मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

बच्चे की सुबह

बच्चा
सुबह ज़ल्दी जाग जाता है
वह डर जाता है
बाहर से अन्दर झाँक रहा है अँधेरा
बच्चा कस कर ऑंखें भींच लेता है
अपनी मुंदी पलकों के अँधेरे से
बाहर के अँधेरे को
झुठलाने की कोशिश करता है.
ऐसे ही लेटा रहता है देर तक
थोड़ी देर में
सुबह का उजाला
खिडकियों की झिरी से
दरवाज़े की सरांध से
अन्दर झांकता है
फिर बच्चे को देख कर
अन्दर पसर जाता है, उसके चारों ओर
बाहर चिड़ियाँ
दाना चुग रही हैं
एक दूसरे को बुला रही हैं चूँ चूँ पुकार करके
उनका कलरव, पंखों का फड़फड़ाना
बच्चे के कानों में दस्तक देता है
बच्चा आँख खोल देता है,
आ हा ! सुबह हो गयी !
वह हाथ पाँव फेंकता हुआ
मानो माँ को जगा रहा है-
उठो माँ, सुबह हो गयी।

रविवार, 1 अप्रैल 2012

मालती

मेरे हाथों में मालती का ख़त है.
उसने लिखा है- तुम हमेशा मेरे दिल में ही थे राजेश!
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हम दोनों कॉलेज के दिनों में मिले थे. को-एजुकेशन वाला कॉलेज था. मालती मेरे ही क्लास में ही पढ़ती थी. बेहद खूबसूरत थी और उतनी ही चंचल भी. अपनी सहेलियों के साथ दिन भर हंसी मज़ाक करना उसका शगल था. लेकिन, थी वह पढ़ने में तेज़. क्लास टेस्ट में भी वह हम लड़कों से अव्वल आती। .
वह मेरी और कब आकृष्ट हुई पता नहीं. पर मैं पहले ही दिन से उस पर फ़िदा हो गया था।  यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि कॉलेज का हर लड़का उस पर फ़िदा था. कुछ कम फ़िदा थे तो कुछ ज्यादा और कुछ तो बहुत ज्यादा. जान देने वाले भी थे एक दो. ऐसे विरल जीवों में से एक मैं भी था. लेकिन वक़्त आने पर यह स्पीसीज जान देने में पीछे हट जाती है.
हाँ तो मैं बता रहा था कि न जाने कब मालती मेरी और आकृष्ट हो गयी. मैं सातवें आसमान पर था. लड़कों की ईर्ष्या का केंद्र था. उनके विचार से लंगूर के बगल हूर आ गयी थी. लड़कियाँ भी चिढ़ती थी उससे. अरे वह तो बड़ी रिजर्व रहती थी. किसी को लिफ्ट ही नहीं मारती थी. पता नहीं यह क्या सूझी उसे. ऎसी लड़कियाँ बनती बहुत हैं. हम दोनों के बारे में ऎसी ही न जाने कितनी बाते होती रहती थीं. मैं सोचता रहता था को-एजुकेशन के कॉलेज में जितने स्कैंडल बनते हैं, अफवाहें उड़ती हैं. इतनी अफवाहें और स्कैंडल तो बॉलीवुड में नहीं होते.
जैसा कि  लैला मजनूँ, हीर राँझा, शीरीं फरहाद करते रहे होंगे, हम दोनों भी साथ जीने मरने की कसम खाते. वह पूछती तुम मुझे कितना प्यार करते हो? मैं फिल्मी संवाद बघारता- मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूँ. तुम न मिली तो मैं मर ही जाऊंगा. मैंने अपने जीवन में तुमसे ही प्यार किया है और यह सच्चा है.
मैं उसका दिल टटोलना चाहता- तुम मुझे कितना प्यार करती हो? वह कहती- राजेश, शायद तुम विश्वास नहीं करोगे, तुम पहली नज़र में मुझे अच्छे लगाने लगे थे. पर मैं इतनी माडर्न नहीं हूँ कि तुम्हे तुरंत आइ लव यू बोल देती. मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ. हमारी कुछ सीमायें और संकोच होते हैं. लेकिन राजेश तुम हमेशा से मेरे दिल में थे, दिल में हो और रहोगे.
