शनिवार, 14 नवंबर 2020

दीपों की आयु



दीपोत्सव के बाद की सुबह

उठ कर बालकनी मे आया

जल चुके कई दीप बिखरे हुए थे।

मेरे मन मे संतुष्टि भाव था

रात तक प्रकाश बिखेरा था इन माटी के दीपों ने

तभी शंका उभरी

दीपों का मुँह काला पड़ चुका था

कदाचित जल जाने की उदासी थी

मन दुखी हुआ ।

तभी दिल ने कहा-

यह उदास हैं ।

तब से सोच रहा हूँ

क्योंकि, नहीं बिखेर सके

सारी रात प्रकाश ! 

क्यों कम होती है!

दीपों की आयु ?

बुधवार, 20 मई 2020

सरकारी सेवा में ब्राह्मण से प्रताड़ित हुआ एक ब्राह्मण


मैं एक विभाग में फाइनेंस कंट्रोलर था. वर्दी वाला विभाग था वह. एक डीजीपी साहब थे. जाति से ब्राह्मण और बेहद जातिवादी. मैं उनके अधीन काम करने के लिए भेजा गया. मेरा सरनेम कांडपाल है. उससे उन्हें यह गलतफहमी हो गई कि मैं पाल यानि गडरिया जाति या कहिये नीची जाति का हूँ. यहाँ मैं बता दूं कि मैंने अपनी सेवा भर अपना काम बेहद साफ सुथरा और पारदर्शिता वाला रखा है. मुझसे मेरे से सम्बंधित कोई सूचना मांगी जाए मैं तुरंत उपलब्ध करा सकता था. मेरे अधीन किसी कर्मचारी या अधिकारी की फाइल रोकने की हिम्मत नहीं हो सकती थी. इसके बावजूद न जाने क्या बात थी कि वह हमेशा नाराज़ नज़र आते. कनिष्ठ अधिकारियों के सामने गलत तरह से बात करते, डाट फटकार तो वह कहीं भी लगा सकते थे. मुझे नागवार गुजरता था, उनका कनिष्ठ अधिकारियों के सामने बदतमीजी करना. मैं इस विचार का अधिकारी रहा हूँ कि अगर किसी ने गलती की है तो उसे सज़ा जरूर दी जाए. फटकारना है तो उसकी गरिमा का ध्यान ज़रूर रखा जाए. लेकिन, वह ब्राह्मण देवता इसके कायल नहीं थे. चार पांच महीना तो यह चलता रहा. फिर मुझे लगा कि अब इनके द्वारा की जा रही मेरी बेइज्जती मेरे जमीर को ख़त्म कर रही है. मेरी सेल्फ रिस्पेक्ट चोटिल हो रही है. मैं खुद की नज़रों में गिरता जा रहा हूँ. इस स्थिति के आते ही मैंने इस पर लगाम लगाने का निर्णय कर लिया. इसके बाद, जैसे ही वह किसी मीटिंग में कुछ कहते, मैं चुपचाप सुनने के बजाय वैसे ही जवाब देता. इससे वह नाराज़ हो जाते. वह जोर से बोलते तो मैं थोडा कम जोर से बोलता. कुर्सी से खड़े हो जाते. मैं सोचता हूँ कि अगर में अधिकारी न होता तो शायद वह मेरा एनकाउंटर करवा देते. परन्तु मेरे प्रतिआक्रमण का नतीजा यह हुआ कि वह काफी कुछ सुधर गए. क्योंकि, उन्हें लग गया था कि अब उनकी रेस्पेक्ट पर चूना लग जाएगा. मैं खुश था.

