शनिवार, 14 अप्रैल 2012

ऐ पिता !!!

ऐ पिता !
तेरी बाँहें इतनी मज़बूत क्यों हैं
कि जब कोई बच्चा
हवा में उछाला जाता है
तो वह खिलखिलाता हुआ
उन्ही बाँहों में वापस आना चाहता है.
तेरी भुजाएं इतनी आरामदेह क्यों होती हैं
कि कोई बच्चा
इनमे झूलता हुआ सो जाना चाहता है
ऐ पिता !!
तेरी उंगलियाँ पकड़ कर
वह लड़खड़ाता हुआ चलना सीखता है
तेरी उंगलियाँ पकड़ कर बड़ा होना चाहता है
इतना बड़ा कि तेरे कंधे तक पहुँच सके.
मगर ऐ पिता !!!
इस बच्चे की बाँहें इतनी कमज़ोर क्यों होती हैं
भुजाएं इतनी कष्टप्रद क्यों होती हैं
कि कोई पिता इनमें समां नहीं पाता, आराम नहीं पा सकता
क्यों बेटे की उंगली
यह बताने के लिए नहीं उठ पातीं
कि वह मेरे पिता हैं.
क्यों ! क्यों !! क्यों !!!
ऐ पिता,
यह बात तो बेटा
उस समय भी समझ नहीं पाता
जब वह अपने बेटे को
हवा में उछाल रहा होता है
भुजाओं में समेटे सुला रहा होता है
उंगलिया पकड़ कर चलना सिखा रहा होता है.
ऐ पिता !
ऐसा क्यों होता है यह पिता ???

