पेड़ पर
शेर की छलांग से परे
सुरक्षित दूरी पर
मचान लगा कर
शेर का शिकार करता हूँ
बंदूक के सहारे ।
फिर भी
शेर शिकार है
और मैं शिकारी।
All matter in this blog (unless mentioned otherwise) is the sole intellectual property of Mr Rajendra Kandpal and is protected under the international and federal copyright laws. Any form of reproduction of this text (as a whole or in part) without the written consent of Mr Kandpal will amount to legal action under relevant copyright laws. For publication purposes, contact Mr Rajendra Kandpal at: rajendrakandpal@gmail.com with a subject line: Publication of blog
पेड़ पर
शेर की छलांग से परे
सुरक्षित दूरी पर
मचान लगा कर
शेर का शिकार करता हूँ
बंदूक के सहारे ।
फिर भी
शेर शिकार है
और मैं शिकारी।
बरसों पहले मिले
कुछ लोग
अचानक खबर आती है
नहीं रहे वह लोग
तब ऐसा क्यों लगता है
कल ही तो मिले थे
वह लोग !
अब चिट्टी नहीं आती
मैं किसी को नहीं लिखता
कोई मुझे पोस्टकार्ड नहीं भेजता
अंतर्देशीय का प्रश्न नहीं
लिफ़ाफ़े!
जन्मदिन और वैवाहिक शुभकामनाओं तक
मैं कंप्युटर गाय हूँ
मेल भेजता हूँ
उत्तर मिल जाता है
कुछ मिनट या घण्टों में
पर ऐसे छूट जाते है
जो कंप्युटर गायज नहीं
क्योंकि मैं पत्र नहीं लिखता
मैं कंप्युटर गाय हूँ.
जागेगा
भागेगा
जीवन जीने को होड़
इसे दौड़ाएगी
यह क्लांत नहीं होगा
अशांत नहीं होगा
रुकेगा नहीं
ठोकर खा कर भी
क्योंकि वह जानता है
एक दिन
जीवन देगा ठोकर
घायल होगा जीव
पर यह महानगर
रुकेगा नहीं, थकेगा
इसी का नाम जीवन
महानगर अभी सोया है, बस!
कल मैंने #worldsuicideday पर एक पोस्ट लिखी थी. आज इसका दूसरा
हिस्सा लिख रहा हूँ.
दरअसल, मेरी
सेवा की विशेषता यह है कि वह कौवा कान ले गया पर इतना विश्वास करती है कि कौवा
उसका कान ले गया या किसी और का कान, जानना नहीं चाहती. यह पूछने का सवाल ही नहीं उठता कि कान
सचमुच में गया या नहीं. बस दौड़ लगाने लगत्ते थे कौवे की पीछे.
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. ऐसा लखनऊ कोषागार में
हुई एक घटना के कारण हुआ था. उस घटना के बाद, मेरे बैच के ऑफिसर भी कहने लगे थे कि तुम झगडालू हो. अब
उनसे कौन कहे कि अकेला ऑफिसर मठाधीशों की भीड़ में मारपीट नहीं कर सकता. बहरहाल मेरी पहली इमेज अपनी सेवा के अधिकारीयों
में यही बनी थी. शायद यही इमेज निदेशक कोषागार के मस्तिष्क में भी थी. इसी से वह
मुझसे उचाट थे.
बहरहाल, मैं
इस सब से बेपरवाह कर्मण्ये वाधिकारस्ते पर विश्वास करता हुआ अपने कमरे पर रखी
पेंशन फाइल्स निबटाने में जुट गया. फाइलों का इतना बड़ा जखीरा दिमाग हिलाए दे रहा
था. मैंने सोचा, भाई निर्देशक
खुश नहीं है, ट्रान्सफर तो
करवा ही देंगे. सो जब तक यहाँ हूँ पेंशनर्स का जितना भला कर सकूं, कर दूं. मैंने फाइल्स को तेजी से
निबटाना शुरू कर दिया. तभी मेरे दिमाग में संयुक्त निदेशक बन गए उपनिदेशक घूम गए.
मैंने कहा, चलो उनकी
जन्मपत्री तो बना दो. उनका भाग्य बांचना तो बाद की बात है. मैंने सभी फाइल्स वापस
मंगाई और एक रजिस्टर इशू करवा लिया. अब मैंने निबटाई गई फाइल्स को उनके एम आई नंबर
और पेंशनर के नाम के साथ दर्ज करना शुरू कर दिया. इस से मुझे एक बिलकुल नई बात पता
चली.