मेरे किस्से का अंत कुछ यह हुआ कि उन्हें किसी बातचीत के दौरान यह मालूम पड़ गया कि कांडपाल उपनाम वाले लोग उत्तराँचल के ब्राह्मण होते हैं न कि नीची जात के. उसके बाद वह मेरे प्रति बिलकुल मक्खन जैसे मुलायम और बर्फी जैसे मीठे हो गए. मगर मेरा मन उनसे खट्टा हो चुका था. जो व्यक्ति जाति के आधार पर अपने अधीनस्थ के काम का आंकलन करता है, मैं उसकी इज्जत नहीं कर सकता. एक दिन मैंने उनके खिलाफ एक रिपोर्ट शासन को भेज दी. नतीजे के तौर पर मेरा तुरत फुरत तबादला हो गया. जयहिन्द.

बुधवार, 13 मई 2020

काले अक्षर

किताबें हमें
कुछ सिखा नहीं पाती
क्योंकि,
सफ़ेद पन्नों पर
काली स्याही से लिखे अक्षर
हम सिर्फ पढ़ते हैं
कुछ सीखते नहीं
क्योंकि हमारे लिये
भैंस बराबर हैं
काले अक्षर। 

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

शोक

तुम मत करना शोक ।
दुख किस बात का ! 
संताप किस बात का ! 
कौन मरा था तुम्हारा ? 
अख़बार की खबर था वह
कैमरे कि क्लिक का कमाल फोटो था वह 
ख़ून की छोटी नदी के बीच
फैला पड़ा था वह ।
कौन था तुम्हारा? कोई नहीं। 
काले अक्षरों से लिखा गया समाचार 
निरपेक्ष कैप्शन के ऊपर तना रंगीन फोटो सा वह।
तुम्हें किस बात का दुख ! संताप कैसा! 
तब शोक क्यों करना?

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

क्यों नहीं प्रभावित कर सकी ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान?


ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान के निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य लेखकनिर्देशकसंवाद लेखक और गीतकार हैं. उन्होंने धूम और धूम २ को लिखा था. गुरु में उनके लिखे संवाद थे. अक्षय कुमारकरीना कपूर और सैफ अली खान की फिल्म टशन से उनका बॉलीवुड फिल्म डेब्यू हुआ. यह फिल्म वितरकों और प्रदर्शकों के साथ विवाद में फंस कर काफी सिनेमाघरों में रिलीज़ नहीं हो सकी. विजय कृष्ण आचार्य की निर्देशक के रूप में दूसरी फिल्म धूम सीरीज की तीसरी फिल्म धूम ३ थी. इस फिल्म के नकारात्मक नायक आमिर खान थे. उनकी नायिका कैटरीना कैफ थी. जैकी श्रॉफ ने पिता की भूमिका की थी. इस फिल्म को जिन लोगों ने देखा हैवह समर्थन करेंगे कि यह फिल्म बेहद बेसिरपैर की बेवकूफियों से भरी फिल्म थी. पटकथा में ऐसा कोई लॉजिक नहीं दीया गया था कि आमिर खान के चरित्र ने डकैतियाँ डाली तो कैसे. बस पड़ गई डकैती. फिर भी आमिर खान और हिट गीतों के कारण क्रिसमस वीकेंड २०१३ पर रिलीज़ यह फिल्म सुपरहिट हो गई.

इस फिल्म के ५ साल बादविक्टर आचार्य की तीसरी निर्देशित फिल्म ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान दीवाली वीकेंड पर रिलीज़ हुई थी. विक्टर को इस फिल्म को लिखने में पांच साल लगे. लेकिनवह इन सालों में यह भ्रम पाले रहे कि सितारों की भरमार करकेभारी सेट्स के साथ वह फिल्म हिट करा ले जायेंगे. ऐसा सोचा जाना स्वाभाविक भी था. उन्होंने जिस आमिर खान के साथ सुपरडुपर हिट फिल्म धूम ३ बनाई थीवह ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान के एक ठग थे. अमिताभ बच्चन और कैटरीना कैफ भी थे. आमिर खान ने अपनी ख़ास फातिमा सना शैख़ को भी रखवा लिया था.

