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ग़ज़ल

मेरे देश के कानून इतने मजबूत हैं, कि बनाने वाले ही इन्हे तोड़ते है. 2. रास्ते के पत्थर मारने को बटोरता नहीं, उम्मीद है कि मकान-ए-इंसानियत बना लूँगा। 3. क़ातिल नहीं कि लफ्जों से मरूँगा तुमको, इसके लिए तो मेरे लफ्ज ही काफी हैं। 4. दुश्मनी करो इस तबीयत से कि दुश्मन भी लोहा मान ले। 5. आईना इस कदर मेहरबान है मुझ पर जब भी मिलता है हँसते हुए मिलता है।

ढूंढते रहे अर्थ

मैंने पृष्ठ पर पृष्ठ भर दिये थे यह सोच कर कि तुम पढ़ोगे मेरी भावनाएं समझोगे लेकिन, तुम मेरी लिखावट में उलझे रहे ढूंढते रहे व्याकरण की त्रुटियाँ ठीक करते रहे मात्राएँ भाँपते रहे, खोजते रहे, और लाते रहे अपने-मेरे बीच पंक्तियों के बीच के अर्थ ।

राष्ट्रीय ध्वज

गणतंत्र दिवस पर राष्ट्र ध्वज आसमान पर लहराता है फहर फहर कर हवा में गोते लगाता है समुद्र की लहरों सा उन्मुक्त नज़र आता है यह राष्ट्रीय ध्वज हम भारत गणतंत्र के गण हर 26 जनवरी फहराते हैं ! गलत, हम ध्वज के साथ फहराये कब ! ध्वज की उन्मुक्तता के साथ आकाश में लहराये कब हमने कहाँ अनुभव की ध्वज की प्रसन्नता कहाँ महसूस की स्वतंत्र  वायु की प्रफुल्लता हम तो बस गण है जन गण मन गाने को और फिर अगले साल तक सो जाने को।

बुधिया की दौड़

बुधिया इतनी तेज़ कैसे दौड़ लेता है? आसान है इसे समझना दस किलोमीटर दूर स्कूल में समय पर पहुँचने के लिए उसे दौड़ना पड़ता था। पिता को खाना पहुंचाने के बाद ही बुधिया को खाना मिल सकता था इसलिए खेत तक जाने और आने के लिए बुधिया को दौड़ना पड़ता था। पिता मर गए खेत बिक गए बुधिया आठ के बाद पढ़ नहीं सका शहर आ गया सरकारी नौकरी के लिए बुधिया को दौड़ना पड़ा सरकारी नौकरी नहीं मिली सो, नौकरी करने लगा चाय की दुकान पर झुग्गी से कई किलोमीटर दूर दुकान तक पहुँचने के लिए बुधिया को दौड़ना पड़ता था। जिसकी ज़िंदगी में इतनी दौड़ हो सामने भूख हो वह बुधिया तेज़ तो दौड़ेगा ही।

खालीपन जहर और दोष

पसर जाता है हम लोगों के बीच अनायास इतना खालीपन कि, सहज जगह पा जाती हैं कोंक्रीट की दीवारें। जहर जीने वालों को बार बार पीना पड़ता है जहर मरने वाले क्या खाक नीलकंठ बन पाते हैं। दोष  जो साथ चलना नहीं चाहते वह अपनी चप्पलों को दोष देते हैं।    

बेटी पैदा हुई

उदास थे पिता सिसक रही माँ बेटी पैदा हुई। मिठाई कहाँ बधाई कहाँ घर में शोक फैला यहाँ वहाँ। औरत के होते हुए यह क्या बात हुई। बेटी पैदा हुई। वंश की चिंता सब की चिंता उपेक्षित बेटी को कौन कहाँ गिनता। पढे लिखे समाज में जहालियत की बात हुई । बेटी पैदा हुई। वंश चलाने को बेटे की आस में माँ फिर माँ बनी बेटे के प्रयास में। भूंखों की फौज खड़ी नासमझी की बात हुई। बेटी पैदा हुई। बेटे की माँ ने बेटी की माँ ने भ्रूण हत्या की बेटी के बहाने। कैसे होगा बेटा अगर बेटी की न जात हुई।  

हवा

तुम यदि हवा हो तो मुझे अनुभव करो मुझे अपना अनुभव कराओ किन्तु तुम तो हवा की तरह गुज़र जाती हो तुम्हारा एहसास तक शेष नहीं रहता।