बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

ज़िंदा

मूर्ति की भांति
मैं खड़ा था
निःचेष्ट ।
एक व्यक्ति आया
उसने मुझे देखा
मैं हिला नहीं।
फिर ज़्यादा लोग आए
किसी ने मुझे छुआ
बांह से/बालो से/ सीने से
मैं कसमसाया तक नहीं
कुछ ने मेरी नाक उमेठी
बाल खींचे
आँख में उंगली डाल दी
मैंने कोई विरोध नहीं किया।
फिर सब चले गए
मैं अकेला रह गया
चौकीदार आया
मेरी बांह पकड़ कर बोला-
चल बाहर चल,
मुझे मोमघर बंद करना
तुझे अंदर नहीं रख सकता
क्योंकि तू
सचमुच ज़िंदा है।

रविवार, 28 अक्टूबर 2012

वर्तमान

हमारे अपने है,
हमारे द्वारा निर्मित हैं
भूत, भविष्य और वर्तमान ।
हम/अपने भूत को पलट पलट कर
देखते हैं/रोते हैं
किन्तु, अलविदा नहीं कहते ।
हम अपने भविष्य को
बँचवाते हैं/सपने बुनते हैं/सोचते रहते हैं ।
हम अपने वर्तमान को
देखते नहीं/बाँचते नहीं/सँवारते नहीं
उधेड़बुन में बीत जाने देते हैं
देखते रहते हैं
वर्तमान को भूत बनते
और फिर जुट जाते हैं
भविष्य बँचवाने/सपने बुनने में 
सँवारने में नहीं ।
भविष्य सँवारने की कोशिश
करें भी तो कैसे
वर्तमान को तो हम
अंधे बन कर
लूला लंगड़ा असहाय गुजर जाने देते हैं।

सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

दिवाली

घोर अंधेरी रात में
जगमग की बरसात ले
दीवाली आयी है ।।
बिखरी हैं
जगमग रोशनियाँ ।
सजी हुई
खुशियों की लड़ियाँ ।
अमावस को दूर भगा
दीप बत्तियाँ जला जला
धरती माँ जगमगाई है।
दीवाली आयी है।
झिलमिल झिलमिल
दीप जले ।
खिल खिल खिल खिल
खील खिले।
लक्ष्मी माँ अब आ जाओ
पूजा की बेदी सजाई है।
दीवाली आयी है।
 

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

ममता

देख रहा दुःस्वप्न
छीने ले जा रहा कोई
माँ की गोद से ।
व्याकुल बच्चा
छटपटा रहा
चीखना चाह रहा
रोना चाह रहा
किन्तु अंजाना सा भय
आवाज़ नहीं निकलने दे रहा
मुंह से
बड़ी कठिनाई से
बच्चा चीखता है-
माँ !
तभी सर पर
फिरने लगती हैं
कोमल और ममता भरी हथेली
सो जा बेटा
मैं हूँ तेरे पास
हल्की मुस्कुराहट बिखेर कर
आश्वस्त हो सो जाता है बच्चा
पास ही तो है
माँ !
 

दिवाली

छूटते पटाखे
जलती फुलझड़ियाँ और अनार
आसमान पर थिरकती हवाई
ज़मीन पर नाचती चक्री
देख रहा है मुन्ना
जलते दीपकों के बीच
झिलमिला रही हैं आंखे।
(2)
बड़ी दियाली
छोटी दियाली
अगल बगल
दोनों में जलती बाती
आनंद ले रहीं
अंधेरे के बिखरने का
तभी
बड़ा दीपक इतराया
ज़ोर से लहराया/और बोला-
ऐ छोटी डर नहीं
मेरे नीचे छिप जा
मैं बचा लूँगा तुझे
हवा नहीं बुझा पाएगी तुझे 
कि तभी,
हवा का तेज़ झोंका आया
सम्हलते सम्हलते भी
बड़े दीपक की बाती बुझ गयी
लेकिन,
छोटी दियाली
अंधेरा भगा रही थी
उस समय भी।

(3)
दीवाल पर
मुन्ना के नयनों में
दीपक जले।

(4)
 