पता नहीं यह कैसे हुआ. हमारे प्यार का भेद हमारे घर वालों को मालूम पड़ गया. अब तक प्यार में खोये रहने वाले हम लोगों को भी अब जाकर मालूम हुआ था कि हम लोग भिन्न जातियों के थे. मैं ठाकुर था. वह ब्राह्मण जाति की. हमें इस से फर्क नहीं पड़ता था कि हमारी जाति क्या थी. क्यूंकि हम अपने प्यार को ही अपनी जाति समझते थे. पर समाज और हमारे परिवार की नज़रों में हमारे प्यार का कोई महत्त्व नहीं था. हम दोनों के ही घरों में किसी ने शादी से पहले प्यार नहीं किया था. सबकी तयशुदा शादी हुई थी. बड़े बुजुर्ग कहते थे- शादी के बाद प्यार अपने आप हो जाता है. अगर ऐसा नहीं होता तो बच्चे कैसे होते।
हम दोनों के घरों में खूब गुल  गपाड़ा मचा. फरमान सुना दिया गया कि यह शादी नहीं हो सकती. मालती के घरवालों ने तो उसके लिए सजातीय लडके की खोज भी शुरू कर दी.
एक दिन वह आयी. उसकी आँखे सूजी हुई थीं. शायद रात भर रोई थी. मुझे देखते ही मुझसे लिपट कर रोने लगी. मैं सहम गया. सभी हमारी तरफ देख रहे थे. मैं इतना हिम्मती नहीं था कि कोई लड़की सरेआम मुझसे लिपट जाए और मैं सहज बना रहूँ. मैंने लगभग ज़बरन उसको खुद से दूर किया. मैं इतना सहम गया था कि उसकी आँखों के आंसूं पोछने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाया. बड़ी मुश्किल से इतना ही पूछ पाया- क्या बात है मालती? वैसे मुझे आभास हो गया था कि हो न हो उसकी शादी तय हो गयी थी.
ऐसा ही उसने कहा भी- राजेश, पापा ने मेरी शादी तय कर दी है.
मैं सुन्न रह गया. कहता भी क्या. कुछ कहने के लिए हिम्मत होनी चाहिए. मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी. फिर भी किसी तरह बोला- चलो हम लोग भाग जाते हैं कहीं मंदिर में शादी कर लेंगे.
वह जोर जोर से रोने लगी- राजेश मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ. तुम मेरे दिल में हमेशा ही रहोगे. मगर मैं घर छोड़ कर तुम्हारे साथ नहीं भाग सकती. मैं तुमसे जितना प्यार करती हूँ, उतना ही अपने घर से भी प्यार करती हूँ. मैं भाग गयी तो मेरे माता पिता की इज्ज़त मिटटी में मिल जाएगी. पापा तो कहीं के नहीं रहेंगे.
मैं चाहता यही था कि मालती भागने से मन कर दे. मेरे में इतनी हिम्मत कहाँ थी कि अपने परिवार और पिता के खिलाफ घर छोड़ कर भागूं. शायद पिता जी को आज के लौंडों की हरकतों के बारे में मालूम था. इसीलिए एक दिन उन्होंने  मुझे बुलाया और कठोर लहजे में बोले- सुन, मैं तुम्हारी मजनूँगिरी जानता हूँ. इसलिए खबरदार कर रहा हूँ लड़की लेकर भागना नहीं. मैं तुझे पाताल से भी खोज निकालूँगा. उस लड़की का तो नहीं, लेकिन तेरा इतना बुरा हाल करूंगा कि इश्क लड़ाना ही भूल जायेगा।
पिताजी का जो लहजा था, वह इतना खूंखार था कि मेरी रूह फ़ना हो गयी थी. हम ठाकुरों के मर्द लोग सचमुच बड़े मर्द होते हैं. खून सवार हो गया तो कुछ भी कर सकते है. मैं इस मामले में थोडा कमज़ोर था। मालती के लिए खून नहीं बहा सकता था।
इसलिए जब मालती ने भागने से मन किया तो मैंने चैन की सांस ली. लेकिन बाहर से दिखाने के लिए बोला- मालती तुम्हारी शादी हो गयी तो मैं मर जाऊंगा. तुम्हारे बिना जी नहीं सकता.
