सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

2011 को

मैंने 2011 को अपनी यादों के फ्रेम में सँजो कर रख लिया है। क्यूंकि इस पूरे साल हर दिन मुझे याद आता रहा कि, एक और एक मिलकर दो नहीं होते ग्यारह होते हैं। इसीलिए जब मैं एक प्रयास में असफल हुआ तो मैंने अगला प्रयास ग्यारह गुना जोश से किया और सफल हुआ। यही कारण है कि अगले साल में मेरा एक अंक बढ़ गया है।

ऋतु माँ

उस दिन आँख खुली बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी बारिश की बूंदे मेरे घर की खिड़कियाँ पीट रही थीं मानो कह रही हों- उठो मेरा स्वागत करो. मैं उठा, खिड़की खोलने की हिम्मत नहीं हुई तेज़ बूंदे अन्दर आकर घर को भिगो सकती थीं. इसलिए बालकॉनी पर आ गया बारिश के धुंधलके के बीच कुछ देखने का प्रयास करने लगा तभी बारिश के शोर को चीरती हुई बच्चे के रोने की आवाज़ कानों में पड़ी मैंने ध्यान से दखा सामने के फूटपाथ  पर एक औरत बैठी थी उसकी गोद में एक बच्चा था चीथड़ों में लिपटा हुआ औरत खुद को नंगा कर किसी तरह बचा रही थी अपने लाल को और बच्चा था कि हाथ पांव फेंकता हुआ आँचल से बाहर आ जाता मानों बारिश का स्वागत कर रहा हो बूंदों को अपनी नन्हे सीने में समेट लेना चाहता हो कुछ बूंदे चहरे पर पड़ती तो बूंदों के आघात और ठण्ड के आभास से बच्चा थोडा सहम जाता और फिर खेलने लगता बारिश बीती सर्दी आई औरत कि मुसीबत कुछ ज्यादा बढ़ गयी थी वह खुद को ढके या लाल को कहीं से एक फटा कम्बल मिल गया था शायद वह साबुत हिस्सा बच्चे को उढ़ा देती मैंने देखा रात में कई बार वह फटे कम्बल में ठिठुरती...

किताब

कुछ लोग जीवन को किताब समझते हैं, मैं जीवन को किताब नहीं समझता क्यूंकि, किताब दूसरे लोग लिखते हैं, दूसरे लोग पढ़ते हैं. फेल या पास होते हैं. किताब खुद को खुद नहीं पढ़ती. मैं खुद को पढ़ता हूँ कहाँ क्या रह गया क्या गलत या क्या सही था समझने की कोशिश करता हूँ. कोशिश ही नहीं करता उसे सुधारता भी हूँ और खुद भी सुधरता हूँ किताब ऐसा नहीं कर पाती वह जैसी लिखी गयी है या रखी गयी है, रहती है. मैं अपनी कोशिशों से निखर आता हूँ इसलिए मैं खुद को किताब नहीं पाता हूँ.

समय, संदेश और पाँव

क्या समय किसी को छोड़ता है? बेशक समय सबको पीछे छोड़ता हुआ बहुत आगे और आगे निकल जाता है. हम लाख चाहें उसे पकड़ना, उसके साथ साथ कदमताल मिलाना, केवल उसका पीछा ही करते रह जाते हैं उसके आँखों से ओझल हो जाने तक. लेकिन समय का हर साथ हमें एक सबक सिखा जाता है. उसी ख़ास सबक के कारण हम याद रखते उस समय को जब हमें यह सबक मिला था.          (२) सुबह सुबह पक्षियों का चहचहाना ठंडी ठंडी हवा का बहना पूरब से उषा की लालिमा का सर उठाना संकेत है जीवन का कि उठो, चल पड़ो कर्तव्य पथ पर पूरे करो उस दिन के अपने कर्तव्य प्राप्त कर लो अपना लक्ष्य इससे पहले कि शाम हो जाए.             (३) जब हम सड़क पर चलते हैं हमारे दोनों पैर ज़मीन पर होते हैं हमें वास्तविकता का बोध कराते हैं ताकि सावधान रहे चलते हुए. इसीलिए जब हम गिरते हैं तब लोग हंसते हैं हम पर उस समय हमारे पाँव हवा में होते हैं.