इतना सब तो ठीक था. विक्टर आचार्य और फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा ने फिल्म का फॉर्मेट अंग्रेजों के जमाने के डाकुओं वाला लिया. जोहनी डेप की फिल्म पाइरेट्स ऑफ़ द कॅरीबीयन का खाका दिमाग में रख कर सेट्स बनाए गए थे. आमिर खान ने जोहनी डेप की भद्दी नक़ल करके अभिनय किया था. अमिताभ बच्चन बूढ़े गोरिल्ला के तरह झूम रहे थे. यह दोनों अभिनेता ओवर एक्टिंग करने की होड़ में थे. कैटरीना कैफ की छोटी भूमिका रोबोट जैसी थी. फातिमा सना शैख़ का एक्टिंग से कभी रिश्ता ही नहीं था. कहने का मतलब यह कि पूरी फिल्म का फिल्म क्राफ्ट से कोई रिश्ता नहीं था. पाइरेट्स ऑफ़ द कॅरीबीयन की इस भद्दी नक़ल को हालाँकि५२ करोड़ की ओपनिंग मिली. लेकिनइस ओपनिंग का खामियाजा भी फिल्म को भोगना पडा. बड़ी आशा और अपेक्षा से फिल्म देखने आये दर्शकों की एक स्वर से नकारात्मक प्रतिक्रिया मिली. फिल्म दूसरे दिन ही औंधे मुंह आ गिरी. ट्रेड से सभी लोगों को भारी नुकसान झेलना पड़ा.

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

आज बहुत याद आती है PAC


लॉकडाउन तोड़ कर कोरोना वायरस फैलाने के लिए बेचैन और मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिए आमादा लोगों के पुलिस पर हमलों के बाद, अब उत्तर प्रदेश पुलिस थोड़ी सक्रिय नज़र आती है. लेकिन, अभी कुछ कमी लगती है. मुझे याद आ जाती है सत्तर के दशक तक सक्रिय पीएसी की. मुल्लाओं के भूत भागते थे इस कांस्टेबुलरी से. इस फाॅर्स की खाकी वर्दी को देखते ही मुल्ला, ठुल्ला और कठमुल्ला की लुंगी, पेंट, जांघिया, आदि सब गीली हो जाती थी. छात्र आन्दोलन के दौरान प्रोविंशियल आर्म्स कांस्टेबुलरी का ख़ूब उपयोग किया जाता था. छात्र इन्हें मामा कह कर चिढाते थे. ऐसे में जब भांजे इनके हत्थे चढ़ जाते थे, मामा इनकी मामा की तरह नहीं धुनकी की तरह धुनाई करते थे.

अब फिर आता हूँ आज के परिदृश्य पर. देख रहा हूँ भाई लोग लॉक डाउन का पालन कराने आई पुलिस पर बेहिचक, बेधड़क, बेरहम हमला करते हैं. पुलिस अधिकारीं को खूनम खून कर देते हैं. दिल्ली में तो इन लोगों के कारण कितने पुलिस अधिकार चोटिल हुए, कोमा तक पहुँच गए. ऐसे में सोचता हूँ अगर उत्तर प्रदेश की पुलिस आर्म्स कांस्टेबुलरी यानी पीएसी होती तो क्या यह पत्थरबाज़ सडकों पर भागते हुए पुलिस वैन में बैठते? भूल जाइए. इन पिल्लों के बापों ने बताया नहीं होगा. मैं बताता हूँ. एक पत्थरबाज़ हमलावर गुंडे को चार पांच पुलिस कर्मी घेर लेते थे. इसके बाद लाठियों से उसका कीर्तन हो जाता था. जब यह कीर्तन ख़त्म होता तो वह उन्मादी जमीन सूंघ चुका होता था. उसे पीएसी के जवान, मरे हुए कुत्ते की तरह, अपनी लाठी में टांग कर पुलिस गाडी में बिदा कर देते थे. पीएसी का नाम सुनते ही मिया भाई मिआऊ बोलने लगते थे. आज मैं अपने पैरों पर भागते इन धार्मिक गुंडों को देखता हूँ तो पीएसी बहुत याद आती है.