मालती फिर फफक पड़ी. बोली- राजेश, मैं मर तो नहीं सकूंगी. पर तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे.
मालती की शादी हो गयी. उस दिन मैं बेहद उदास था. अकेले में रोया भी. शायद मालती को न पा सकने की कसक थी. मालती का क्या हाल रहा होगा पता नहीं. माँ और बहन गयी थीं शादी में मगर उन्होंने कुछ बताया नहीं. शायद मेरे सामने कुछ नहीं कहना चाहती थीं.
शादी के बाद मालती अपने मायके आयी. मैंने दूर से देखा. काफी खुश लग रही थी. मुझे ईर्ष्या हुई. मुझे छोड़ कर दूसरे मर्द के साथ कितनी खुश है. यह औरतें भी. किसी की नहीं होती. सिर्फ अपने मर्दों की ही होती हैं.
एक दिन मालती अकेली दिख गयी. मैं झट उसके  पास गया. वह मुझे देख कर मुस्कुराने लगी. बोली- कैसे हो? मैंने कहा- मालती, तुम्हारे बगैर कैसा हो सकता हूँ. लेकिन तुम बताओ तुम कैसी हो.
बोली- हाँ, मैं बहुत खुश हूँ. मेरे न पूछने के बावजूद बताने लगी- मेरे पति मुझे बहुत प्यार करते हैं. मुझे खूब घुमाते फिराते हैं। जो चाहती हूँ खिलाते और पहनाते  हैं. एक मिनट भी आँखों से ओझल होने नहीं देते.
मुझे ईर्ष्या हो रही थी. पर मैंने ऊपरी मन से कहा- चलो अच्छा है. तुम खुश रहो, मैं तो यही चाहता हूँ.
मालती ने पूछा- तुम शादी कब कर रहे हो.
मैं छुपा गया. बताया नहीं कि मेरी शादी भी तय हो गयी है. लड़की बेहद खूबसूरत थी. मालती से थोडा कम. लेकिन मेरे मन भा गयी थी. लेकिन मैं मालती को जताना चाहता था कि मैं उसके बिना सचमुच नहीं जी सकता. इसलिए चुप रहा.
मालती कुछ नहीं बोली. जल्द ही चली गयी.
मैं थोडा क्रोधित महसूस कर रहा था. साली, मेरे बिना कितनी खुश है. कहती थी तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे. अब उस दिल में अपने पति को रख लिया. मैं उस दिन दुनिया की तमाम औरतों के लिए हिकारत से भर गया।
मालती कुछ दिन अपने मायके रही. ऐसे में एक दो बार मिली भी. हमेशा हंसती मुस्कुराती मिली. उसकी हर मुस्कराहट के साथ मेरी ईर्ष्या बढ़ रही थी. धीरे धीरे ईर्ष्या  क्रोध में बदलती जा रही थी.
एक दिन मैंने रास्ते में मालती को देखा. अपने पति के साथ थी वह। काफी खुश नज़र आ रही थी.
मैं इंतकाम से भर गया. प्रेम की पींगे मेरे साथ मारी, मज़ा पति के साथ ले रही है. कितनी खुश है मेरे बिना भी. जबकि कहती थी कि मैं हमेशा उसके दिल में रहूँगा.
मैं अब उसकी खुशी नहीं देख सकता था.
मैंने उसके पति को ख़त लिखा. उसमे अपने और मालती के प्यार के बारे में सब लिख दिया. मालती के लिखे छोटे रुक्के भी साथ भेज दिए.
कुछ दिन बीत गए. मालती की कोई खोज खबर नहीं मिली. पता नहीं उसके पति को ख़त मिला या नहीं. मैं बेचैन हो रहा था कि मेरा वार खाली गया था.
एक दिन डाकिये एक चिट्ठी दे गया. मेरे नाम की चिट्ठी थी. मैं मालती की लिखावट साफ़ पहचान गया. मन शंकाओं से भर गया. वह नहीं आयी उसका ख़त कैसे आ गया.
मैंने ख़त खोला. लिखा था-
राजेश,
तुम हमेशा मेरे दिल में थे. मैं तुम्हे बेहद प्यार करती थी. मैं तुम्हारे अलावा किसी और से शादी नहीं करना चाहती थी. पर हम दोनों की शादी संभव नहीं थी. घर में सबका दबाव था. माँ ने जान दे देने की धमकी दी थी. मैं क्या करती. इसलिए मजबूरन शादी करनी पड़ी.