हुआ यह कि एक दिन एक व्यक्ति मेरे पास आया. उसने बताया
कि उसकी पेंशन के कागज़ कुछ महीना पहले आये थे, अभी तक पीपीओ जारी नहीं हुआ है. मैने उसका नाम पूछा.
उसका नाम सुन कर मैं चौंक गया. मैंने तो पिछले हफ्ते ही उसके पीपीओ हस्ताक्षरित कर
दिए थे. मैंने सम्बंधित लेखाकार को बुलाया. मैंने जानकारी की तो मालूम हुआ कि वह
पत्रावली डिस्पैच में भेजी ही नहीं है. मैंने उस पत्रावली को माँग कर तुरंत
डिस्पैच करवाया और पेंशनर कॉपी उस व्यक्ति को दे दी. मैंने यह भी सुनिश्चित करवा
दिया कि पीपीओ कोषागार को डिस्पैच हो जाए.
मैं इस घटना को सोच रहा था कि मुझे कुछ शक हुआ. मैं
सेक्शन की तरफ निकल गया. सेक्शन में मिलन समारोह और दावत का माहौल था. मुझे देख कर
सभी मेहमान (जो पेंशनर थे तथा सम्बंधित लेखाकारों के रिश्तेदार बन कर आये थे) कमरे
से निकल लिए. मैने सम्बंधित लेखाकारों से
रजिस्टर के आधार पर पीपीओ डिस्पैच की जानकारी शुरू कर दी. मालूम हुआ कि मेरे
द्वारा एक महीने पहले साइन करे दिए गए पीपीओ और revision के पीपीओ डिस्पैच में भेजे ही नहीं गए थे. मैंने उन्हें
फटकार लगाईं और सभी फाइल्स को डिस्पैच में भिजवा दिया.
यहाँ मुझे पहली बार ज्ञान हुआ कि अधिकारी लोग पीपीओ में
साइन करने के बाद, इत्मीनान से हो
जाते है कि उन्होंने केस निबटा दिया. पर दरअसल वह जानबूझ कर या अनजाने में
सम्बन्धित लेखाकार को ब्लेंक चेक दे देते थे. जब सम्बंधित पेंशनर आता तो लेखाकार
महोदय बताते कि ऑफिसर बहुत खतरनाक है. कोशिश करते है, या शरीफ डिप्टी के लिए यह कहते कि उन
तक पैसा पहुँचाना पड़ता है. और फिर यथोचित रकम लेकर फाइल ले कर बाहर निकल जाते और
पीपीओ डिस्पैच करवा कर उसे कॉपी दे देते.
इसके बाद, मैने रजिस्टर में लगातार एंट्री शुरू कर दी. जब तक पीपीओ
निदेशालय से बाहंर नहीं चले जाते, तब
तक जानकारी मांगनी शुरू कर दी. उस समय के निर्देशक ने ऐसा सॉफ्टवेर तैयार करवा
दिया था कि डायरी से लेकर डिस्पैच तक की स्थिति मालूम हो सकती थी. मैंने इसे
निकलवाना शुरू कर दिया. इससे पेंशन मामलों के निस्तारण में वास्तविक तेजी आने लगी.
फल की चिंता किये बिना किये गए इस काम का नतीजा मुझे
अच्छा मिला. जो निदेशक यह समझ रहे थे कि मैं लड़ाकू और बावलिया हूँ, वह पेंशन मामलों के प्रभावी रूप से
निबट जाने के कारण प्रसन्न रहने लगे. मेरे लिए इतना ही पर्याप्त था कि उन्होने
मेरे काम को वास्तव में अप्प्रेसिएट किया. शायद मेरे प्रति उनकी गलतफहमी दूर हो
चुकी थी. इसके बाद ही मेरे करियर में आमूलचूल परिवर्तन हो गया. क्या और कैसे हुआ ! यह फिर कभी.
#worldsuicideday 1
आज, १०
सितम्बर को, पूरा विश्व
वर्ल्ड सुसाइड डे मना रहा है. इस अवसर पर अपना एक
अनुभव.