पत्थर

जब कोई पत्थर हवा में उछलता हैं न ! मैं समझ जाता हूँ कि इसे आम आदमी ने उछाला है. इसलिए नहीं कि आम आदमी ही पत्थर चलाते हैं आम आदमी  पत्थर क्या चलाएगा इतनी हिम्मत नहीं। पत्थर क्या उछालेगा वह  तो ढंग से मुद्दे उछालना तक नहीं जानता वह सब कुछ सहता रहता है बेआवाज़ क्यूंकि उसके पास जुबां नहीं है. उनके कानों तक पहुँच जाये इतना चीख कर बोलने की ताक़त नहीं अपनी बात समझाने के लिए मुहावरेदार भाषा और मज़बूत शब्द नहीं. मैं तो बस पत्थर देखता हूँ और अंदाजा लगाता हूँ क्यूंकि इतना कमज़ोर पत्थर कोई आम आदमी ही उछाल सकता है, जो उसके सर पर ही वापस गिरे और खूनम खून कर दे उसे.

नया साल पुराना साल

              नया साल मैंने साल के हर दिन को गिना है उन्हें हफ़्तों और महीनों में पिरोया है. फिर अनुभवों की तिजोरी में बंद कर बही खाता बनाया है. इस बही खाते में दर्ज है हर सेकंड हर मिनट का हिसाब कि पिछले साल मैंने क्या खोया और क्या पाया. खोने ने मायूसी दी और पाने ने ख़ुशी . आज जब बही खाता पलट रहा हूँ, मायूसी से खुशी को घटा रहा हूँ तो पाता हूँ कि मुझे मायूसी का लाभ हुआ है और खुशियों का घाटा इसीलिए गए साल की ओर पीठ पलटा कर मैं नए साल को हैप्पी न्यू इयर कर रहा हूँ.             पुराना साल मैं व्यस्त था नए साल का स्वागत करने दोस्तों के साथ खुशियाँ मनाने की तैयारी में . कुछ ही मिनट शेष थे नए साल के आने में कि पीछे से कोई फुसफुसाया- सुनो . मैंने पलट कर देखा होंठों पर फीकी मुस्कान लिए उपेक्षित सा खड़ा था पुराना साल. बोला- याद है तीन सौ पैंसठ दिन पहले तुमने इसी तरह मेरा स्वागत किया था अपने दोस्तों के साथ. पर आज मेरी ...

त्रिकट

हमारे शरीर में दो आँखे होती हैं, जो देखती हैं. दो कान होते हैं, जो सुनते हैं. नाक के दो छेद होते हैं, जो सूंघते हैं. दो हाथ होते हैं, जो काम करते हैं. दो पैर होते हैं, जो शरीर को इधर उधर ले जाते हैं. सब पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं, शरीर को चौकस रखने के लिए. लेकिन मुंह जो केवल एक होता है वह केवल खाना चबाता नहीं. वह आँखों देखी को नकारता है. कान के सुने को अनसुना कर देता है. हाथ पैरों का किया धरा बर्बाद कर देता है. पेट अकेला होता है, जुबान उसकी सहेली होती है. जुबान स्वाद और लालच पैदा करती है पेट ज़रुरत से ज्यादा स्वीकार कर शरीर को बीमार और नकारा बना देते हैं. और मुंह इसमें सहयोग करता ही है. हे भगवान् ! यह तीन त्रिकट अकेले अंग शरीर का कैसा विनाश करते हैं. मानव को बना देते  हैं वासनाओं का दास.