लेकिन, राजेश तुमने यह क्या कर दिया. तुमें मेरे पति को ख़त लिख कर मेरे उस प्यार को नंगा कर दिया जो मेरे दिल में बसा था. मुझे अपने पति की  उस मार का दर्द नहीं, जितना तुम्हारे इस व्यवहार का दर्द है. तुम ऐसे कैसे हो गए. तुमने अपने प्यार को रुसवां कर दिया.
राजेश, तुम शायद यह सोचते होगे कि मैं शादी कर बहुत खुश थी. तुमने मुझे हमेशा खुश देखा भी था और मैंने  तुम्हे बताया भी था कि मैं शादी के बाद अपने पति के साथ बहुत खुश हूँ. राजेश मैं यह बता कर कि मेरा पति आवारा और शराबी है. मुझे रोज मारता पीटता है और मेरे शरीर को जानवरों की तरह रौंदता है।  वह मुझ पर अनावश्यक शक करता है. मैं यह सब बता कर तुमको दुखी नहीं करना चाहती थी. क्यूंकि तुम मुझे बहुत प्यार करते थे. तुम मुझे हमेशा खुश देखना चाहते थे. मेरे वियोग में दुखी हो रहे तुमको मैं कैसे और दुखी करती.
लेकिन, राजेश तुमने यह क्या किया. तुमने मेरे पति को ख़त लिख कर हमारे प्यार के बारे में सब बताया ही, मेरे ख़त भी उन्हें भेज दिए. उन्होंने मुझसे मेरे हर ख़त पढ़वाए और वह मेरे द्वारा पढ़े हर शब्द के साथ मुझे लातों और घूंसों से मारते भी जाते थे.
राजेश, मुझे इस बात का दुःख नहीं कि पति ने मुझे मारा और खाने को नहीं दिया. लोगों के सामने बेइज्ज़त किया. मुझे मेरे किये की सजा तो मिलनी ही चाहिए. लेकिन तुमने मेरे प्यार को इस तरह बदनाम कैसे कर दिया कि मैं वैश्या मान ली गयी. तुम तो मुझे बेहद प्यार करते थे. मुझे ले कर भाग जाना चाहते थे. तुमने अब तक शादी भी नहीं की है. तब तुम यह सब कैसे कर सके.
मैं तुमसे बेहद प्यार करती थी. तुम हमेशा मेरे दिल में रहते थे. बेशक मैं अपने पति की वफादार थी. पर तुम्हारे ख़त ने मुझे बेवफा और चरित्रहीन बना दिया.
करने को तो मैं भी ऐसा ही कर सकती थी. पुलिस में रिपोर्ट कर तुम्हारे खिलाफ कार्यवाही करवा सकती थी. लेकिन मैं तुमसे सच्चा प्यार करती हूँ. लेकिन मैं अब बेइज्ज़त हो कर अपने पति के साथ नहीं रह सकती. इसलिए मैं आत्महत्या कर रहीं हूँ. मैं चाहती तो अपनी आत्महत्या के लिए तुम्हे दोषी ठहरा सकती थी. पर मैं ऐसा नहीं करूंगी। मैंने तुम्हे सच्चा प्यार किया था। कोई सच्चा प्यार करने वाला अपने प्यार का अहित कैसे कर सकता है। काश तुम भी यह समझ पाते। .
मैं तुम्हे नहीं अपने भाग्य को दोषी मानती हूँ. मैं चाहूंगी कि तुम इस पत्र को पढ़ने के बाद जला देना. क्यूंकि मैं नहीं चाहती कि मरने के बाद मेरी कोई चीज़ तुम्हारे पास रहे.
आखिर में मैं फिर तुमसे इतना कहना चाहूंगी कि राजेश तुम हमेशा मेरे दिल में ही थे. लेकिन अब नहीं.
..................
पत्र के आखिर में मालती ने अपना नाम नहीं लिखा था. शायद वह मेरे नाम के साथ अपना नाम नहीं जोड़ना चाहती थी.
मैं उसका ख़त पढ़ कर सन्न रह गया. मैंने यह क्या कर दिया था. अपने प्यार को अपने एक ख़त से मार दिया.
उस रात मैं ठीक से सो नहीं सका. मैं भयभीत था कि कहीं उसका पति मेरे खिलाफ कोई रिपोर्ट न कर दे.
दूसरे दिन मैंने मालती की आखिरी इच्छा का ख्याल करते हुए उसका ख़त जला दिया था।