दादी

''माँ तुम तो राजू के लिए कुछ ज्यादा प्रोटेक्टिव हो. वह अब इतना बच्चा भी नहीं रहा कि हर समय देखना पड़े. बच्चा है. खेलेगा तो गिरेगा भी, चोट भी लगेगी. तुम इतना फ़िक्र क्यों करती हो?'' पिताजी दादी से कह रहे थे.
मुझे बहुत अच्छा लगा. दादी हर समय टोकती रहती है. यह न करो, वह न करो. तो करो क्या. साथ के बच्चे मज़ाक उड़ाते हैं 'क्या हाल हैं यह न करो बच्चे के'. मैं खिसिया जाता. दादी से मना करता पर  वह कहाँ सुनने वाली थीं.
दादी मुझे फूटी आँख न सुहाती. सच कहूँ मुझे उनका झुर्रियों भरा चेहरा बिलकुल अच्छा नहीं लगता. वास्तविकता तो यह थी कि मैं खुद के बुड्ढे हो जाने के ख्याल से घबरा जाता था. शीशे में चेहरा देखता, झुर्रियों की कल्पना करता तो सिहर उठता. क्यों जीते हैं लोग इतना कि चेहरे पर समय की मार नज़र आने लगती है.
दादी का चेहरा छोटा था. झुर्रियां होने के कारण मुझे बड़ा अजीब सा लगता. जैसे किसी अख़बार के कागज़ को बुरी तरह से मसल कर फेंक दिया गया हो.
इस चिढ का एक बड़ा कारण यह भी था कि दादी हर दम मेरे पीछे लगीं रहती. वैसे वह मेरी पैदायश से मेरा ख्याल रखती रही हैं. माँ नौकरी करती थीं. मैं पैदा हुआ तो पिता ने अपनी माँ यानि मेरी दादी को अपने पास  बुला लिया. पिताजी के पिताजी यानि मेरे दादाजी काफी पहले गुज़र गए थे. माँ गाँव में घर में अकेले रहती थी. वह कहती रहती कि बेटा अपने पास कुछ दिन बुला ले, यहाँ अकेले मन नहीं लगता. तेरा और बहु का चेहरा देख कर जी लूंगी. पर पिताजी ने कभी नहीं बुलाया. आज- कल और कल-आज कह कर टालते रहे. माँ भी कहाँ चाहती थीं कि उनकी सास साथ रहे. वैसे माँ पिताजी जब चाहते घर आते थे. पिक्चर देखते, बाहर खाते. खूब खरीदारी करते. माँ के आने पर यह सब बंद हो जाता. बूढ़े लोग टोका टाकी बहुत करते हैं, यह माँ मुझसे काफी पहले से जानती थीं. इसके बावजूद उन्होंने पता नहीं क्यूँ दादी को घर आने दिया. खुद उन्होंने ही पिताजी से कहा कि माँ आ जायेंगी तो बहुत मदद हो जाएगी.
ऐसा हुआ भी. दादी आयी, माँ पहले की तरह छड़ी जैसी हो गयीं. उनका काम मुझे दूध पिलाने तक सीमित था. उसके बाद सब दादी करतीं. मुझे नहलाना धुलाना, टट्टी साफ़ करना, कपडे बदलना, मुझे बाँहों में डुलाते हुए सुलाना, सब कुछ दादी करतीं. माँ इत्मीनान से हो गयी थीं. केवल ऑफिस जाती और घर आकर खाना खा कर इधर उधर के काम में जुट जाती. वह बेहद खुश थी दादी के आने से. क्यूंकि उनके आने से माँ की जो आज़ादी कथित तौर पर छिन सकती थी, वह नहीं छिनी थी. दादी मुझ में ही खो गयीं थीं. कहते हैं न कि मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है. दादी को अपने बेटे का बेटा ज्यादा प्यारा था. माँ का तो जैसा सारा भार कम हो गया था.
लेकिन मेरी मुसीबत थी. जब तक मैं चल फिर नहीं सकता था, तब तक दादी की उंगलिया या बढे हाथ भले लगे. लेकिन अब मैं चल फिर सकता था. दौड़ भी सकता था. मुझे किसी सहारे की ज़रुरत नहीं थी. यह तो इंसानी फितरत है कि जब तक डगमगाता है, सहारा ढूढता है. जैसे ही संतुलन बना लेता है, सहारे की तरफ से मुंह फेर लेता है. मैं भी तो इंसान की औलाद था.
हाँ तो बात दादी की हो रही थी. दादी को गठिया था. बैठी बैठी कराहती रहती थीं. सब उनकी कराह को सुन कर अनसुना कर देते. मैं भी. कभी दादी से तफरी करने का मन होता तो मैं कहता- क्या पैर दबा दूं. दादी ढेरों आशीर्वाद देते हुए कहती- तू खूब जिए. अपने बाप से बड़ा आदमी बने. मुझे यह आशीर्वाद समझ नहीं आता. पिता से बड़ा बनने में कौन सा फायदा है. पिताजी पाल ही रहे हैं. मैं उनसे बड़ा हो जाऊंगा तो मुझे उन्हें पालना पड़ेगा. दादी को भी पालना पड़ेगा. कौन उठाएगा इतना भार. यह सोच कर मैं दादी के पास आता. दादी टांगे आगे कर देती. मैं उनके पाँव में चढ़ जाता. पहले धीरे धीरे दबाता. फिर, यकायक जोर से दबा देता. दादी दर्द से बिलबिला जातीं. मैंने देखा कि कभी उनकी आँखों में आंसू भी छलक आते. पर वह जोर से नहीं चिल्लाती. मैं सोचता, पिताजी से डरती हैं कि डांटेंगे कि बेकार बैठी रहती हो. पैर में दर्द होता है तो चिल्लाती हो. मैं इंसान की औलाद इतना भी नहीं समझ पाता था कि वह मुझे डांट पड़ने के डर से नहीं चिल्लाती थीं. मैं उन्हें दर्द पहुंचा कर हँसता हुआ भाग जाता. लेकिन अगले दिन या थोड़ी देर बाद दादी फिर कराहते हुए मिलतीं.
