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संदेश

बेटी

जब बेटी पिता के काम से वापस आने पर उसकी गोद में बैठ जाती है तो बेटी जैसी लगती है। जब वह अपनी नन्ही उंगलियों से हाथ सहलाती है तब स्नेहमयी माँ जैसी लगती है। 2- क्यूँ फिक्र होती है कि बेटी जल्दी बड़ी हो गयी यह  क्यूँ नहीं सोचते कि कितनी जल्दी सहारा बन गयी। 3- बेटी कविता है जिसे पढ़ा भी जा सकता है और गुनगुनाया भी जा सकता है। 4- खुद को बेटी समझने वाली जब माँ बन जाती है तब बेटी को माँ की तरह क्यूँ देखती है बेटी की तरह क्यूँ नहीं देखती जो माँ बनना चाहती थी। 5- भ्रूण में मारी जा रही बेटी ने कहा- तुम कैसी माँ हो तुमने मुझे अपना बचपन समझने के बजाय भ्रूण समझ लिया।

माँ की चिंता

एक माँ  दरवाज़े पर बैठी बाट जोह रही है  अपने बेटे की . ऑफिस से अभी तक वापस नहीं आया है  क्यूँ देर हो गयी ? क्या बात हो गयी ? फ़ोन भी नहीं किया ? दसियों अनर्थ  मस्तिष्क में विचर जाते  चिंता की लकीरें ज्यादा गहरी हो जाती  माँ के माथे पर . माँ बहु से पूछती- लल्ला क्यूँ नहीं आया अभी तक? सास बहु के टीवी सीरियल देखती बहु  व्यंग्य करती- माजी अब वह आपके लल्ला नहीं रहे  बड़े हो गए हैं,   ऑफिस में नौकरी करते है, ज़िम्मेदार है, फंस गए होंगे किसी काम से । बहु टीवी का वोल्यूम कुछ ज्यादा तेज़ कर देती...

गंगा- हाइकु

सूखती गंगा  पाप बढ़ रहे हैं  धोता कौन है . 2- गंगा निकली  शिव की जटाओं से  भटक गयी। 3- गंगा नदी है  माँ का नाम गंगा  दोनों उपेक्षित . 4- गंगा का पानी  बिसलेरी बोतल  बेचते हम . 5- बहती गंगा  कूदी गंगा  नदी में  दोनों ही ख़त्म .

बेचारी भिखारन

मैं बहुत दयालु हूँ  मेरी दयाद्रता के बारे में जानना हो तो  मेरे मोहल्लें में आने वाली  एक भिखारन से पूछो  वह बताएगी कि मैं कितना दयालु हूँ  मैं उसे अपने घर के दरवाज़े पर बुलाता हूँ निकट बिठालता  हूँ   बेशक उस समय मेरी पत्नी घर नहीं होती  इन औरतों का क्या कहिये  बेहद शक्की होती हैं  भिखारिन को ही क्या कह दें, क्या न कह दें  मैं भिखारिन को कुछ खाने को देता हूँ  पानी पिलाता हूँ  कुछ न कुछ ले जाने के लिए भी देता हूँ  कभी नकदी भी  मैं उसका पैनी दृष्टि से निरीक्षण करता हूँ  मुझे उसकी...