बुधवार, 28 मार्च 2012

हिमखंड

तुम मुझे कितना जानते हो?
हिमखंड जितना!
मुझे जानना हो तो तुम्हें
समुद्र की गहराइयाँ नापनी होंगी।
क्यूंकि
मैं हिमखंड जैसा हूँ
जितना बाहर से दिखता हूँ।
उससे कई गुना बड़ा
समुद्र के अंदर होता हूँ।
चूंकि तुम में
समुद्र नापने का माद्दा नहीं
इसलिए
तुम मुझे
समुद्र की सतह से देख कर
मान लेते हो
कि तुमने मुझे जान लिया
और फिर
अपनी कमी को
मेरी कमी बता कर कहते हो
कि मैं सतही हूँ। 

मंगलवार, 20 मार्च 2012

सपना

सपना श्रीमती थीं या कुमारी कोई नहीं जानता था।  सरनेम तक पता नहीं था किसी को।  कॉलोनियों की खासियत होती है कि वहां एक दूसरे को कोई अच्छी तरह से जानता नहीं या जानने की कोशिश भी नहीं करता। ऎसी जगहों में परपंच को जगह मिलती है।  यह परपंच किसी बाई या नौकर के जरिये एक कान से दूसरे कान तक फैलते हैं। कुछ सजग निगाहें भी ऎसी मुआयनेबाज़ी करती रहती हैं।  सपना की भी होती होगी।
तभी तो यह बात फैली कि वह सजी तो ऐसे रहतीं जैसे मिसेज हों। लेकिन कोई स्थायी आदमी उसके घर में रहता नहीं दिखता था। हाँ, रोज कोई न कोई नया आदमी या फिर पुराना ही आता और देर रात तक जाता दीखता था। अमूमन, सपना  इनमे से किसी के साथ सजी धजी निकल जाती, कभी किसी कार में या टेक्सी में। कब लौटती ! कोई नहीं जानता था। लेकिन सुबह उसे दूध उठाते, बालकनी में टहलते या अखबार पढ़ते ज़रूर देखा जाता था।  उसके रोज के चलन को देखते हुए लोगों ने यह तय कर लिया था कि वह बदचलन हैं। या साफ़ साफ़ यह कि वह कॉल गर्ल या वेश्या थी।  लेकिन मुंह के सामने कहने की किसी में हिम्मत नहीं थी। जब आप आसपास से सरोकार नहीं रखते तो कुछ बोल भी कैसे सकते हैं। साफ़ बात तो यह थी कि कोई उससे बोलता भी नहीं था। बहुत साफ़ कहा जाये तो सपना ने ऐसा रवैय्या अख्तियार कर रखा था कि किसी की उससे बोलने की हिम्मत ही नहीं हो सकती थी।
जब कोई सपना से बोलता नहीं था, किसी से जानकारी भी नहीं थी, तब सवाल यह उठता है कि उसका नाम सपना है, यह लोगों को कैसे मालूम हुआ। अगर आप मोहल्ले के लोगों से यह प्रश्न करने लगेंगे तो वह एक दूसरे का मुंह देखने लगेंगे। कह देंगे कि किसी से सुना था।  किससे ? मालूम नहीं ! लेकिन प्रश्न का साफ़ जवाब दे हीं पाएंगे। अधिकृत रूप से तो कोई कह ही नहीं सकता था कि उसका नाम सपना है। तब उसका नाम सपना है, कैसे जान लिया गया ? इसकी कहानी बड़ी दिलचस्प है।  जैसा कि वर्णन किया गया कि वह बेहद खूबसूरत थी। . वास्तविकता तो यह थी कि उसे खूबसूरत ही नहीं, सेक्सी भी कहा जा सकता था। हमारे आधुनिक समाज में टीवी और इन्टरनेट के जरिये सेक्स और सेक्सी शब्द आम हो गया है। यह शब्द ऎसी औरत के लिए इस्तेमाल होता है, जिसे देखते ही धर दबोचने की इच्छा होती है। सपना को देख कर मर्दों में कुछ ऎसी ही भावनाएं उबाल मरती थीं। पर वह किसी से बात करना तो दूर,  किसी की ओर देखती तक नहीं थी। तब उसका नाम सपना कैसे पड़ा ! दरअसल उसकी खूबसूरती देख कर सब उससे मिलना चाहते, बातें करना चाहते। ख़ास तौर पर मर्दों के बीच उससे बात करने का ज़बरदस्त उतावलापन सा था । आम मर्दों  मन की बात की जाए तो कालोनी का हर मर्द उससे बात ही नहीं करना चाहता था, उसे पाना भी चाहता था। केवल एक रात के लिए सपना को भोगना उनका सपना था। इसीलिए शायद किसी ने उसे सपना नाम दे दिया था। उनकी दबी इच्छाओं का परिचय कराने वाला सपना  थी।  कालोनी की स्त्रियों में सपना बदनाम। बातचीत में उसे अच्छी औरत नहीं है कहा जाता।  कालोनी की वह औरतें उन्हें ख़ास तौर पर बुरी औरत कहती थीं जो खुद को सेक्सी समझती थीं।  दुनिया की मोस्ट डिजायरेबल।
