कल मैंने #worldsuicideday पर एक पोस्ट लिखी थी. आज इसका दूसरा
हिस्सा लिख रहा हूँ.
दरअसल, मेरी
सेवा की विशेषता यह है कि वह कौवा कान ले गया पर इतना विश्वास करती है कि कौवा
उसका कान ले गया या किसी और का कान, जानना नहीं चाहती. यह पूछने का सवाल ही नहीं उठता कि कान
सचमुच में गया या नहीं. बस दौड़ लगाने लगत्ते थे कौवे की पीछे.
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. ऐसा लखनऊ कोषागार में
हुई एक घटना के कारण हुआ था. उस घटना के बाद, मेरे बैच के ऑफिसर भी कहने लगे थे कि तुम झगडालू हो. अब
उनसे कौन कहे कि अकेला ऑफिसर मठाधीशों की भीड़ में मारपीट नहीं कर सकता. बहरहाल मेरी पहली इमेज अपनी सेवा के अधिकारीयों
में यही बनी थी. शायद यही इमेज निदेशक कोषागार के मस्तिष्क में भी थी. इसी से वह
मुझसे उचाट थे.
बहरहाल, मैं
इस सब से बेपरवाह कर्मण्ये वाधिकारस्ते पर विश्वास करता हुआ अपने कमरे पर रखी
पेंशन फाइल्स निबटाने में जुट गया. फाइलों का इतना बड़ा जखीरा दिमाग हिलाए दे रहा
था. मैंने सोचा, भाई निर्देशक
खुश नहीं है, ट्रान्सफर तो
करवा ही देंगे. सो जब तक यहाँ हूँ पेंशनर्स का जितना भला कर सकूं, कर दूं. मैंने फाइल्स को तेजी से
निबटाना शुरू कर दिया. तभी मेरे दिमाग में संयुक्त निदेशक बन गए उपनिदेशक घूम गए.
मैंने कहा, चलो उनकी
जन्मपत्री तो बना दो. उनका भाग्य बांचना तो बाद की बात है. मैंने सभी फाइल्स वापस
मंगाई और एक रजिस्टर इशू करवा लिया. अब मैंने निबटाई गई फाइल्स को उनके एम आई नंबर
और पेंशनर के नाम के साथ दर्ज करना शुरू कर दिया. इस से मुझे एक बिलकुल नई बात पता
चली.
हुआ यह कि एक दिन एक व्यक्ति मेरे पास आया. उसने बताया
कि उसकी पेंशन के कागज़ कुछ महीना पहले आये थे, अभी तक पीपीओ जारी नहीं हुआ है. मैने उसका नाम पूछा.
उसका नाम सुन कर मैं चौंक गया. मैंने तो पिछले हफ्ते ही उसके पीपीओ हस्ताक्षरित कर
दिए थे. मैंने सम्बंधित लेखाकार को बुलाया. मैंने जानकारी की तो मालूम हुआ कि वह
पत्रावली डिस्पैच में भेजी ही नहीं है. मैंने उस पत्रावली को माँग कर तुरंत
डिस्पैच करवाया और पेंशनर कॉपी उस व्यक्ति को दे दी. मैंने यह भी सुनिश्चित करवा
दिया कि पीपीओ कोषागार को डिस्पैच हो जाए.
मैं इस घटना को सोच रहा था कि मुझे कुछ शक हुआ. मैं
सेक्शन की तरफ निकल गया. सेक्शन में मिलन समारोह और दावत का माहौल था. मुझे देख कर
सभी मेहमान (जो पेंशनर थे तथा सम्बंधित लेखाकारों के रिश्तेदार बन कर आये थे) कमरे
से निकल लिए. मैने सम्बंधित लेखाकारों से
रजिस्टर के आधार पर पीपीओ डिस्पैच की जानकारी शुरू कर दी. मालूम हुआ कि मेरे
द्वारा एक महीने पहले साइन करे दिए गए पीपीओ और revision के पीपीओ डिस्पैच में भेजे ही नहीं गए थे. मैंने उन्हें
फटकार लगाईं और सभी फाइल्स को डिस्पैच में भिजवा दिया.
यहाँ मुझे पहली बार ज्ञान हुआ कि अधिकारी लोग पीपीओ में
साइन करने के बाद, इत्मीनान से हो
जाते है कि उन्होंने केस निबटा दिया. पर दरअसल वह जानबूझ कर या अनजाने में
सम्बन्धित लेखाकार को ब्लेंक चेक दे देते थे. जब सम्बंधित पेंशनर आता तो लेखाकार
महोदय बताते कि ऑफिसर बहुत खतरनाक है. कोशिश करते है, या शरीफ डिप्टी के लिए यह कहते कि उन
तक पैसा पहुँचाना पड़ता है. और फिर यथोचित रकम लेकर फाइल ले कर बाहर निकल जाते और
पीपीओ डिस्पैच करवा कर उसे कॉपी दे देते.
इसके बाद, मैने रजिस्टर में लगातार एंट्री शुरू कर दी. जब तक पीपीओ
निदेशालय से बाहंर नहीं चले जाते, तब
तक जानकारी मांगनी शुरू कर दी. उस समय के निर्देशक ने ऐसा सॉफ्टवेर तैयार करवा
दिया था कि डायरी से लेकर डिस्पैच तक की स्थिति मालूम हो सकती थी. मैंने इसे
निकलवाना शुरू कर दिया. इससे पेंशन मामलों के निस्तारण में वास्तविक तेजी आने लगी.
फल की चिंता किये बिना किये गए इस काम का नतीजा मुझे
अच्छा मिला. जो निदेशक यह समझ रहे थे कि मैं लड़ाकू और बावलिया हूँ, वह पेंशन मामलों के प्रभावी रूप से
निबट जाने के कारण प्रसन्न रहने लगे. मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था कि उन्होने
मेरे काम को वास्तव में अप्प्रेसिएट किया. शायद मेरे प्रति उनकी गलतफहमी दूर हो
चुकी थी. इसके बाद ही मेरे करियर में आमूलचूल परिवर्तन हो गया. क्या और कैसे हुआ ! यह फिर कभी.
#worldsuicideday 1
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