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

मुंगेरीलाल के सपने

मैं मुंगेरीलाल हूँ
मैं सपने देखता हूँ ।
अरे तुम हँसे क्यों
मेरी आँखें
क्यों नहीं देख सकती सपने 
हर आँखों में नींद होती है
सपने होते हैं
सोने के बाद
सभी आँखें सपने देखती हैं
मैं भी देखता हूँ
शायद तुम यह सोचते हो कि
मेरे सपने तो
मुंगेरीलाल के सपने हैं
जो पूरे नहीं हो सकते
लेकिन, बंधु
हमारे देश के कितने लोगों के
सपने पूरे होते हैं
ज्यादातर सपने तो
जागने से पहले ही बिखर जाते हैं
कुछ आंखे तो
 सपनों के बिखरने के लिए आँसू बहाती हैं
इसके बावजूद
अगले दिन फिर सपने देखती हैं
हमारे देश में
मुंगेरीलाल सपने ही तो देख सकता हैं।
 

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2012

विभीषण

तीन भाई होते हुए भी
तीन भाइयों वाले राम से
इसलिए हारा रावण
कि
जहां राम के साथ
भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण थे
वही रावण के तीन भाइयों में
एक विभीषण जो था।



 

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

सोचो राम !!!

प्रत्यंचा चढ़ाये
होठों में मुसकुराते /राम से
रावण ने कहा-
राम तुम राम न होते
मैं रावण नहीं होता
तुम वहाँ नहीं होते
मैं यहाँ नहीं होता
अगर,
थोड़ा रुक कर बोला रावण -
यहाँ अगर का बड़ा महत्व है राम
अगर तुम्हें
भाई घाती सुग्रीव न मिलता
तो तुम बाली को न मार पाते
बानरों से सीता का पता न पाते
अगर तुम
मेरे भाई को विभीषण न बनाते
तो मेरी नाभि के अमृत का पता न चलता
मेरी अमरता को मार न पाते ।
तुम  राम हो और मैं रावण  हूँ
क्योंकि
मुझे विद्रोही भाई मिले
जबकि तुम्हें भरत मिला ।
अगर भरत भी
विभीषण बन जाता
तो सोचो राम
क्या तुम राम बन पाते ?
अयोध्या के राजा बन कर
अपनी मर्यादा जता  पाते?
सोचो राम !!!

 

सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

ऊन उलझी

जाड़ों  में
एक औरत
स्वेटर बुनती है ।
फंदा डालना है
फंदा उतारना है
अधूरे सपनों को
इनसे संवारना है
हरेक स्वेटर में
ज़िंदगी गुनती है।
जाड़ा आता है
जाड़ा चला जाता है
जिसने कुछ ओढा हो
उसे यह भाता है।
गुनगुनी धूप से
भूख कहाँ रुकती है।
जिंदगी की स्वेटर में
डिजाइन कहाँ
उलझी हुई ऊन से
सब हैं यहाँ
ऐसी ऊन से माँ
सपने बुनती है ।

स्वेटर

जाड़ों में स्त्रियाँ
स्वेटर बुनती नज़र आती हैं
धूप में बैठी हुई
बात करती
तेज़  गति से सलाई चलाती
एक फंदा सीधा, एक उल्टा
या कुछ फंदे सीधे और कुछ उल्टे
या फिर ऐसे ही गणित के साथ
डिजाइन बनाती हैं।
स्वेटर लड़की के लिए भी बन रही है
और लड़के के लिए भी
लेकिन लड़का पहले है
कुल का चिराग है
कहीं ठंड न लग जाये
लड़के की स्वेटर की ऊन भी नयी है
लड़की के लिए मिक्स है।
लड़के की स्वेटर के डिजाइन में
खूबसूरत फूल हैं
हाथी घोड़े और चढ़ता सूरज है
लड़की के स्वेटर में
एक दुबली सी लड़की की डिजाइन है
डिजाइन वाली लड़की
न जाने हंस रही है या रो रही है
मगर स्वेटर पूरी होने को है।
 निश्चित रूप से
पूरी स्वेटर देख कर
पुलक उठेगी मुनिया
पिछले जाड़ों में तो
छेद वाली ही स्वेटर नसीब हुई थी न!

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

दरख्त जैसे मकान


मेरे शहर में
ऊंचे ऊंचे दरख्तों जैसे
एक के ऊपर एक चढ़े
मकान होते हैं 
जिनके सामने
ऊंचे दरख्त भी
बहुत छोटे लगते हैं
कभी
कबीर ने कहा था -
बड़ा भया तो क्या भया/
जैसे पेड़ खजूर /
पंथी को छाया नहीं /
फल लागे अति दूर ।
मेरे शहर के
इन गगनचुंबी दरख्तों पर
फल तो लगते ही नहीं 
छाया क्या खाक देंगे
दरख्तों को काट कर बने मकान।