दरअसल अब हमारे समाज में औरतें भी दो प्रकार की होने लगी है- पहली औरत, दूसरी सेक्सी औरत। सेक्सी औरत को देर तक देखा जा सकता है। कल्पनाओं में उसके साथ न जाने क्या क्या किया जा सकता है।  यानि जिसे चक्षु भोग कहते हैं, वह किया जा सकता है।  पहली औरत को एक बार देख लेना  काफी होता है।  मुड़ कर देखने की ज़रुरत नहीं। बाद में उन्हें कल्पनाओं में घुसने देने की भी ज़रुरत महसूस नहीं की जाती।  ऎसी औरतों को भाभी जी कहा जाता है और दूसरे प्रकार की औरतों को मिसेज अलां अलां फलां फलां कहा जाता है या भाभी कहते हुए कुछ अर्थपूर्ण जोर डाला जाता है।
बहरहाल, सपना कालोनी की दोनों टाइप की औरतों की आलोचनाओं का केंद्र हुआ करती थी। सब कहती- इस सपना से अपने मर्दों को बचाए रखना। ऎसी औरते आदमी को हड़प लेती है।  यह औरतें मर्दखोर होती हैं / न जाने कालोनी के किस घर को डँस जाए। पता नहीं कैसी निर्लज्ज औरत है, दूसरे आदमी की बाँहों में चली जाती है। घूमती है। न जाने इसी प्रकार  की कितनी दूसरी बातें।
यही  कारण था कि सपना के आने से पहले तक ज़्यादातर बिस्तर में घुसी रहने वाली, पति को नाश्ता न देने वाली या फिर टिफिन पकड़ा कर रसोई में फिर व्यस्त हो जाने वाली औरते भी पति परमेश्वर को टा टा करने के लिए दरवाजे तक जाने लगी थीं। ज़्यादातर औरतें तब तक दरवाजे पर खडी हाथ हिलाती रहती जब तक उनके पति कालोनी पार नहीं कर जाते। इतनी सावधानी के बावजूद अगर किसी मर्द की निगाहें सपना के घर की बालकनी या खिड़की पर चली जाती तो शाम को उस घर से कोहराम और हाय राम की आवाजे आने लगती।
उस दिन वह हुआ जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। सपना सजधज कर बाहर निकली। एक बड़ी सी कार उसको लेने आयीं थी। कालोनी  की औरते घृणा से भर उठीं, ''छिः, कितनी गन्दी औरत है। पराये मर्द से चिपक कर बैठती है। पता नहीं कैसे छूने देती है अपना बदन और कैसे कोई उसका बदन छूता है। हम तो किसी को उंगली तक न रखने दें।''
उन्होंने सपना की तरफ से मुंह फेर लिया। मगर कनखियों से देखती रहीं। सपना कार के अन्दर एक ठाठ वाले आदमी की बगल में बैठ गयीं। कार स्टार्ट हुई. सभी निगाहें कार की ओर उठ गयीं. कि तभी हादसा हुआ। एक तेज़ रफ़्तार कार ने सड़क से गुज़र रहे आदमी को ठोकर मार दी। वह जमीन पर लहुलुहान गिर पड़ा। कालोनी की सभी औरतें दूर से ज़मीन पर पड़े उस आदमी को तड़पता देखती रही थी। अच्छी औरतें किसी गैर मर्द को हाथ नहीं लगाती हैं ना!  तभी सपना कार से उतरी। उसने आदमी को ज़मीन से उठाया।  क्षण भर में उसकी कीमती साड़ी खून में सन गयी। उसने अपने साथ के आदमी को इशारा किया। वह सूटेड बूटेड आदमी अन्दर से उतरा। दोनों ने उस आदमी को उठा कर कार में रखा। क्षण भर में कार हवा हो गयी /इस बार भी सपना ने कालोनी की औरतों की ओर मुंह उठा कर देखा तक नहीं था।
बाद में पता चला कि सपना की समय से मदद कर देने से वह व्यक्ति जीवित बच गया था। उसकी पत्नी सपना के पांवो पर लोट लोट कर अपने आंसुओं से भिगो रही थी। सपना थी कि अपने आप में सहमी खडी थी। समझ नहीं पा रही थी कि उसके प्रति कोई औरत ऎसी सोच कैसे रख सकती है।
अब अगर यह जानना हो कि इस घटना के बाद सपना के बारे में कालोनी की औरते क्या कह रही हैं तो आपको कालोनी की औरतों के बीच जाना होगा। कहानी तो अब कुछ नहीं जानना चाहती सपना के बारे में कालोनी की औरतों के मुंह से। सपना की असलियत तो उस घायल आदमी की औरत की आभार भरी बिलखन बता चुकी थी।  कॉलोनी की औरतें किसी औरत के बारे में ऐसा कैसे बयान कर सकती है ? 

