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साँवली

मोलहू की बेटी सांवली का रंग सांवला था. शायद इसी रंग के कारण मोलहू ने उसका नाम सांवली रखा था. वैसे सांवली के रंग को सांवला नहीं कहा जा सकता. काफी पका हुआ था उसका रंग. बिलकुल दहकते तांबे के बर्तन  जैसा. नाक नक्श तीखे थे. आँखों के लिहाज़ से उसे मृगनयनी कहा जा सकता था. कुल मिला कर बेहद आकर्षक लगती थी सांवली. एक दिन कुछ दिलफेंक लड़कों ने कह भी दिया था, ''आये हाय ! बिपाशा बासु.''

सांवली फ़िल्में नहीं देख पाती थी. कभी गाँव के किसी अमीर के घर जहां माँ काम करने जाती थी, देख लिया तो बात दूसरी है. यह इत्तेफाक ही था की सांवली ने बिपाशा बासु की एक फिल्म इसी प्रकार से  देखी भी थी. उसे अच्छी तरह से याद है बिपाशा बासु को देख गाँव के लौंडे तो काबू में रहे थे, लेकिन काफी बुड्ढों को सुरसुरी जैसी लग रही थी. अजीब आवाजें निकल रही थी. इनका मतलब न समझ पाने के बावजूद सांवली को शर्म लगी थी.

लेकिन जब गाँव के लड़के उसे सेक्सी और बिपाशा कह कर पुकारते तो उसे महसूस होता कि वह बहुत ज्यादा खूबसूरत है. सेक्सी का इससे बड़ा अर्थ जानने की ज़रुरत उसने महसूस भी नहीं की थी. उसे अच्छा लगता जब गाँव के जवान लडके उसे देख कर आंहे भरते, फिकरे कसते. वह मद मस्त हो जाती. आईना तो वह काफी पहले से देखने लगी थी. लेकिन अब काफी देर तक देखती. अपने रंग को मंत्रमुग्ध सी निहारती. गालों और गोलाइयों को छूती. अपने सीने के उभारों पर उसका ख़ास ध्यान रहता. हाथों से रोज़ नापती...कितने बढे..कितने बढे! उसे लगता कि यह गोलाईयां जितना बढेंगी, वह उतनी आकर्षक लगेगी. क्यूंकि, एक खूबसूरत से लडके ने कहा भी था, ''वाह क्या गोलाईयां हैं!'' एक दिन सोल्हू चाचा से बात करते समय उसने महसूस किया था कि वह उसके सीने की उठान को परख रहे थे. उसे लगा कि यह कुछ ऎसी चीज़ है, जो बूढ़े को ज़वान और जवान को पहलवान बना सकती है. एक दिन खेत पर बाबूजी का खाना ले जाते समय उसे देख कर गाँव के बदतमीज़ छोरे सीने पर हाथ मारते हुए गाने लगे थे, ''अभी तुम कली हो, खिल कर गुलाब होगी. खंज़र की नोक बन कर लाखों की जान लोगी.'' सांवली समझ गयी की लौंडे गए काम से. वह कुछ ज्यादा इठलाने लगी.

एक दिन गाँव के कुछ बुजुर्ग मोलहू के पास पहुंचे. बोले, ''मोलहू, सांवली अब पक रही है. लड़की का ध्यान रखियो. अभी कच्ची उम्र है. कुछ ऊँच नींच न हो जाये.''

सांवली सुन रही थी. कुछ समझी कुछ नहीं भी समझी. ख़ास तौर पर यह पकना क्या होता है. वह रोटी या फल तो थी नहीं कि पकती. उसने माँ से पूछा, ''माँ, चाचा लोग क्या कह रहे थे. यह पकना  क्या होता है?''

माँ बोली,''चुप कर बेशर्म छोरी. यह निकाले निकाले क्या घूमती है.'' वह कुछ कुछ समझ गयी. बाकी कुछ समझने की कोशिश भी नहीं की।

एक दिन वही हुआ जिसका सभी को अंदेशा था. गाँव के कुछ दबंग सांवली को उठा ले गए. उसे उन लोगों ने कली से फूल बनाया ही, बुरी तरह से मसल भी दिया. कुछ दिन तक उसका रसपान करने के बाद वह उसे गाँव के सूने खलिहान में फेंक गए.

इस बीच मोलहू ने थाने में रिपोर्ट की. दरोगा आया. एक दम घिसा हुआ, खुर्राट था. उसके कानों में भी सांवली की सुन्दरता के चर्चे पहुँच चुके थे या यो कहिये कि पहुंचाए गए थे.

जांच को पहुंचा तो मोलहू को गाली बकते हुए बोला, ''अबे साले, क्या तबाही मचा रखी है. क्या हमें कोई काम नहीं है कि तेरी लड़की ढूंढें. सुना है साली छिनाल थी. उठाये उठाये घूमती थी. कही किसी यार के साथ तो नहीं भाग गयी और उसे ही खसम बना लिया.''

मोलहू ने पाँव पकड़ लिए. बोला' ''नहीं दरोगा जी, मेरी बेटी बड़ी शरीफ थी. वह किसी की और आँख उठा कर नहीं देखती थी.''

दरोगा समझता सा बोला, ''साले आजकल नज़र उठाने की नहीं, उठा कर दिखाने की ज़रुरत होती है. तेरी लड़की यही तो करती थी. मैं अभी तफ्तीश करता हुआ आया हूँ. सभी यही कह रहे थे. क्या तूने उसके शादी तय कर दी थी?''

मोलहू बोला, ''नहीं साहब, गरीब की लड़की से कौन शादी करेगा.''

दरोगा बेहूदगी से भरी हँसी हँसता हुआ बोला, ''अच्छा तो  कोई माली नहीं था.''

दरोगा मोलहू को दो तीन दिन प्रतीक्षा करने के बाद थाने में आने की हिदायत दे कर चला गया.

दरोगा ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ. सूने खलिहान में फेंकी गयी सांवली घर आ गयी.

बिलकुल कुम्हला गयी थी सांवली. जैसे किसी खिले गुलाब को बुरी तरह से मसल दिया गया हो. उसकी खुशबू ही नहीं उड़ गयी थी, रंग भी बदरंग हो गया था.

उसे देख कर माँ दहाड़ मार कर रोने लगी. उसके साथ घटे  को उसका अपराध बताने लगी, ''मैंने कहा था कलमुही, इतना उचक उचक कर मत निकला कर. नज़र लग गयी न.''

सांवली समझ नहीं पा रही थी. इसमे उसका क्या दोष था ?

गाँव के बुजुर्ग और जात के लोग घर आये. मोलहू को समझाने लगे,''रिपोर्ट मत करना. दरोगा मिला हुआ है. आये तो कह देना कि लड़की घर आ गयी, हमें कुछ नहीं चाहिए.''

एक बुजुर्ग बोले, ''हमने तो पहले ही कहा था छोरी पक गयी है. शादी कर दे. तुमने सुना ही नहीं.''

पहली बार सांवली को पकने का अर्थ मालूम हुआ. जब घर आये तमाम बुजुर्गों और जाति भाइयों की आँखों में उसने तृप्ति और अतृप्ति के भाव देखे.

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