कल मैंने #worldsuicideday पर एक पोस्ट लिखी थी. आज इसका दूसरा हिस्सा लिख रहा हूँ. दरअसल , मेरी सेवा की विशेषता यह है कि वह कौवा कान ले गया पर इतना विश्वास करती है कि कौवा उसका कान ले गया या किसी और का कान , जानना नहीं चाहती. यह पूछने का सवाल ही नहीं उठता कि कान सचमुच में गया या नहीं. बस दौड़ लगाने लगत्ते थे कौवे की पीछे. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. ऐसा लखनऊ कोषागार में हुई एक घटना के कारण हुआ था. उस घटना के बाद , मेरे बैच के ऑफिसर भी कहने लगे थे कि तुम झगडालू हो. अब उनसे कौन कहे कि अकेला ऑफिसर मठाधीशों की भीड़ में मारपीट नहीं कर सकता. बहरहाल मेरी पहली इमेज अपनी सेवा के अधिकारीयों में यही बनी थी. शायद यही इमेज निदेशक कोषागार के मस्तिष्क में भी थी. इसी से वह मुझसे उचाट थे. बहरहाल , मैं इस सब से बेपरवाह कर्मण्ये वाधिकारस्ते पर विश्वास करता हुआ अपने कमरे पर रखी पेंशन फाइल्स निबटाने में जुट गया. फाइलों का इतना बड़ा जखीरा दिमाग हिलाए दे रहा था. मैंने सोचा , भाई निर्देशक खुश नहीं है , ट्रान्सफर तो करवा...
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