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संदेश

भ्रष्टाचार का क्रूर क्षेत्र

लोगों को लगता है कि मैं मार दिया गया हूँ. उन्होंने तैय्यारी शुरू कर दी है मेरे स्मारक या बुत बनाने की क्यूंकि यही एक ऐसा तरीका है जिससे किसी विचार या व्यक्तित्व को एक स्थान तक सीमित क्या जा सकता है उसे लोग देख सकते हैं पर उस पर विचार नहीं कर सकते वह नहीं चाहते कि कोई मुझ पर विचार करे मेरे सन्देश पर बहस करे क्यूंकि उन्होंने मुझे महाभारत के अभिमन्यु की तरह चारों और से घेर कर तीरों और तलवारों से बींधा है मेरा अंग अंग क्षत विक्षत किया है जब मैं गिर गया कुछ समय तक मेरी दूसरी सांस नहीं लौटी तो उन्होंने समझ लिया कि मैं मर गया हूँ वह जय घोष करने लगे . लेकिन मैं फीनिक्स की तरह जी उठूंगा मैं वापस आऊँगा इस संग्राम का हिस्सा बनने क्यूंकि विचार या व्यक्तित्व मारे नहीं जा सकते उन्हें कुछ पल के लिए निश्चेष्ट किया जा सकता है लेकिन निष्क्रिय या निर्जीव नहीं. यह शरीर में मर कर हवा में घुल जाते हैं, मिटटी में सांस लेते हैं और फिर बीज बन कर नया पौंधा बन जाते हैं. इसलिए मैं ज़रूर आऊँगा फीनिक्स की तरह. अभिमन्यु बन कर भ्रष्टाचार के क्रूर क्षेत्र में लड़ने. ...

खुशियां

मैं खड़ा रहा लोग आते गए रंग लगाते गए. जो लगा जाते दूर खड़े हो कर मेरा चेहरा देख कर हंसते- देखो, कैसा बन्दर बना दिया है. मैं उनकी इस खुशी पर दूना खुश हो रहा था. मैं उन्हें कैसे बताता कि मेरे चेहरे पर लगे रंग वह खुशियाँ हैं, जो दोनों हाथ लुटाई गयी हैं.

साली होली

मैंने पत्नी से कहा- आओ खेलते हैं होली! वह इठलाते हुए बोली- मैं तो आपकी तीस साल पहले ही हो ली !!! 2- लोग पता नहीं क्यूँ साली के साथ खेलते हैं होली? क्यूँ नहीं खेलते पत्नी के साथ होली जो पूरे साल बिखेरती हैं आँगन में रंगोली!!! 3- मैं पत्नी को कहता हूँ साली। वह पलट के देती है मुझे यह गाली- धत्त, बड़े वो हो जी!!! 4- क्यूँ होती है साली आधी घरवाली क्यूंकि घर तो पूरा करती है घरवाली। 5- साली जीजा को जी 'जा'  कह कर भगाती है। और अपने उनको ऐ जी कह कर बुलाती है।

मन

मेरे मन आँगन में महकती हैं भावनाएं खिलते हैं आशाओं के फूल और पुलकित हो उठता है शरीर जैसे कोई नन्ही बच्ची दौड़ती फिरती है घर आँगन में किलकारी भरती है माँ के लिए और बाहें फैला कर कूद पड़ती है पिता की गोद में. यथार्थ मुझे यथार्थ बोध हुआ जब मैंने उसे बालदार कठोर देखा छुआ तो वह सचमुच कठोर था और जब तोडा तो वह मीठा नारियल साबित हुआ. भय कभी आप सोचो कि क्या अतीत इतना भयावना होता है कि आप उसकी ओर इतने सदमे में पीठ करते हो कि वर्तमान भी अतीत बन जाता है. मुक्ति मैं तब खरगोश जैसा दुबक  जाता हूँ. कबूतर जैसा सहम जाता हूँ जब मेरे सामने आ जाती है विपत्तियों की बिल्ली. जबकि मेरे सामने ही भय का चूहा खरगोश की तरह कुलांचे भर कर स्वतंत्र होना चाहता है कबूतर की तरह उड़ जाना चाहता है. मैं हूँ कि उसे मन की चूहेदानी में पकड़ कर बिल्ली से छुटकारा पाना चाहता हूँ. यह नहीं सोचता कि क्या क़ैद हो कर कोई मुक्ति पा सकता है बाहर बैठी भय की बिल्ली से.

