या थी ?
या इसलिए कि मैं उसका पाप थी?
लेकिन कबसे पाप हो गया
कोई जीवन और कोई कन्या?

अकबर के सामने अनारकली का अपहरण, द्वारा सलीम !

जलील सुब्हानी अकबर ने हठ न छोड़ा।  सलीम से मोहब्बत करने के अपराध में, अनारकली को फिर पकड़ मंगवाया। उसे सलीम से मोहब्बत करने के अपराध और जलील स...