दादी की सबसे ख़राब आदत यह थी कि जैसे ही मैं खेलने के लिए घर से बाहर निकलता, वह धीरे धीरे चलते हुए, बाहर निकल आतीं और चबूतरे पर बैठ जातीं. लगातार मुझे देखती रहतीं. मैं एक पल उनकी आँखों से ओझल हो जाता तो चिल्लाने लगतीं- अरे राजू, तू कहाँ गया. साथ के बच्चे चिल्लाने लगते- अरे राजू, तू कहाँ चला गया. मैं शर्मिंदा होता हुआ दादी के सामने आ जाता. दादी मेरे सर पर हाथ फेरतीं. मैं सर झटक कर फिर खेलने में लग जाता. मैं दौड़ता तो उसके साथ ही दादी की जुबां भी दौड़ने लगती- धीरे बेटा धीरे. गिर जायेगा. चोट लग जायेगी. घुटने रगड़ खा गए तो बहुत दर्द होगा. धीरे खेल धीरे. ऐ किसना बेटा, धीरे खेलो. राजू गिर जायेगा. किसना दादी के सामने कुछ न बोलता. पर अन्य बच्चों के  सामने कहता- भैया धीरे खेलो राजू गिर जायेगा. फिर व्यंग्य मारता हुआ कहता- हम लोग तो अपने माँ बाप की औलाद हैं ही नहीं. मैं कुछ ज्यादा खिसिया जाता.
मेरे खेलने में दादी के इस ज्यादा हस्तक्षेप ने मुझे दादी का छोटा मोटा दुश्मन बना दिया. अब मैं उन्हें सताने की जुगत में रहने लगा. बच्चे दादी के पीछे जाकर उनके धोती खींच देते. कभी उनकी लकड़ी उठा कर फेंक देते. उन्हें मिल कर चिढाते- दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ. पोपला मुंह बंद करो न, अब न सताओ.
एक दिन माँ ने मुझे दादी को परेशान करने के लिए बच्चों को उकसाते हुए देख लिया. उन्होंने मेरे कान पकड़ कर एक चपत लगायी- अब ऐसा किया तो तेरे पापा से शिकायत कर मार लगवाऊंगी.
मुझे कतई विश्वास नहीं था कि कोई माँ किसी बुड्ढी के लिए अपने बेटे को मार लगवायेगी. वह भी उस औरत के लिए, जिसे उन्होंने अपनी ज्यादा ज़िन्दगी पसंद ही नहीं किया, पास नहीं फटकने दिया.
इसका नतीजा यह हुआ कि मैं दादी का कुछ ज्यादा बड़ा दुश्मन बन गया. बच्चों के लिए जब कोई दुश्मन बन जाता है, जो वह उससे डरने लगते हैं. लेकिन यदि वह घर का हो दादी जैसा, तो उसका इन्तेकाम बढ़ जाता हैं. मैं भी हर समय दादी से इन्तेकाम लेने की फिक्र में रहने लगा.
एक दिन मैंने साथ के बच्चों को सिखाया कि मुझे दादी के कारण बहुत डांट पड़ती है. उनसे बदला लेना है. तय यह पाया गया कि जब दादी खडी हों तो उनको धक्का दे  दिया जाये. उन्हें चोट लगेगी तो वह हमारा पीछा नहीं कर पाएंगी, घर में ही दुबकी रहेंगी. मैंने दोस्तों से कहा कि मैं दादी की और दादी दादी कहता हुआ भागूंगा. जैसे ही मैं उनके पास पहुंचूंगा, तुम लोग मुझे उन पर धक्का दे देना और भाग जाना. सभी तैयार हो गए.
दादी से बदला लेने का सुनहरा दिन आज ही आ गया. दादी की कमर में दर्द कुछ ज्यादा था. हवा भी ठंडी चल रही थी. इसलिए वह अन्दर जाने के लिए खडी हुई .  मैंने बच्चों को इशारा किया. बच्चों ने हां  में सर हिला  दिया. मैं दादी दादी कहता दादी की तरफ भागा.  बच्चे मेरे पीछे थे. जैसे ही मैं पास पहुंचा, मुझे लगा कि अब वह मुझे पीछे से धक्का मारेंगे, मैं दादी को धकेल दूंगा. तभी दादी ने पीछे पलट कर देखा. लेकिन यह क्या बच्चे भाग गए थे. लेकिन मैं दादी को धक्का देने के ख्याल में इतना खोया  हुआ  था कि खुद को दादी पर गिरा  देने में नहीं हिचकिचाया. दादी एक चीख के साथ जमीन पर गिर पड़ी. तभी मेरी निगाह घर के दरवाज़े पर पड़ी. माँ खडी हुई  मुझे घूर रही थीं. डर के कारण मैं रोता हुआ भाग निकला.
शाम को अन्धेरा होने पर घर पहुंचा. पिताजी आ गए थे. घर का माहौल काफी गंभीर था. पिताजी शायद तभी आये थे. माँ उनसे मेरी शिकायत कर रही थीं. पिताजी ने मुझे घूर कर देखा. वह चीखे- राजू यहाँ आओ.
मैं कांपता हुआ उनके सामने जा खड़ा हुआ. पिताजी क्रोध से काँप रहे थे. उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा. उनकी हथेली मेरे गालों पर पड़ने के लिए हवा में थी कि दादी आ गयीं. वह कराहते हुए बोली- रुक जा बेटा. उसे ना मार. इसमें उसकी इतनी गलती नहीं. वह बड़ा हो गया है. मैं बेकार ही उसको हर बात पर टोकती रहती थी. साथी बच्चे चिढाते थे. इसलिए उसने ऐसा किया. बच्चा है. बड़ा हो कर ही समझेगा कि उसने क्या गलती की थी.
दादी कराहते हुए जमीन पर बैठ गयीं थीं.
माँ और पिताजी दादी की और दौड़ पड़े. दोनों ने उठा कर कमरे में चारपायी पर बैठाया. दादी बेहाल थी. मुझे पहली बार बेहद दुःख हुआ. अगर दादी मना नहीं करती तो शायद मुझे बहुत मार पड़ती. लेकिन दादी ही तो कह रही थीं कि मैं बड़ा हो गया हूँ, साथी बच्चों के चिढाने का मुझे बुरा लगता है. मगर क्या मैं इतना बड़ा  नहीं हुआ हूँ कि समझ सकूं कि दादी जो मेरी इतनी फ़िक्र करती हैं तो मुझे प्यार करने के कारण करती हैं. उन्हें फिक्र है. वह  मेरी सुरक्षा के ख्याल से हर समय साथ रहती हैं. जबकि मैं उन्हें अपना दुश्मन समझता रहता हूँ.
मेरी आँखों में अनायास आसूं आ गए. मैं दादी से रोता  हुआ लिपट गया. मुझे रोता  देख कर दादी मेरे आंसू पोछने लगीं. वह बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेर रही थीं.
लेकिन मैं एक बात नहीं समझ पाया हूँ कि मेरे आंसू पोंछ रही दादी अपने आंसू क्यों नहीं रोक पा रही थीं.