यह बात, उस
समय की है, जब मेरी तैनाती
पेंशन निदेशालय में संयुक्त निर्देशक के पद पर हुई थी. ट्रान्सफर का मारा, जिसे प्रमोशन के लिए उत्कृष्ट यानि
आउटस्टैंडिंग पृविष्टि की जरूरत रहा करती थी. कितना परेशान हैरान विभागाध्यक्ष चाह
कर भी बैड नहीं लिख पाता था. इसलिए अधिकतर ने प्रविष्टि लिखी ही नहीं. एक आध ने
लिखी तो श्रेणी दी अच्छा. यह अच्छा क्या होता है. उस समय के लिहाज से मेरे प्रमोशन
के लिए बैड से भी खराब.
हमारे एक अधिकारी का कहना था कि कांडपाल जी, आप लोगों को बैड लिखो ही नहीं. सामान्य
लिख दो. प्रमोशन होगा नहीं. बैड लिखो तो जवाब देना पड़ेगा. विभागाध्यक्षों की इस
नीचता के कारण मेरा प्रमोशन लगातार रुक रहा था. डीपीसी होती. पता चलता कि प्रमोशन
नहीं हुआ है. दिल धक् से कर जाता. निराशा का गहरा कुहासा छा जाता. उस पर ट्रान्सफर
पर ट्रान्सफर.
हाँ. तो बात कर रहा था संयुक्त निर्देशक पेंशन निदेशालय
में तैनाती की. उस समय के निर्देशक बड़े सुलझे हुए व्यक्ति थे. मैं सोचता था कि कुछ
दिन ट्रान्सफर नहीं होगा. ठीकठाक समय कट जाएगा. सो चला गया पेंशन निदेशालय ज्वाइन
करने.
वहां पहला झटका लगा मुझे. जैसे ही मैंने निदेशक के सामने
जोइनिंग लैटर रखा. वह सन्नाटे में आ गए. उनका चेहरा बुझ गया. कुछ मिनट ख़ामोशी की
गहरी चादर छाई रही. उसके बाद उन्होंने पूछा, 'विल यू ज्वाइन?' मैंने कहा, 'मैं आया ही इसीलिए हूँ सर'. उन्होंने सम्बंधित बाबू को बुलाया. कहा, 'ये कांडपाल जी हैं, नए जॉइंट डायरेक्टर. इन्हें ज्वाइन करा
दो.उनके इस रुख से मैं बेहद निराश हो गया. जब वह खुश नहीं नजर आ रहे तो होगा क्या!
तभी निर्देशक महोदय की आवाज कान में पड़ी, 'कांडपाल जी, (डिप्टी डायरेक्टर की तरफ इशारा करते
हुए) यह उपनिदेशक है. प्रशासन इन्ही के पास है. अच्छा काम कर रहे है.'
मैं इशारा समझ गया. मैंने कहा, 'सर कोई बात नहीं. मुझे जो काम देना
चाहे दे दें.' निर्देशक महोदय
ने उसी समय ट्रान्सफर हुए एक अन्य उपनिदेशक का कार्य और पेंशन अदालत का काम मुझे
सौंप दिया.
चार्ज सर्टिफिकेट भर कर अपने निर्धारित कमरे में गया तो
हैरान रह गया. सामने रखी कुर्सियां और उपनिदेशक के आराम के लिए रखा गया दीवान
पेंशन पत्रावलियों से भरा हुआ था. बैठने तक की जगह नहीं थी. यहाँ तक कि जमीन पर भी
फाइल्स रखी थी. यह सभी फाइल्स नई पेंशन और रिवाइज्ड पेंशन की थी. मैं हैरान सा सब
देखता रह गया. अल्लाह अल्लाह खैरसल्ला कह कर फाइल्स देखनी शुरू कर दी.
दूसरे दिन, स्थानांतरित हो चुके उपनिदेशक महोदय आये. उस समय तक वह
भी संयुक्त निर्देशक हो चुके थे. मुझसे नौ साल जूनियर बैच के, मेरे बराबर के पद पर पहुँच गए थे.
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे, मुस्कुराते हुए बोले, 'सर मैं भी आपके बराबर आ गया. मैं भी संयुक्त निर्देशक
हो गया.' उनका यह तीर
सीने में धंस गया. हजारों की संख्या में पेंशन फाइल पेंडिंग रख गया अधिकारी मुझे
अपनी बराबरी दिखा रहा था.
