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जुलाई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इधर उधर, उधर इधर

बिल्ली आई ,  चूहे भागे , इधर उधर , उधर इधर पानी बरसा , बूंदे बिखरी इधर उधर , उधर इधर। आंधी आई , पत्ते फैले  इधर उधर , उधर इधर। कुत्ता भौंका , पब्लिक भागी इधर उधर , उधर इधर।

ग़ज़ल

मैंने कब भूलना चाहा था तुमको,  तुम थे कि मुझे कभी याद न आये। ...   चाहता था हमेशा  दोस्ती  करना तुमसे , तुम दुश्मनी की रस्म निभा के चले गए।

मॉं-बाप

जब , मॉं-बाप नहीं रहते तब समझ पाता है आदमी । पिता की जिस लाठी से डरता था , पिता को बुरा मानता था आज समझ में आया कि डराने वाली यही लाठी सहारा बनती थी गिरने पर , लड़खड़ाने पर । बीवी के जिस आकर्षण में मॉं के आँचल से दूर हो गया , उसी से मॉं चेहरे पर ठंडी हवा मारती थी , पसीना पोंछ कर सहलाती थी , छॉंव में चैन से सोता था । आज मॉं-बाप नहीं , बच्चे है। और मैं खुद हो गया हूँ- मॉं-बाप ।