रविवार, 8 अप्रैल 2012

प्रार्थना

बेटे ने कहा-
माँ ! तू मरना मत
मैं तेरे बिना कैसे जिऊँगा.
माँ बीमार थी
डॉक्टर ने जवाब दे दिया था.
माँ की जीने की जिजीविषा थी
या बेटे का विलाप कि
माँ ठीक हो गयी.
माँ ने कहा-
बेटे की प्रार्थना मुझे लग गयी
मैं बच गयी.
माँ बेटे का बहुत ख्याल रखती
चाहती बेटा ज़ल्दी से बड़ा हो जाये,
अपने पैरों पर खड़ा हो जाये
ताकि उसे माँ के सहारे की ज़रुरत न पड़े.
बेटा नौकरी करने लगा
माँ ने शादी कर दी
सुन्दर बहु लायी
सुशील भी लग रही थी
माँ को माँ और खुद को उसकी बेटी मानती
थोड़े दिन ऐसे ही गुज़रे
फिर बेटी बहु बन गयी
यहाँ तक कि बेटा भी बहु का पति बन गया
एक दिन माँ और बहु साथ बीमार पड़ीं
बेटे को लगा माँ बीमार है
पर पत्नी बहुत ज्यादा बीमार है
माँ ने कहा भी-
बेटा बहुत तकलीफ हो रही है
लगता है बचूंगी नहीं
बेटे ने कहा- नहीं माँ! ऐसा मत कहो.
तुम ठीक हो,
मैं अभी तुम्हारी बहु को दिखला कर आता हूँ
फिर तुम्हे अस्पताल ले जाता हूँ.
बेटा पत्नी को डॉक्टर के पास लेकर चला गया
माँ समझ गयी
बेटा अब बड़ा हो गया है
माँ के बिना रह सकता है.
अब माँ को बेटे की प्रार्थना की ज़रुरत नहीं थी.

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

धूल

धूल पर हम
चाहे जितनी नाक भौंह सिकोड़ें
यह अजर, अमर और सर्वत्र है
इसका अपना महत्व है
घमंडी धूल में मिल जाता है
शरीर को धूल में ही मिल जाना है
यह ज़मीन से उठती है
हवा के साथ उड़ कर
आसमान छू लेती है
हमारे शरीर पर
पैर से सर तक लिपट जाती है
धूल का घमंड उसे
आसमान से ज़मीन पर बिखेर देता है
सर- माथे पर जमी धूल को हम
सर माथे नहीं लगाते
पैर की धूल के साथ
नाली में बहा देते हैं.

