आज, १०
सितम्बर को, पूरा विश्व
वर्ल्ड सुसाइड डे मना रहा है. इस अवसर पर अपना एक
अनुभव.
यह बात, उस
समय की है, जब मेरी तैनाती
पेंशन निदेशालय में संयुक्त निर्देशक के पद पर हुई थी. ट्रान्सफर का मारा, जिसे प्रमोशन के लिए उत्कृष्ट यानि
आउटस्टैंडिंग पृविष्टि की जरूरत रहा करती थी. कितना परेशान हैरान विभागाध्यक्ष चाह
कर भी बैड नहीं लिख पाता था. इसलिए अधिकतर ने प्रविष्टि लिखी ही नहीं. एक आध ने
लिखी तो श्रेणी दी अच्छा. यह अच्छा क्या होता है. उस समय के लिहाज से मेरे प्रमोशन
के लिए बैड से भी खराब.
हमारे एक अधिकारी का कहना था कि कांडपाल जी, आप लोगों को बैड लिखो ही नहीं. सामान्य
लिख दो. प्रमोशन होगा नहीं. बैड लिखो तो जवाब देना पड़ेगा. विभागाध्यक्षों की इस
नीचता के कारण मेरा प्रमोशन लगातार रुक रहा था. डीपीसी होती. पता चलता कि प्रमोशन
नहीं हुआ है. दिल धक् से कर जाता. निराशा का गहरा कुहासा छा जाता. उस पर ट्रान्सफर
पर ट्रान्सफर.
हाँ. तो बात कर रहा था संयुक्त निर्देशक पेंशन निदेशालय
में तैनाती की. उस समय के निर्देशक बड़े सुलझे हुए व्यक्ति थे. मैं सोचता था कि कुछ
दिन ट्रान्सफर नहीं होगा. ठीकठाक समय कट जाएगा. सो चला गया पेंशन निदेशालय ज्वाइन
करने.
वहां पहला झटका लगा मुझे. जैसे ही मैंने निदेशक के सामने
जोइनिंग लैटर रखा. वह सन्नाटे में आ गए. उनका चेहरा बुझ गया. कुछ मिनट ख़ामोशी की
गहरी चादर छाई रही. उसके बाद उन्होंने पूछा, 'विल यू ज्वाइन?' मैंने कहा, 'मैं आया ही इसीलिए हूँ सर'. उन्होंने सम्बंधित बाबू को बुलाया. कहा, 'ये कांडपाल जी हैं, नए जॉइंट डायरेक्टर. इन्हें ज्वाइन करा
दो.उनके इस रुख से मैं बेहद निराश हो गया. जब वह खुश नहीं नजर आ रहे तो होगा क्या!
तभी निर्देशक महोदय की आवाज कान में पड़ी, 'कांडपाल जी, (डिप्टी डायरेक्टर की तरफ इशारा करते
हुए) यह उपनिदेशक है. प्रशासन इन्ही के पास है. अच्छा काम कर रहे है.'
मैं इशारा समझ गया. मैंने कहा, 'सर कोई बात नहीं. मुझे जो काम देना
चाहे दे दें.' निर्देशक महोदय
ने उसी समय ट्रान्सफर हुए एक अन्य उपनिदेशक का कार्य और पेंशन अदालत का काम मुझे
सौंप दिया.
चार्ज सर्टिफिकेट भर कर अपने निर्धारित कमरे में गया तो
हैरान रह गया. सामने रखी कुर्सियां और उपनिदेशक के आराम के लिए रखा गया दीवान
पेंशन पत्रावलियों से भरा हुआ था. बैठने तक की जगह नहीं थी. यहाँ तक कि जमीन पर भी
फाइल्स रखी थी. यह सभी फाइल्स नई पेंशन और रिवाइज्ड पेंशन की थी. मैं हैरान सा सब
देखता रह गया. अल्लाह अल्लाह खैरसल्ला कह कर फाइल्स देखनी शुरू कर दी.
दूसरे दिन, स्थानांतरित हो चुके उपनिदेशक महोदय आये. उस समय तक वह
भी संयुक्त निर्देशक हो चुके थे. मुझसे नौ साल जूनियर बैच के, मेरे बराबर के पद पर पहुँच गए थे.