नोट- मेरे सगे मामा पीएसी में थे. वह अपनी ड्यूटी के बारे में बताते थे तो उनकी दुर्दशा पर हम बच्चों की आँखों में आँसू आ जाते थे. बेचारे पुलिस वाले भूखे रह कर कठिन ड्यूटी करते हैं. यह कमीने पत्थर बरसाते हैं.

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

मजीठिया की निराशा नरेन्द्र मोदी पर निकालता पत्रकार !


एक बार, स्कूल की अध्यापिकाओं के छोटे बच्चों की पिटाई किये जाने पर एक सर्वेक्षण किया गया था. उसमे यह बात निकल कर सामने आई थी कि स्कूल मालिक अध्यापिकाओं को कम वेतन देते हैं और पढ़ाने के साथ साथ स्कूल के दूसरे काम भी लेते है. यह अध्यापिकाएं घर में अपने पतियों से भी हैरान परेशान रहा करती थी. स्कूल और घर का सम्मिलित निराशा उन्हें बच्चों को पीटने के लिए मज़बूर करती थी.


मैं आपसे शर्त लगा सकता हूँ. ऐसा ही सर्वेक्षण पत्रकारों पर भी कीजिये.  इनकी पोस्ट, इनके नैराश्य का प्रमाण है. यह प्रधान मंत्री पर, उनके किसी काम पर, बेसिर पैर की, तथ्यहीन टिप्पणियां करते हैं. अपने अख़बार में मजीठिया वेज बोर्ड न लागू होने लिए मोदी को दोषी बताते हैं. उनकी कोई भी पोस्ट आपको ज्ञान नहीं दे सकती. जो भी परोसते हैं, वह निराशा और नकारात्मकता से भरपूर. आप इन्हें पढ़ पढ़ कर आत्महत्या करने को मज़बूर हो सकते हैं. अगर आप प्रतिवाद में कुछ लिख दें तो तुरंत आपको भक्त की उपाधि देकर खुद राक्षस की तरह बन जाते हैं.

सर्वे होगा तो यह मालूम हो जाएगा कि यह बेचारे भी कम वेतन के मारे हैं. यह बेचारे भी घर में लताड़े जाते हैं. यह बेचारे भी मालिकों के मारे हैं. लेबर कोर्ट से बेसहारे हैं. उस पर उन्हें खिलाफ टिपण्णी लिखने पर प्रेसटीटयूट भी कर दिया जाता है.-माल उड़ाता राजदीप और बरखा दत्त और रविश कुमार है, पत्रकारिता की वेश्यावृति का दाग इन पर भी लग जाता है. बेचारे कुछ पत्रकार  अपने घर में दो चार पेज के अख़बार की चार पांच सौ कापियां निकलवा कर सूचना विभाग से विज्ञापन लूटते थे. वह भी अब बंद है. इतने नैराश्य में बेचारा पॉजिटिव लिखे भी तो कैसे! आप जांच करा लीजिये. ऐसे किसी पत्रकार का ब्लड ग्रुप बी पॉजिटिव नहीं निकलेगा. हाँ ओ नेगेटिव ज़रूर हो सकता है.

मेरा यह शोध अपने फेसबुक मित्रों में दैनिक जागरण और अमर उजाला के पत्रकारों की लेखनी को पढ़ने का परिणाम है. आप चाहें इसमे कुछ दूसरे अख़बारों के पत्रकारों भी जोड़ या घटा सकते हैं.

अकबर के सामने अनारकली का अपहरण, द्वारा सलीम !

जलील सुब्हानी अकबर ने हठ न छोड़ा।  सलीम से मोहब्बत करने के अपराध में, अनारकली को फिर पकड़ मंगवाया। उसे सलीम से मोहब्बत करने के अपराध और जलील स...