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

मैं लड़की

भाई
मैं एक लड़की हूँ
मैं आपको भाई नहीं कहना चाहती
पर मुझे कहना पड़ेगा
अन्यथा
मेरे सम्बोधन के अनर्थ निकाले जाएंगे
आप किसी औरत को
किसी नीयत, किसी मक़सद से भाभी कहो
कोई अनर्थ नहीं खोजेगा
लेकिन मेरा किसी को जीजा कहना
कितने ही अनर्थ को जन्म देगा
क्यूंकि
लड़की यानि औरत 
हर मायने में ग़रीब होती है।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

बच्चे की सुबह

बच्चा
सुबह ज़ल्दी जाग जाता है
वह डर जाता है
बाहर से अन्दर झाँक रहा है अँधेरा
बच्चा कस कर ऑंखें भींच लेता है
अपनी मुंदी पलकों के अँधेरे से
बाहर के अँधेरे को
झुठलाने की कोशिश करता है.
ऐसे ही लेटा रहता है देर तक
थोड़ी देर में
सुबह का उजाला
खिडकियों की झिरी से
दरवाज़े की सरांध से
अन्दर झांकता है
फिर बच्चे को देख कर
अन्दर पसर जाता है, उसके चारों ओर
बाहर चिड़ियाँ
दाना चुग रही हैं
एक दूसरे को बुला रही हैं चूँ चूँ पुकार करके
उनका कलरव, पंखों का फड़फड़ाना
बच्चे के कानों में दस्तक देता है
बच्चा आँख खोल देता है,
आ हा ! सुबह हो गयी !
वह हाथ पाँव फेंकता हुआ
मानो माँ को जगा रहा है-
उठो माँ, सुबह हो गयी।

