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संदेश

मनहूस पेड़

मैंने देखा एक सूखे पेड़ पर उल्लू बैठे हुए हैं. भयानक आवाजें करते आस पास के लोगों राहगीरों को डराते पेड़ की किसी साख पर किसी पक्षी  को नहीं बैठने देते. इससे चकित हो कर मैंने पूछ ही लिया- तुम लोग इस पेड़ पर कई दिनों से बैठे हो कहीं और जाते नहीं सबको डराते हो पक्षियों को बैठने नहीं देते वातावरण में मनहूसियत भर गई है. उल्लू भयानक आवाज़ करते एक साथ बोले- यह पेड़ कभी हरा भरा था इसमें फूल खिलते थे फल लगते थे पक्षी इस पर बैठ कर आनंदित हो कर चहकना चाहते इसके फल चखना चाहते राहगीर इसकी छाया में आराम करना चाहते अपनी दिन भर की थकान उतारना चाहते गाँव के बच्चे इस पर चढ़ना चाहते इसका झूला बनाना चाहते इसके चारों और खेलना चाहते इसके फल चखना चाहते लेकिन यह मनहूस पेड़ उन्हें पास नहीं फटकने देता अपनी  शाखाओं  को भयानक तरीके  से हिला कर आवाज़ करता, लोगों को डरा देता इस ने  गाँव के बच्चों को कभी खुद पर बैठने नहीं दिया, झूला झूलने नहीं दिया यह उन्हें अपनी  डाल हिला कर गिरा...

ठुल चेल यानि बड़ा बेटा

मैं पैदा हुआ घर में थाली बजाई गयी, मिठाइयाँ बांटी गयीं . रिश्तेदारों क्या पूरे मोहल्ले वालों ने माँ पिताजी को बधाइयाँ दीं, मिठाइयाँ कहें. फिर मेरे बाद दो भाई और दो बहने और हुईं. माँ मुझे लोगों से मिलातीं मेरे सर पर हाथ फेरते हुए परिचय करातीं,   यह मेरा ठुल चेल यानि बड़ा बेटा है. मैं घमंड से भर जाता. मैं पढ़ने में अच्छा था हमेशा टॉप आता, भाई बहन भी टॉप करते माँ पिता कहते ठुल चेल ने शुरुआत कर दी है, सभी बच्चे टॉप करेंगे. ऐसा ही हुआ भी। मैं पढ़ लिख कर ऑफिसर बन गया. माँ पिता का सीना फूल गया, उनका ठुल चेल ऑफिसर बन गया था. उन्होने कहा, ठुल चेल ने शुरुआत कर दी है। दोनों भाई भी ऑफिसर बन गए. दोनों बहनों का विवाह  हो गया.  मैंने बड़ा घर खरीदा दोनों भाइयों ने भी अपने मकान बना लिए माँ गर्व से भर गयीं, मेरे ठुल चेल ने शुरुआत कर दी थी. इसलिए दोनों बेटों ने भी घर बना लिए। फिर हम सबकी शादियाँ हो गयीं. पत्नियाँ घर आ गयीं एक दिन पत्नी ने कहा, सुनो जी, इतनी बड़ी गृहस्थी मुझसे नहीं सम्हलती तुमने मकान ...

माँ का स्पर्श

पत्थर तोड़ने के बाद पसीने से भीगी उस औरत के सीने से चिपकना किसी फूलों भरे बगीचे का अनुभव होता था. स्नेह भरे सर और बदन पर फिरते उसके हाथ कितना कोमल अनुभव देते थे. बाजरे की सूखी रोटी उसके हाथो से कितनी मीठी लगती थी. उसकी क्रोध से भरी डांट भी अपनेपन से भरपूर थी. बुखार से पीड़ित शरीर को उसकी प्रार्थना हल्का कर देती थी. ओ माँ !!! मेरा स्वर्ग छीन कर तुम क्यूँ चली गयी?

पलायन

अकेलेपन की चाह में मैं अपनों से भागता रहा। पर बावजूद इसके मेरे साया मेरे साथ था। मैं जितना भागता वह उतना तेज़ मेरे पीछे होता। इस से घबराकर में अंधेरे में घुस गया। कुछ देर बाद जब निकला तो न साथ अपने थे, न साया साथ था न उजाला ही रहा।

अधूरी माँ

माँ जब पिता पर ज्यादा ध्यान देतीं, उनकी सेवा करती, हमसे पहले उन्हें खाना देती, मैं माँ से नाराज़ हो जाया करता था कि, वह पिता को हमसे ज्यादा, अपने जनों से ज्यादा चाहती हैं, प्यार करती हैं. आज जब मेरे बच्चों की माँ मेरी ओर ज्यादा ध्यान देती है, मेरी सेवा करती है, बच्चों से पहले खाना देती है, तो बच्चे उससे नाराज़ हो जाते हैं कि, वह अपने जनों से ज्यादा मुझे प्यार करती है. आजकल के बच्चे मेरी तरह चुप रहने वाले नहीं एक दिन बेटे ने यह कह ही दिया. मैं उससे कहना चाहता था- बेटा, हमें अपनी देखभाल खुद ही करनी है, तुम्हारी माँ को मेरी और मुझे तुम्हारी माँ की सेवा करनी है. जबकि, तुम्हारी देखभाल करने को हम दोनों हैं. मैंने एक के न होने का फर्क देखा है. पिता मर गए, मुझे मिलने वाला प्यार आधा हो गया, सर पर हाथ फेरने वाला पिता का हाथ नहीं रहा. माँ को ही सब कुछ करना पड़ता था. मैंने देखा था मेरे बीमार होने पर रात रात देख भाल करतीं, थपक कर सुलाती अपनी माँ को. मैंने नज़रें बचा कर देखा है बेटा माँ को खुद के सर पर बाम लगाते हुए, अपने थके पैरों को मसलते हुए, बुखार...

विकास

मुझे मालूम नहीं था कि, विकास की आंधी ऐसी होती है जिसमे वन काट दिये जाते हैं, हरियाली खत्म हो जाती है। वनों में शांत विचरने वाला सिंह विकास के अभ्यारण्य में आकर आदमखोर हो जाता है और मार दिया जाता है। ऐसे कंक्रीट के जंगल में इंसान इंसान नहीं रहता भेड़िया बन जाता है।

वसंत

मैं आजतक नहीं समझ पाया, कि, वसंत ऐसा क्यूँ होता है? उसके आने से पहले पेड़ पर पत्ते सूख जाते हैं, अपनी साखों से झड़ जाते हैं। फिर मादक वसंत आता है, हरे पत्तों, सुंदर सुंदर पुष्पों और चारों ओर हरियाली के साथ जग को हर्षाता है, मन गुदगुदाता है। मगर ऐसा क्यूँ होता है कि, उसके जाने के बाद ग्रीष्म ऋतु आती है क्रोधित सूरज आग उगलने लगता  है वनस्पति, जीव और जन्तु कुम्हला जाते हैं, व्याकुल हो जाते हैं। हे प्रकृति ! वासंतिक सौंदर्य का यह कैसा प्रारंभ यह कैसा अंत।