गुरुवार, 15 मार्च 2012

महाकवि

मैंने
लिखी कुछ पंक्तियाँ
उन्हें नाम दिया कविता
उन्हें छपने भेजा
वह छपीं
प्रशंसा मिली
मैं कवि बन गया था।
मैंने और कविताएँ लिखीं
वह भी छपीं
इस बार प्रशंसा और पुरस्कार भी मिले
मैं खुशी और एहसास से फूल उठा
मैं बड़ा कवि बन गया था
अब मैं कविता नहीं लिखता
अब मैं लिखी कविताओं की आलोचना करता हूँ
कवि सम्मेलनों में कवि पाठ करता हूँ।
क्यूंकि
मैं अब कवि नहीं रहा
अब मैं महाकवि बन गया हूँ।

आँखों की बदसूरती

कुछ चेहरों के साथ
ऐसा क्यूँ होता है
कि वे बेहद बदसूरत होते हैं
इतने कि लोग
उन्हें देखना तक नहीं चाहते
उन संवेदनाओं को भी नहीं
जो उस चहरे पर जड़ी दो आँखों में है
जिनसे
उस बदसूरत चेहरे के अन्दर
झाँका जा सकता है,
उस दिल में छिपी
निश्छलता को भांपा जा सकता है.
ऐसा क्यूँ होता है
हमारी दो आँखों से
बदसूरती से मुंह मोड़ लेतीं हैं
आँखों से शरीर के अंदर झांक कर
बेहद करुणा, दया, ममता और मैत्री
से भरा हृदय नहीं देख पातीं हैं.
काश ऑंखें केवल देख नहीं
महसूस भी कर पाती
तब देख पाती असली सुन्दरता.

सोमवार, 12 मार्च 2012

साँवली

मोलहू की बेटी सांवली का रंग सांवला था. शायद इसी रंग के कारण मोलहू ने उसका नाम सांवली रखा था. वैसे सांवली के रंग को सांवला नहीं कहा जा सकता. काफी पका हुआ था उसका रंग. बिलकुल दहकते तांबे के बर्तन  जैसा. नाक नक्श तीखे थे. आँखों के लिहाज़ से उसे मृगनयनी कहा जा सकता था. कुल मिला कर बेहद आकर्षक लगती थी सांवली. एक दिन कुछ दिलफेंक लड़कों ने कह भी दिया था, ''आये हाय ! बिपाशा बासु.''

सांवली फ़िल्में नहीं देख पाती थी. कभी गाँव के किसी अमीर के घर जहां माँ काम करने जाती थी, देख लिया तो बात दूसरी है. यह इत्तेफाक ही था की सांवली ने बिपाशा बासु की एक फिल्म इसी प्रकार से  देखी भी थी. उसे अच्छी तरह से याद है बिपाशा बासु को देख गाँव के लौंडे तो काबू में रहे थे, लेकिन काफी बुड्ढों को सुरसुरी जैसी लग रही थी. अजीब आवाजें निकल रही थी. इनका मतलब न समझ पाने के बावजूद सांवली को शर्म लगी थी.

लेकिन जब गाँव के लड़के उसे सेक्सी और बिपाशा कह कर पुकारते तो उसे महसूस होता कि वह बहुत ज्यादा खूबसूरत है. सेक्सी का इससे बड़ा अर्थ जानने की ज़रुरत उसने महसूस भी नहीं की थी. उसे अच्छा लगता जब गाँव के जवान लडके उसे देख कर आंहे भरते, फिकरे कसते. वह मद मस्त हो जाती. आईना तो वह काफी पहले से देखने लगी थी. लेकिन अब काफी देर तक देखती. अपने रंग को मंत्रमुग्ध सी निहारती. गालों और गोलाइयों को छूती. अपने सीने के उभारों पर उसका ख़ास ध्यान रहता. हाथों से रोज़ नापती...कितने बढे..कितने बढे! उसे लगता कि यह गोलाईयां जितना बढेंगी, वह उतनी आकर्षक लगेगी. क्यूंकि, एक खूबसूरत से लडके ने कहा भी था, ''वाह क्या गोलाईयां हैं!'' एक दिन सोल्हू चाचा से बात करते समय उसने महसूस किया था कि वह उसके सीने की उठान को परख रहे थे. उसे लगा कि यह कुछ ऎसी चीज़ है, जो बूढ़े को ज़वान और जवान को पहलवान बना सकती है. एक दिन खेत पर बाबूजी का खाना ले जाते समय उसे देख कर गाँव के बदतमीज़ छोरे सीने पर हाथ मारते हुए गाने लगे थे, ''अभी तुम कली हो, खिल कर गुलाब होगी. खंज़र की नोक बन कर लाखों की जान लोगी.'' सांवली समझ गयी की लौंडे गए काम से. वह कुछ ज्यादा इठलाने लगी.