रविवार, 1 अप्रैल 2012

मालती

मेरे हाथों में मालती का ख़त है.
उसने लिखा है- तुम हमेशा मेरे दिल में ही थे राजेश!
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हम दोनों कॉलेज के दिनों में मिले थे. को-एजुकेशन वाला कॉलेज था. मालती मेरे ही क्लास में ही पढ़ती थी. बेहद खूबसूरत थी और उतनी ही चंचल भी. अपनी सहेलियों के साथ दिन भर हंसी मज़ाक करना उसका शगल था. लेकिन, थी वह पढ़ने में तेज़. क्लास टेस्ट में भी वह हम लड़कों से अव्वल आती। .
वह मेरी और कब आकृष्ट हुई पता नहीं. पर मैं पहले ही दिन से उस पर फ़िदा हो गया था।  यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि कॉलेज का हर लड़का उस पर फ़िदा था. कुछ कम फ़िदा थे तो कुछ ज्यादा और कुछ तो बहुत ज्यादा. जान देने वाले भी थे एक दो. ऐसे विरल जीवों में से एक मैं भी था. लेकिन वक़्त आने पर यह स्पीसीज जान देने में पीछे हट जाती है.
हाँ तो मैं बता रहा था कि न जाने कब मालती मेरी और आकृष्ट हो गयी. मैं सातवें आसमान पर था. लड़कों की ईर्ष्या का केंद्र था. उनके विचार से लंगूर के बगल हूर आ गयी थी. लड़कियाँ भी चिढ़ती थी उससे. अरे वह तो बड़ी रिजर्व रहती थी. किसी को लिफ्ट ही नहीं मारती थी. पता नहीं यह क्या सूझी उसे. ऎसी लड़कियाँ बनती बहुत हैं. हम दोनों के बारे में ऎसी ही न जाने कितनी बाते होती रहती थीं. मैं सोचता रहता था को-एजुकेशन के कॉलेज में जितने स्कैंडल बनते हैं, अफवाहें उड़ती हैं. इतनी अफवाहें और स्कैंडल तो बॉलीवुड में नहीं होते.
जैसा कि  लैला मजनूँ, हीर राँझा, शीरीं फरहाद करते रहे होंगे, हम दोनों भी साथ जीने मरने की कसम खाते. वह पूछती तुम मुझे कितना प्यार करते हो? मैं फिल्मी संवाद बघारता- मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूँ. तुम न मिली तो मैं मर ही जाऊंगा. मैंने अपने जीवन में तुमसे ही प्यार किया है और यह सच्चा है.
मैं उसका दिल टटोलना चाहता- तुम मुझे कितना प्यार करती हो? वह कहती- राजेश, शायद तुम विश्वास नहीं करोगे, तुम पहली नज़र में मुझे अच्छे लगाने लगे थे. पर मैं इतनी माडर्न नहीं हूँ कि तुम्हे तुरंत आइ लव यू बोल देती. मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ. हमारी कुछ सीमायें और संकोच होते हैं. लेकिन राजेश तुम हमेशा से मेरे दिल में थे, दिल में हो और रहोगे.
पता नहीं यह कैसे हुआ. हमारे प्यार का भेद हमारे घर वालों को मालूम पड़ गया. अब तक प्यार में खोये रहने वाले हम लोगों को भी अब जाकर मालूम हुआ था कि हम लोग भिन्न जातियों के थे. मैं ठाकुर था. वह ब्राह्मण जाति की. हमें इस से फर्क नहीं पड़ता था कि हमारी जाति क्या थी. क्यूंकि हम अपने प्यार को ही अपनी जाति समझते थे. पर समाज और हमारे परिवार की नज़रों में हमारे प्यार का कोई महत्त्व नहीं था. हम दोनों के ही घरों में किसी ने शादी से पहले प्यार नहीं किया था. सबकी तयशुदा शादी हुई थी. बड़े बुजुर्ग कहते थे- शादी के बाद प्यार अपने आप हो जाता है. अगर ऐसा नहीं होता तो बच्चे कैसे होते।
हम दोनों के घरों में खूब गुल  गपाड़ा मचा. फरमान सुना दिया गया कि यह शादी नहीं हो सकती. मालती के घरवालों ने तो उसके लिए सजातीय लडके की खोज भी शुरू कर दी.
एक दिन वह आयी. उसकी आँखे सूजी हुई थीं. शायद रात भर रोई थी. मुझे देखते ही मुझसे लिपट कर रोने लगी. मैं सहम गया. सभी हमारी तरफ देख रहे थे. मैं इतना हिम्मती नहीं था कि कोई लड़की सरेआम मुझसे लिपट जाए और मैं सहज बना रहूँ. मैंने लगभग ज़बरन उसको खुद से दूर किया. मैं इतना सहम गया था कि उसकी आँखों के आंसूं पोछने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाया. बड़ी मुश्किल से इतना ही पूछ पाया- क्या बात है मालती? वैसे मुझे आभास हो गया था कि हो न हो उसकी शादी तय हो गयी थी.
ऐसा ही उसने कहा भी- राजेश, पापा ने मेरी शादी तय कर दी है.
