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ऐसे ही स्वप्न देखता

अगर रास्ता  पथरीला नहीं पानी पानी होता  नदी बहती नहीं पत्थर सी ऐंठी रहती ज़मीन सर के ऊपर होती आसमान पाँव तले कुचलता पक्षी तैरते जानवर हवा में कुलांचे भरते मैं जागते हुए भी ऐसे ही स्वप्न देखता।

शब्दरंग में प्रकाशित ५ हाइकू

सर्दी पर ५ हाइकू

१-  सर्दी लगती मास्टर की बेंत सी नन्हे के हाथ। २- हवा तेज़ है ठिठुरता गरीब छप्पर कहाँ। ३- बर्फीली सर्दी अलाव जल गया सभी जमे हैं। ४- सूरज कहाँ फूटपाथ सूना है दुबक गए। ५- नख सी हवा मुन्ने की नाक लाल बह रही है। # राजेंद्र प्रसाद कांडपाल, फ्लैट नंबर ४०२, अशोक अपार्टमेंट्स, ५, वे लेन, जॉपलिंग रोड, हज़रतगंज, लखनऊ- २२६००१ मोबाइल -

एब्सॉल्यूट इंडिया मुंबई में दिनांक १६ नवंबर २०१४ को प्रकाशित सर्दी पर १० हाइकू

शीत पर १० हाइकू

इस जाड़े में आँखें कहाँ खुलती भोर देर से। २- उषा किरण नन्हे की नाक लाल इतनी ठण्ड ! ३- हवा का झोंका नाक बह रही है प्रकृति क्रीड़ा। ४- सूर्य उदय श्रमिक जा रहे हैं रुकता कौन ! ५- बर्फ गिरती सब सोये हुए हैं चादर तनी। ६- शीत का सूर्य बच्चा आँगन खेले अच्छा लगता। ७- सूर्य कहाँ है घूमने कौन जाये दुबके सब। ८- पत्ते पीले हैं  बाबा भी बीमार है क्या बचेंगे ? ९- हो गयी शाम खिल गए चेहरे निशा आ गयी। १०- चन्द्रमा खिला संध्या थक गयी है गुड नाईट ।             

बेटी जैसी खुशी

कभी खोई थी बेटी ढूंढता रहा था बेहाल इधर उधर जब मिली कैसा खिल गया था चेहरा आदमी का ऐसे ही खोजनी पड़ती हैं खुशियां ! 

शेष रास्ता

रास्ता ख़त्म नहीं होता कभी।  दुरूह होता है दुर्गम हो सकता है पर मिलेगा ज़रूर  ढूंढो तो सही ख़त्म होने के लिए नहीं बनते रास्ते लक्ष्य के बाद भी शेष रहते हैं रास्ते आगे जाने वाले मुसाफिर के वास्ते वहीँ ख़त्म होते हैं रास्ते/जहाँ खड़ी कर दी जाती है दीवार। २- पगडण्डी और रास्ते का फर्क पगडण्डी पर नहीं बनायी जा सकती दीवार।