एक दिन गाँव के कुछ बुजुर्ग मोलहू के पास पहुंचे. बोले, ''मोलहू, सांवली अब पक रही है. लड़की का ध्यान रखियो. अभी कच्ची उम्र है. कुछ ऊँच नींच न हो जाये.''

सांवली सुन रही थी. कुछ समझी कुछ नहीं भी समझी. ख़ास तौर पर यह पकना क्या होता है. वह रोटी या फल तो थी नहीं कि पकती. उसने माँ से पूछा, ''माँ, चाचा लोग क्या कह रहे थे. यह पकना  क्या होता है?''

माँ बोली,''चुप कर बेशर्म छोरी. यह निकाले निकाले क्या घूमती है.'' वह कुछ कुछ समझ गयी. बाकी कुछ समझने की कोशिश भी नहीं की।

एक दिन वही हुआ जिसका सभी को अंदेशा था. गाँव के कुछ दबंग सांवली को उठा ले गए. उसे उन लोगों ने कली से फूल बनाया ही, बुरी तरह से मसल भी दिया. कुछ दिन तक उसका रसपान करने के बाद वह उसे गाँव के सूने खलिहान में फेंक गए.

इस बीच मोलहू ने थाने में रिपोर्ट की. दरोगा आया. एक दम घिसा हुआ, खुर्राट था. उसके कानों में भी सांवली की सुन्दरता के चर्चे पहुँच चुके थे या यो कहिये कि पहुंचाए गए थे.

जांच को पहुंचा तो मोलहू को गाली बकते हुए बोला, ''अबे साले, क्या तबाही मचा रखी है. क्या हमें कोई काम नहीं है कि तेरी लड़की ढूंढें. सुना है साली छिनाल थी. उठाये उठाये घूमती थी. कही किसी यार के साथ तो नहीं भाग गयी और उसे ही खसम बना लिया.''

मोलहू ने पाँव पकड़ लिए. बोला' ''नहीं दरोगा जी, मेरी बेटी बड़ी शरीफ थी. वह किसी की और आँख उठा कर नहीं देखती थी.''

दरोगा समझता सा बोला, ''साले आजकल नज़र उठाने की नहीं, उठा कर दिखाने की ज़रुरत होती है. तेरी लड़की यही तो करती थी. मैं अभी तफ्तीश करता हुआ आया हूँ. सभी यही कह रहे थे. क्या तूने उसके शादी तय कर दी थी?''

मोलहू बोला, ''नहीं साहब, गरीब की लड़की से कौन शादी करेगा.''

दरोगा बेहूदगी से भरी हँसी हँसता हुआ बोला, ''अच्छा तो  कोई माली नहीं था.''

दरोगा मोलहू को दो तीन दिन प्रतीक्षा करने के बाद थाने में आने की हिदायत दे कर चला गया.

दरोगा ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ. सूने खलिहान में फेंकी गयी सांवली घर आ गयी.

बिलकुल कुम्हला गयी थी सांवली. जैसे किसी खिले गुलाब को बुरी तरह से मसल दिया गया हो. उसकी खुशबू ही नहीं उड़ गयी थी, रंग भी बदरंग हो गया था.

उसे देख कर माँ दहाड़ मार कर रोने लगी. उसके साथ घटे  को उसका अपराध बताने लगी, ''मैंने कहा था कलमुही, इतना उचक उचक कर मत निकला कर. नज़र लग गयी न.''

सांवली समझ नहीं पा रही थी. इसमे उसका क्या दोष था ?

गाँव के बुजुर्ग और जात के लोग घर आये. मोलहू को समझाने लगे,''रिपोर्ट मत करना. दरोगा मिला हुआ है. आये तो कह देना कि लड़की घर आ गयी, हमें कुछ नहीं चाहिए.''

एक बुजुर्ग बोले, ''हमने तो पहले ही कहा था छोरी पक गयी है. शादी कर दे. तुमने सुना ही नहीं.''

पहली बार सांवली को पकने का अर्थ मालूम हुआ. जब घर आये तमाम बुजुर्गों और जाति भाइयों की आँखों में उसने तृप्ति और अतृप्ति के भाव देखे.

अकबर के सामने अनारकली का अपहरण, द्वारा सलीम !

जलील सुब्हानी अकबर ने हठ न छोड़ा।  सलीम से मोहब्बत करने के अपराध में, अनारकली को फिर पकड़ मंगवाया। उसे सलीम से मोहब्बत करने के अपराध और जलील स...