मैं सुन्न रह गया. कहता भी क्या. कुछ कहने के लिए हिम्मत होनी चाहिए. मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी. फिर भी किसी तरह बोला- चलो हम लोग भाग जाते हैं कहीं मंदिर में शादी कर लेंगे.
वह जोर जोर से रोने लगी- राजेश मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ. तुम मेरे दिल में हमेशा ही रहोगे. मगर मैं घर छोड़ कर तुम्हारे साथ नहीं भाग सकती. मैं तुमसे जितना प्यार करती हूँ, उतना ही अपने घर से भी प्यार करती हूँ. मैं भाग गयी तो मेरे माता पिता की इज्ज़त मिटटी में मिल जाएगी. पापा तो कहीं के नहीं रहेंगे.
मैं चाहता यही था कि मालती भागने से मन कर दे. मेरे में इतनी हिम्मत कहाँ थी कि अपने परिवार और पिता के खिलाफ घर छोड़ कर भागूं. शायद पिता जी को आज के लौंडों की हरकतों के बारे में मालूम था. इसीलिए एक दिन उन्होंने  मुझे बुलाया और कठोर लहजे में बोले- सुन, मैं तुम्हारी मजनूँगिरी जानता हूँ. इसलिए खबरदार कर रहा हूँ लड़की लेकर भागना नहीं. मैं तुझे पाताल से भी खोज निकालूँगा. उस लड़की का तो नहीं, लेकिन तेरा इतना बुरा हाल करूंगा कि इश्क लड़ाना ही भूल जायेगा।
पिताजी का जो लहजा था, वह इतना खूंखार था कि मेरी रूह फ़ना हो गयी थी. हम ठाकुरों के मर्द लोग सचमुच बड़े मर्द होते हैं. खून सवार हो गया तो कुछ भी कर सकते है. मैं इस मामले में थोडा कमज़ोर था। मालती के लिए खून नहीं बहा सकता था।
इसलिए जब मालती ने भागने से मन किया तो मैंने चैन की सांस ली. लेकिन बाहर से दिखाने के लिए बोला- मालती तुम्हारी शादी हो गयी तो मैं मर जाऊंगा. तुम्हारे बिना जी नहीं सकता.
मालती फिर फफक पड़ी. बोली- राजेश, मैं मर तो नहीं सकूंगी. पर तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे.
मालती की शादी हो गयी. उस दिन मैं बेहद उदास था. अकेले में रोया भी. शायद मालती को न पा सकने की कसक थी. मालती का क्या हाल रहा होगा पता नहीं. माँ और बहन गयी थीं शादी में मगर उन्होंने कुछ बताया नहीं. शायद मेरे सामने कुछ नहीं कहना चाहती थीं.
शादी के बाद मालती अपने मायके आयी. मैंने दूर से देखा. काफी खुश लग रही थी. मुझे ईर्ष्या हुई. मुझे छोड़ कर दूसरे मर्द के साथ कितनी खुश है. यह औरतें भी. किसी की नहीं होती. सिर्फ अपने मर्दों की ही होती हैं.
एक दिन मालती अकेली दिख गयी. मैं झट उसके  पास गया. वह मुझे देख कर मुस्कुराने लगी. बोली- कैसे हो? मैंने कहा- मालती, तुम्हारे बगैर कैसा हो सकता हूँ. लेकिन तुम बताओ तुम कैसी हो.
बोली- हाँ, मैं बहुत खुश हूँ. मेरे न पूछने के बावजूद बताने लगी- मेरे पति मुझे बहुत प्यार करते हैं. मुझे खूब घुमाते फिराते हैं। जो चाहती हूँ खिलाते और पहनाते  हैं. एक मिनट भी आँखों से ओझल होने नहीं देते.
मुझे ईर्ष्या हो रही थी. पर मैंने ऊपरी मन से कहा- चलो अच्छा है. तुम खुश रहो, मैं तो यही चाहता हूँ.
मालती ने पूछा- तुम शादी कब कर रहे हो.
मैं छुपा गया. बताया नहीं कि मेरी शादी भी तय हो गयी है. लड़की बेहद खूबसूरत थी. मालती से थोडा कम. लेकिन मेरे मन भा गयी थी. लेकिन मैं मालती को जताना चाहता था कि मैं उसके बिना सचमुच नहीं जी सकता. इसलिए चुप रहा.
मालती कुछ नहीं बोली. जल्द ही चली गयी.
मैं थोडा क्रोधित महसूस कर रहा था. साली, मेरे बिना कितनी खुश है. कहती थी तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे. अब उस दिल में अपने पति को रख लिया. मैं उस दिन दुनिया की तमाम औरतों के लिए हिकारत से भर गया।
मालती कुछ दिन अपने मायके रही. ऐसे में एक दो बार मिली भी. हमेशा हंसती मुस्कुराती मिली. उसकी हर मुस्कराहट के साथ मेरी ईर्ष्या बढ़ रही थी. धीरे धीरे ईर्ष्या  क्रोध में बदलती जा रही थी.
एक दिन मैंने रास्ते में मालती को देखा. अपने पति के साथ थी वह। काफी खुश नज़र आ रही थी.
मैं इंतकाम से भर गया. प्रेम की पींगे मेरे साथ मारी, मज़ा पति के साथ ले रही है. कितनी खुश है मेरे बिना भी. जबकि कहती थी कि मैं हमेशा उसके दिल में रहूँगा.
मैं अब उसकी खुशी नहीं देख सकता था.
