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संदेश

काफिर (qaafir)

जागी हुई आँखों से जैसे कोई ख्वाब देखा है, वीराने रेगिस्तानों में प्यासे ने आब देखा है। बेशक नज़र आती हो जमाने को बेहयाई मैंने उन्ही आंखो में शरमों लिहाज देखा है। नशा ए रम चूर करता होगा तुझे जमाने मैंने तो रम के ही अपना राम देखा है। मजहब के नाम पर लड़ते हैं काफिर से मैंने बुर्ज ए खुदा में अपना भगवान देखा है।

कन्या भ्रूण का विलाप (kanya bhroon ka vilaap)

वह उसे गंदे बदबूदार कूड़े में खून से सनी हुई ज़िंदगी पड़ी थी। दूर खड़े ढेरो लोग नाक से कपड़ा सटाये तमाशा देख रहे थे। कुछ कमेंट्स कर रहे थे खास कर औरते- कौन थी वह निर्मोही! जिसने बहा दिया इस प्रकार अपनी कोख के टुकड़े को नर्क में जाएगी वह दुष्ट ! बोल सकती अगर वह अब निष्प्राण हो चुकी ज़िंदगी तो शायद बोलती- उम्र जीने से पहले मृत्यु दंड पा चुकी हूँ मैं भोग रही हूँ, कोख से निकाल फेंक कर कूड़े का नर्क क्या मुझे हक़ नहीं था माँ की कोख में कुछ दिन रहने का क्यों नहीं मंजूर थी मेरी ज़िंदगी जीवांदायिनी माँ को ! क्या इसलिए कि मैं कन्या थी ? या इसलिए कि मैं उसका पाप थी? लेकिन कबसे पाप हो गया कोई जीवन और कोई कन्या?

पत्नी (patni)

पत्नी मैं तुझसे प्रेम करता हूँ। क्यूंकि, तू भी ढाई अक्षर की है और मेरा प्रेम भी। 2- पत्नी पति का पतन होने से बचाती हैं क्यूंकि, वह हमेशा कहती है- पतन-नी । 3- ढाई अक्षर वाली पत्नी ढाई अक्षर के बच्चों-  पुत्र और पुत्री को ढाई अक्षर का जन्म देती हैं। 4- शादी के मंत्रों में शादी करने वाले पंडित में 'अं' का उच्चार होता है इनके जरिये नारी और पुरुष मिलकर एक होते हैं। लेकिन ज्योही इन दोनों के बीच अहंकार का उच्चार होता है एक से दो हो जाते हैं।  5- मैंने उसे सात  फेरे लेकर पत्नी नहीं बनाया था। बल्कि साथ फेरे लेकर सात जन्मों का साथी बनाया था।

अनुभव (anubhav)

दादा जी समझाते थे अनुभव मिलना ज़िंदगी के लिए बहुत ज़रूरी है हम उससे कुछ सीखते हैं ज़िन्दगी आसान हो जाती है शायद दादाजी को अनुभव नहीं हुआ था या उन्होंने मिले अनुभवों से कुछ सीखा न था एक दिन पिताजी उन्हें छोड़ कर चले गए दादाजी अकेले रह गए मैंने देखे थे हमें जाते देख रहे दादाजी के आंसू मुझे याद आ रही है दादाजी की सीख लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ पिताजी से मिले इस अनुभव से मैं क्या सीख लूं?

आकाशदीप (akashdeep)

आसमान से बरसता काला घनघोर अन्धकार आकाशदीप को घेर कर बोला- ऐ मूर्ख! इस वियावान में किसके लिए जल रहा है कितना है तेरा प्रकाश कितनो को है इसकी चाह मेरी गोद में बैठ कर निरर्थक प्रकाश की मृग मरीचिका बना हुआ है जा सोजा . आकाशदीप टिमटिम मुस्कुराया- मैं भटके हुए नाविकों को राह सुझाता हूँ उनको उनका गंतव्य बताता हूँ . ठठा कर हंसा अन्धकार- बड़ा अबोध है तू, क्या तू कभी एक कदम चला है यहाँ से क्या तूने कभी पार किया है यह क्रोधित समुद्र कितना कठिन है, भयानक जलचरों से भरा इसे रात में पार करना तो कठिनतर है जबकि तेरा प्रकाश अत्यधिक मद्धम है स्वयं कुछ दूर तक नहीं चल सकता नाविक को राह क्या दिखा पायेगा बेचारा नाविक समुद्र की क्रोधित लहरों में फंस कर डूबता है और डूबेगा ही  . शांत बना रहा आकाशदीप- मित्र ! मैं नाविक को केवल लक्ष्य दिखाता  हूँ इस लक्ष्य को पाने के लिए बिना विचलित हुए जहाज खेना  मेरा नहीं नाविक का काम है मित्र जो लोग अपना मार्ग जानते पहचानते है ...

राज एक्सप्रेस भोपाल में प्रकाशित मेरी 2 कविताएँ।

राज एक्सप्रेस 20 मई 2012 राज एक्सप्रेस 3 जून 2012

पसीना

रिक्शावाला रिक्शा खींच रहा है सिर से पैर तक पसीने से नहाया है वह नहाया तो मैं भी हूँ बुरी तरह पसीने से क्यूंकि रिक्शावाला ने हुड नहीं लगाया है। मैं डांट लगाता हूँ हुड लगा होता तो मुझे गर्मी न लगती पैसा खर्च कर भी पसीना पसीना न होना पड़ता । रिक्शावाला कुछ नहीं बोलता सुनता रहता है मेरी भुनभुनाहट । गंतव्य तक पहुँच कर मैं दस का नोट देता हूँ रिक्शावाला कहता है- बाबूजी, कितनी गर्मी है दो रुपया और दे दो। मैं चीख उठता हूँ- क्या ग़ज़ब है खुला रिक्शा चला रहा है मुझे पसीना पसीना कर दिया, उस पर दो रुपया ज़्यादा मांग रहा है। मैं आगे बढ़ जाता हूँ रिक्शावाला की बुदबुदाहट कानों में पड़ती है- क्या मेरे पसीने का मोल दो रुपया भी ज़्यादा नहीं।