गरीब

अरे गरीब आदमी ! दूर ऊंचाई से आती संगीत की धुनों को सुनो यह उन अमीर लोगों के घरों से आ रही हैं जो तुम्हें अपने नीचे देख कर भी शर्म खाते हैं मजबूरन ही सही, फिर भी तुम्हें रहने देते हैं तुम एक बदनुमा दाग हो उनकी ऐश्वर्यशाली इमारत के लिए तुम्हारे भूखे  बच्चों का रूदन उन्हे ऊंची आवाज़ में संगीत बजाने को विवश करता है । इसके बावजूद, वह कुछ बासी टुकड़े नीचे फेंक देते हैं ताकि तुम और तुम्हारे बच्चे उठा कर खा लें भूखे न रहे और बिलख कर उनका संगीत बेसुरा न करे। तुम इस संगीत को सुनो फेंके भोजन को चखो यह कर्णप्रिय संगीत महादेव की देन है जिनकी तुम सपरिवार एक दिन व्रत रख कर पूजा करते हो ताकि, इस एक दिन तुम्हारे बच्चे रोटी न मांगे। तुम इसे सुनते भी हो तुम इसे सुनते हुए अपना दुख भी तब  भूल जाते हो जब तुम्हारे बच्चे तेज़ धुन पर, बेतरतीब नाचने लगते हैं खुश हो कर शोर मचाने लगाते हैं तभी यकायक संगीत रुक जाता है एक कर्कश आवाज़ गूँजती है- साले नंगे-भूखे गाना भी नहीं सुनने देते न खुद सुख से रहते हैं, न हमे रहने देते हैं। ऐ गरीब ! ...

ऐ पिता !!!

ऐ पिता ! तेरी बाँहें इतनी मज़बूत क्यों हैं कि जब कोई बच्चा हवा में उछाला जाता है तो वह खिलखिलाता हुआ उन्ही बाँहों में वापस आना चाहता है. तेरी भुजाएं इतनी आरामदेह क्यों होती हैं कि कोई बच्चा इनमे झूलता हुआ सो जाना चाहता है ऐ पिता !! तेरी उंगलियाँ पकड़ कर वह लड़खड़ाता हुआ चलना सीखता है तेरी उंगलियाँ पकड़ कर बड़ा होना चाहता है इतना बड़ा कि तेरे कंधे तक पहुँच सके. मगर ऐ पिता !!! इस बच्चे की बाँहें इतनी कमज़ोर क्यों होती हैं भुजाएं इतनी कष्टप्रद क्यों होती हैं कि कोई पिता इनमें समां नहीं पाता, आराम नहीं पा सकता क्यों बेटे की उंगली यह बताने के लिए नहीं उठ पातीं कि वह मेरे पिता हैं. क्यों ! क्यों !! क्यों !!! ऐ पिता, यह बात तो बेटा उस समय भी समझ नहीं पाता जब वह अपने बेटे को हवा में उछाल रहा होता है भुजाओं में समेटे सुला रहा होता है उंगलिया पकड़ कर चलना सिखा रहा होता है. ऐ पिता ! ऐसा क्यों होता है यह पिता ???

दादी

''माँ तुम तो राजू के लिए कुछ ज्यादा प्रोटेक्टिव हो. वह अब इतना बच्चा भी नहीं रहा कि हर समय देखना पड़े. बच्चा है. खेलेगा तो गिरेगा भी, चोट भी लगेगी. तुम इतना फ़िक्र क्यों करती हो?'' पिताजी दादी से कह रहे थे. मुझे बहुत अच्छा लगा. दादी हर समय टोकती रहती है. यह न करो, वह न करो. तो करो क्या. साथ के बच्चे मज़ाक उड़ाते हैं 'क्या हाल हैं यह न करो बच्चे के'. मैं खिसिया जाता. दादी से मना करता पर  वह कहाँ सुनने वाली थीं. दादी मुझे फूटी आँख न सुहाती. सच कहूँ मुझे उनका झुर्रियों भरा चेहरा बिलकुल अच्छा नहीं लगता. वास्तविकता तो यह थी कि मैं खुद के बुड्ढे हो जाने के ख्याल से घबरा जाता था. शीशे में चेहरा देखता, झुर्रियों की कल्पना करता तो सिहर उठता. क्यों जीते हैं लोग इतना कि चेहरे पर समय की मार नज़र आने लगती है. दादी का चेहरा छोटा था. झुर्रियां होने के कारण मुझे बड़ा अजीब सा लगता. जैसे किसी अख़बार के कागज़ को बुरी तरह से मसल कर फेंक दिया गया हो. इस चिढ का एक बड़ा कारण यह भी था कि दादी हर दम मेरे पीछे लगीं रहती. वैसे वह मेरी पैदायश से मेरा ख्याल रखती रही हैं. माँ नौकरी करती थी...