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संदेश

सड़क

सड़क अगर सोचती कि, मैं रोजाना ही हजारों-लाखों राहगीरों को इधर से उधर उधर से इधर लाती ले जाती हूँ। अव्वल तो थक जाती आदमी के बोझ से दब जाती या फिर राहगीर चुनती मैं इसे नहीं, उसे ले जाऊँगी मगर सड़क ऐसा नहीं सोचती इसीलिए उसे रोजाना रौंदने वाले प्राणी बेजान सड़क कहते हैं। 

चार क्षणिकाएँ

आसमान हवा पानी और ज़मीन सब मेरे फिर भी  मैं भिखारी फिर कैसा दाता ! २. ऎसी घमासान तू तू मैं मैं कोई समूह नहीं सिर्फ मैं कहीं नहीं 'आप' ! ३. दिन निकलता है अँधेरे की गोद से या अँधेरे को उगलता है? ४. बच्चा रोता नहीं बहल जाता है झुनझुने से रोते बड़े हैं बहलते नहीं झुनझुने से।

हैरान सूरज

सूरज हैरान क्रोध से तपता जलती धरती सब बेचैन वृक्ष मुरझाये से पशु-पक्षी दुबके हुए सडकों पर सन्नाटा तारकोल आँसू बहाता पर, सबसे निरपेक्ष एक कृशकाय सड़क को नापता पैरों में टायर की टूटी चप्पल कपडे की डोर से बाँधी हुई ऊपर समेटी हुई लुंगी  छिदही बनियाइन से बह रहा था पसीने का झरना आँखों में आते पसीने की बूँद को एक हाथ से झटक देता ठेला खड़ा कर सर से उतारता है तौलिया मुंह और हाथ पैर का पसीना पोंछ ऊपर देखता है सूरज को हाथ जोड़ता है - हे भगवन ! सूरज हैरान है !!

घरों में

सुबह जब लोग सोये होते हैं घर तब मकान होते हैं।  २. रोशनदान खिड़कियां और दरवाज़े सब खुले सिर्फ दिल न खुले। ३. कीमती  सामान और बड़े बुजुर्ग सब  कीमती इसीलिए सब कोठरी में। ४. घर में माँ की इज़्ज़त बहू इतनी करती है किसी के आने पर झाड़ू छीन लेती है।  ५. घरों में अब दादी- दादा के किस्से नहीं किस्सों में दादी-दादा सुने सुनाये जाते हैं। 

नया साल- पांच विचार

छुटकन ने नए मकान में मनाया नया साल माँ बापू को मिल गया था जहाँ काम।  २- दिसम्बर में क्रिसमस होता है न्यू इयर होता है खूब ठण्ड पड़ती है अमीर सेलिब्रेट करते हैं और गरीब भी क्योंकि, मौत के बाद गरीबों में भी होता है मृत्यु भोज ।   ३- सूर्य किरण मुन्ने ने खोली आँख नव-वर्ष में ४-  अतीत की धुंध की लेकर एक चुस्की विदा हो गया साल। ५- कैलेंडर  पर जमी थी अतीत की धूल साफ़ कर दी धूल और दीवार भी नए कैलेंडर के लिए।

लौट आओ माँ

घर की दहलीज़ पर दीप जला कर रखती थी माँ ताकि, वापस आ जाएँ भटके हुए पिताजी लेकिन, न पिताजी घर वापस आये न माँ दीप जलाना भूली एक दिन माँ भी चली गयी शायद वहीँ जहाँ पिता गए होंगे लेकिन, घर की दहलीज़ पर आज भी दीप जलता है  मैं जलाती हूँ ताकि, अब लौट आओ माँ !

अकड़ के

हर्ज़ क्या है खड़े होने में अकड़ के ! तेरे बाप की नहीं सड़क मेरे बाप की है हनक कचरा क्यों न फैलाऊँ गली में, कूचे में अकड़ के। खाक तुम इंसान हो अहमक अपने से परेशान हो बेझिझक दबे रहो, न सर उठाओ हम आये हैं अकड़ के। अपना- पराया कौन मत बहक आएगा कौन जायेगा कौन मत समझ जीता वही जो रहता है मुर्ग सा घूमता हुआ  अकड़ के।