मैंने तल्ख़ टिप्पणी की, 'महाराज, यह
फाइल्स देख रहे हो. तुम्ही छोड़ गये हो.' वह बोले, 'सर क्या करता ! शासन सही पोस्टिंग नहीं कर रहा था.
ट्रान्सफर हो गया था. इसलिए फाइल्स करना बंद कर दिया.' मैंने कहा, ' पर इसमें इन बेचारे पेंशनरस का क्या
दोष. तुमने तो इन्हें मोहताज कर दिया.' फिर मैंने उनको हडकाया. 'इतना तुम समझ लो कि मैं १९७५ बैच का अधिकारी हूँ, तुम १९८४ बैच के. तुम मेरे बराबर तो इस
जन्म मे क्या कभी भी नहीं आ सकते. अगले जन्म में भी हम दोनों सेलेक्ट हुए तो या
तुम बैच में ऊपर होगे या मैं. बराबर तो हो ही नहीं सकते. रही मेरे बराबर प्रमोशन
पाने की बात तो तुम्हारी तरह मैं भी प्रमोशन पा गया था. पर अब उत्कृष्ट चाहिए. तुम
जो धंधा पानी कर गए हो, अगर मैंने इन सब
की लिस्ट बना कर निर्देशक और शासन को भेज दी तो इतनी तगड़ी एंट्री घुसेगी कि अगले
जन्म में ही निकल पाएगी.' वह घबरा गए.
सॉरी सॉरी बोल कर बाहर निकल गए.
यह पल मेरे लिए अवसाद का क्षण था. मैं सोचता रहा. मैंने
ऐसा क्या कर दिया था कि बैड एंट्री नहीं पा कर भी प्रमोशन नहीं पा सका था. एक तरफ शासन
ईमानदारी से काम की बात करता है, अपने
विभागाध्यक्ष के गलत कामों की रिपोर्ट भेजने का नियम बना कर रखता है. उस पर
वार्षिक पृविष्टि का दायित्व ही उन्हें भ्रष्ट हाथों में है. मैंने सोचा तब तो हो
गया प्रमोशन.
निर्देशक पेंशन की बेरुखी और उपनिदेशक की बदतमीजी ने
मुझे अवसाद के गहरे सागर में धकेल दिया. उसी समय मेरे मन में विचार आया, खिड़की से नीचे छलांग लगा दूं. लगातार
इस तरह अपमानित होने से क्या फायदा. एक पल में जीवन ख़त्म हो जाएगा.
मेरे मन में यह विचार कुछ सेकंड के लिए ही रहा. यह मेरे
लिए भारी था. उस समय में शून्य विचार हो गया था. कुछ भी कर सकता था. आत्महत्या भी.
अगले पल मैं इससे बाहर निकला. अपने चेहरे पर चार थप्पड़
मारे. साले चूतिये. धार के विरुद्ध बहना चाहता है. बेईमानों के बीच ईमानदारी की
गंगा में नहाना चाहता है तो इसका फल मिलेगा ही. तो इसमें निराश क्यों होना. जैसा
करम, वैसा फल.
दूसरे पल मैंने सोचा, जब तक हूँ पेंशनर्स का ही भला करू. उनका क्या दोष अगर
मेरा प्रमोशन नहीं हो रहा. अगले ही पल में निराशा के सागर से उबर कर, पेंडिंग फाइल्स के ढेर में जा घुसा था.
सो मित्रों हर परिस्थिति में खुद पर काबू रखिए. आपने जो
किया है, उस पर विश्वास
कीजिये. श्रीकृष्ण भगवान ने भी कहा, 'तुम कर्म करो, फल की चिंता मत करो.'
मैंने चिंता भगवान् पर छोड़ दी थी.
कभी लगता है
डोर
छूट रही है
हाथों
से
साँसों
की
अगले
ही पल
लपक
लेता हूँ क्षण
बाँध
लेता हूँ श्वांस
छोड़ता
नहीं आस
यह
क्या है ?
इच्छा
अगली श्वांस की
लालच
जीने का
यहीं
तो जीवन है कदाचित !
जलील सुब्हानी अकबर ने हठ न छोड़ा। सलीम से मोहब्बत करने के अपराध में, अनारकली को फिर पकड़ मंगवाया। उसे सलीम से मोहब्बत करने के अपराध और जलील स...