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे, मुस्कुराते हुए बोले, 'सर मैं भी आपके बराबर आ गया. मैं भी संयुक्त निर्देशक
हो गया.' उनका यह तीर
सीने में धंस गया. हजारों की संख्या में पेंशन फाइल पेंडिंग रख गया अधिकारी मुझे
अपनी बराबरी दिखा रहा था.
मैंने तल्ख़ टिप्पणी की, 'महाराज, यह
फाइल्स देख रहे हो. तुम्ही छोड़ गये हो.' वह बोले, 'सर क्या करता ! शासन सही पोस्टिंग नहीं कर रहा था.
ट्रान्सफर हो गया था. इसलिए फाइल्स करना बंद कर दिया.' मैंने कहा, ' पर इसमें इन बेचारे पेंशनरस का क्या
दोष. तुमने तो इन्हें मोहताज कर दिया.' फिर मैंने उनको हडकाया. 'इतना तुम समझ लो कि मैं १९७५ बैच का अधिकारी हूँ, तुम १९८४ बैच के. तुम मेरे बराबर तो इस
जन्म मे क्या कभी भी नहीं आ सकते. अगले जन्म में भी हम दोनों सेलेक्ट हुए तो या
तुम बैच में ऊपर होगे या मैं. बराबर तो हो ही नहीं सकते. रही मेरे बराबर प्रमोशन
पाने की बात तो तुम्हारी तरह मैं भी प्रमोशन पा गया था. पर अब उत्कृष्ट चाहिए. तुम
जो धंधा पानी कर गए हो, अगर मैंने इन सब
की लिस्ट बना कर निर्देशक और शासन को भेज दी तो इतनी तगड़ी एंट्री घुसेगी कि अगले
जन्म में ही निकल पाएगी.' वह घबरा गए.
सॉरी सॉरी बोल कर बाहर निकल गए.
यह पल मेरे लिए अवसाद का क्षण था. मैं सोचता रहा. मैंने
ऐसा क्या कर दिया था कि बैड एंट्री नहीं पा कर भी प्रमोशन नहीं पा सका था. एक तरफ शासन
ईमानदारी से काम की बात करता है, अपने
विभागाध्यक्ष के गलत कामों की रिपोर्ट भेजने का नियम बना कर रखता है. उस पर
वार्षिक पृविष्टि का दायित्व ही उन्हें भ्रष्ट हाथों में है. मैंने सोचा तब तो हो
गया प्रमोशन.
निर्देशक पेंशन की बेरुखी और उपनिदेशक की बदतमीजी ने
मुझे अवसाद के गहरे सागर में धकेल दिया. उसी समय मेरे मन में विचार आया, खिड़की से नीचे छलांग लगा दूं. लगातार
इस तरह अपमानित होने से क्या फायदा. एक पल में जीवन ख़त्म हो जाएगा.
मेरे मन में यह विचार कुछ सेकंड के लिए ही रहा. यह मेरे
लिए भारी था. उस समय में शून्य विचार हो गया था. कुछ भी कर सकता था. आत्महत्या भी.
अगले पल मैं इससे बाहर निकला. अपने चेहरे पर चार थप्पड़
मारे. साले चूतिये. धार के विरुद्ध बहना चाहता है. बेईमानों के बीच ईमानदारी की
गंगा में नहाना चाहता है तो इसका फल मिलेगा ही. तो इसमें निराश क्यों होना. जैसा
करम, वैसा फल.
दूसरे पल मैंने सोचा, जब तक हूँ पेंशनर्स का ही भला करू. उनका क्या दोष अगर
मेरा प्रमोशन नहीं हो रहा. अगले ही पल में निराशा के सागर से उबर कर, पेंडिंग फाइल्स के ढेर में जा घुसा था.
सो मित्रों हर परिस्थिति में खुद पर काबू रखिए. आपने जो
किया है, उस पर विश्वास
कीजिये. श्रीकृष्ण भगवान ने भी कहा, 'तुम कर्म करो, फल की चिंता मत करो.'
मैंने चिंता भगवान् पर छोड़ दी थी.
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