मैंने उसके पति को ख़त लिखा. उसमे अपने और मालती के प्यार के बारे में सब लिख दिया. मालती के लिखे छोटे रुक्के भी साथ भेज दिए.
कुछ दिन बीत गए. मालती की कोई खोज खबर नहीं मिली. पता नहीं उसके पति को ख़त मिला या नहीं. मैं बेचैन हो रहा था कि मेरा वार खाली गया था.
एक दिन डाकिये एक चिट्ठी दे गया. मेरे नाम की चिट्ठी थी. मैं मालती की लिखावट साफ़ पहचान गया. मन शंकाओं से भर गया. वह नहीं आयी उसका ख़त कैसे आ गया.
मैंने ख़त खोला. लिखा था-
राजेश,
तुम हमेशा मेरे दिल में थे. मैं तुम्हे बेहद प्यार करती थी. मैं तुम्हारे अलावा किसी और से शादी नहीं करना चाहती थी. पर हम दोनों की शादी संभव नहीं थी. घर में सबका दबाव था. माँ ने जान दे देने की धमकी दी थी. मैं क्या करती. इसलिए मजबूरन शादी करनी पड़ी.
लेकिन, राजेश तुमने यह क्या कर दिया. तुमें मेरे पति को ख़त लिख कर मेरे उस प्यार को नंगा कर दिया जो मेरे दिल में बसा था. मुझे अपने पति की  उस मार का दर्द नहीं, जितना तुम्हारे इस व्यवहार का दर्द है. तुम ऐसे कैसे हो गए. तुमने अपने प्यार को रुसवां कर दिया.
राजेश, तुम शायद यह सोचते होगे कि मैं शादी कर बहुत खुश थी. तुमने मुझे हमेशा खुश देखा भी था और मैंने  तुम्हे बताया भी था कि मैं शादी के बाद अपने पति के साथ बहुत खुश हूँ. राजेश मैं यह बता कर कि मेरा पति आवारा और शराबी है. मुझे रोज मारता पीटता है और मेरे शरीर को जानवरों की तरह रौंदता है।  वह मुझ पर अनावश्यक शक करता है. मैं यह सब बता कर तुमको दुखी नहीं करना चाहती थी. क्यूंकि तुम मुझे बहुत प्यार करते थे. तुम मुझे हमेशा खुश देखना चाहते थे. मेरे वियोग में दुखी हो रहे तुमको मैं कैसे और दुखी करती.
लेकिन, राजेश तुमने यह क्या किया. तुमने मेरे पति को ख़त लिख कर हमारे प्यार के बारे में सब बताया ही, मेरे ख़त भी उन्हें भेज दिए. उन्होंने मुझसे मेरे हर ख़त पढ़वाए और वह मेरे द्वारा पढ़े हर शब्द के साथ मुझे लातों और घूंसों से मारते भी जाते थे.
राजेश, मुझे इस बात का दुःख नहीं कि पति ने मुझे मारा और खाने को नहीं दिया. लोगों के सामने बेइज्ज़त किया. मुझे मेरे किये की सजा तो मिलनी ही चाहिए. लेकिन तुमने मेरे प्यार को इस तरह बदनाम कैसे कर दिया कि मैं वैश्या मान ली गयी. तुम तो मुझे बेहद प्यार करते थे. मुझे ले कर भाग जाना चाहते थे. तुमने अब तक शादी भी नहीं की है. तब तुम यह सब कैसे कर सके.
मैं तुमसे बेहद प्यार करती थी. तुम हमेशा मेरे दिल में रहते थे. बेशक मैं अपने पति की वफादार थी. पर तुम्हारे ख़त ने मुझे बेवफा और चरित्रहीन बना दिया.
करने को तो मैं भी ऐसा ही कर सकती थी. पुलिस में रिपोर्ट कर तुम्हारे खिलाफ कार्यवाही करवा सकती थी. लेकिन मैं तुमसे सच्चा प्यार करती हूँ. लेकिन मैं अब बेइज्ज़त हो कर अपने पति के साथ नहीं रह सकती. इसलिए मैं आत्महत्या कर रहीं हूँ. मैं चाहती तो अपनी आत्महत्या के लिए तुम्हे दोषी ठहरा सकती थी. पर मैं ऐसा नहीं करूंगी। मैंने तुम्हे सच्चा प्यार किया था। कोई सच्चा प्यार करने वाला अपने प्यार का अहित कैसे कर सकता है। काश तुम भी यह समझ पाते। .
मैं तुम्हे नहीं अपने भाग्य को दोषी मानती हूँ. मैं चाहूंगी कि तुम इस पत्र को पढ़ने के बाद जला देना. क्यूंकि मैं नहीं चाहती कि मरने के बाद मेरी कोई चीज़ तुम्हारे पास रहे.
आखिर में मैं फिर तुमसे इतना कहना चाहूंगी कि राजेश तुम हमेशा मेरे दिल में ही थे. लेकिन अब नहीं.
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पत्र के आखिर में मालती ने अपना नाम नहीं लिखा था. शायद वह मेरे नाम के साथ अपना नाम नहीं जोड़ना चाहती थी.
मैं उसका ख़त पढ़ कर सन्न रह गया. मैंने यह क्या कर दिया था. अपने प्यार को अपने एक ख़त से मार दिया.
उस रात मैं ठीक से सो नहीं सका. मैं भयभीत था कि कहीं उसका पति मेरे खिलाफ कोई रिपोर्ट न कर दे.
दूसरे दिन मैंने मालती की आखिरी इच्छा का ख्याल करते हुए उसका ख़त जला दिया था।