सुख

जानते हो दुःख की लम्बाई कितनी होती? तुम्हारे जितनी तुम्हारे दिल दिमाग में सिमटी हुई लेकिन सुख उसे नापना मुश्किल है वह तुमसे तुम्हारे परिवार तक घर बाहर तक बहुत दूर दूर तक पहुँच जाता है तुम अपना सुख उछालो फिर देखो कितनी दूर दूर तक फ़ैल जाता है तुम्हारा सुख तुम नाप नहीं सकते.

गौरैया

एक एक कर बच्चे चले गए थे अपने अपने काम पर अपनी अपनी गृहस्थी में रमने तब मैं अकेला रह गया था. नितांत अकेला छोड़ कर पत्नी पहले ही चली गयी थी शायद वह मुझसे पहले इस यातना को सहना नहीं चाहती थी. सूना घर काटने को दौड़ता मुझे याद आता- बचपन में मैंने चिड़िया का एक घोसला तोड़ दिया था. अंडे निकाल कर जमीन पर पटक दिए थे. माँ ने बहुत डांटा था- बेटा यह क्या कर दिया किसी का घर उजाड़ दिया चिड़िया अब अकेली रह गयी उस दिन मुझे चिड़िया की चहचाहट दुःख भरी लगी इधर उधर देख रही थी मानो अपने अंडे खोज रही थी. चिड़िया के बच्चे नहीं हो पाए थे मेरे तो बच्चों के बच्चे हो गए उनके पैदा होने की खबरें आती ज़रूर थीं लेकिन बुलावा नहीं आया था पत्र केवल सूचनार्थ प्रेषित थे मुझे अचानक बाहर चहचाहट हुई एक चिड़िया इधर उधर कुछ ढूढ़ रही थी मुझे लगा दाना ढूंढ रही थी मैंने चावल के कुछ टूटे दाने दूर दीवाल पर रख दिए साथ में छोटे बर्तन में पानी भी चिड़िया पहले सशंकित हुई संदेह भरी नज़रों से मेरी ओर गर्दन घुमाई मुझे याद आ गया बचपन में घोसला तोड़ना दुबक गया परदे के पीछे. चिड़िया आश्वस्त हुई चावल के कुछ...

बादशाह

लालकिले की प्राचीर से एक प्रधानमंत्री तिरंगा फहराता है और भाषण देता है लाखों लाख लोग देखते सुनते हैं टीवी के जरिये और कुछ हजार कुछ सौ मीटर दूर नीचे बैठे हुए . उसके और जनता के बीच दूरियों की  ही नहीं बुलेट प्रूफ की बाधा भी होती है वह जनता का स्पर्श क्या पसीने की गंध तक महसूस नहीं कर पाता इसीलिए विद्युत् तरंगो से होता हुआ उसका सन्देश जन मानस को मथ नहीं पाता लेकिन इसमें प्रधानमंत्री की क्या गलती गलती पैंसठ साल पहले हुई थी जब स्वतंत्रता का ध्वज उस लालकिले की प्राचीर से फहराया गया था जिसे एक बादशाह ने हजारों मजदूरों का पसीना सोख कर बनवाया था. इसके बनाने वाले मजदूर किसी झोपड़ी में आधे अधूरे सो रहे थे और बादशाह आराम से था अपने महल में जनता और बादशाह के बीच की यह दूरी ही तो आज भी बनी हुई है.