शक्ति स्वरूपा
सिंह वाहिनी दुर्गा
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शक्ति स्वरूपा
सिंह वाहिनी दुर्गा
शीत रात्रि के बाद
सूर्योदय से पहले
पिता घर आते थे
द्वार खोलती थी माँ
ओस से भीगे पिता
और
गति से अंदर आता कोहरा
देख कर
सिहर जाता मैं
आज भी याद कर.
आकाश
तुम अनन्त हो
शायद इसलिए
कि मैं तुम्हें
उस विस्तार तक देख नहीं सकता
छू नहीं सकता
अशक्तता मेरी
अक्षमता मेरी
मैं समझता हूँ
तुम अनंत हो
आकाश!
कुछ लोग बीसीसीआई की टीम के कप्तान विराट कोहली को जूते पड़ने को लेकर दुखी नजर आ रहे हैं. उनके दुख पर कोई टिप्पणी न करते हुए बीसीसीआई के कप्तान पर मेरे विचार-
कोहली के साथ गड़बड़ यह हुई कि इसने एक साथ कई मोर्चे खोल लिए. पहले 'दिवाली कैसे मनाए के टिप्स दूँगा' की दर्प भरी घोषणा की. फिर अगली ही बार पाकिस्तान के सामने 10 विकेट से समर्पण कर दिया. मैच हारते ही फील्ड पर पाकिस्तानी खिलाडियों को गले लगा लिया, एक खिलाड़ी के फील्ड पर नमाज पढ़ने को इग्नोर करते हुए. फिर यह जानते हुए भी कि शमी के विरुद्ध ट्वीट पाकिस्तान प्रायोजित हैं सभी हिन्दुओं को साम्प्रदायिक बताते हुए secularism का झंडा फहरा दिया.
भाई तू भारत का खिलाड़ी है या missionary मुल्ला! नहीं जानता कि सामान्य भारतीय क्रिकेट और हॉकी में खेलते हुए भी पाकिस्तान को दुश्मन देश ही समझते हैं. तूने उन सबके दिलों को रौंदते हुए बुरी तरह से मैच हारा, फिर मुस्कुराते हुए दुश्मन देश के खिलाड़ियों को गले लगाया. करेले पर नीम चढ़ा कि नमाज की साम्प्रदायिकता को दरकिनार कर अपने देश के लोगों को ही सांप्रदायिक बता दिया. तुम अगर खेल में साम्प्रदायिकता पसंद नहीं करते तो नमाज कैसे पसंद कर सकते हो! तुम्हें वहीँ उसकी आलोचना करनी चाहिए थी.
विराट कोहली को यह समझना होगा कि बेशक उसकी बीवी अनुष्का शर्मा एक मुस्लिम सुपर स्टार के साथ काम कर बड़ी अभिनेत्री बनी, पर यह उसका धन्धा था. आम आदमी को इससे क्या सरोकार!
ऐसे में यह निस्तेज कप्तान गालियां खाएगा ही.
सेवा-काल का एक किस्सा
मेरे एक विभागीय निर्देशक ने मेरी चरित्र पंजिका में मेरा असेसमेंट करते
हुए मुझे गुड यानि अच्छा लिखा.
यहाँ बता दूं कि राज्य सेवा में प्रोनत्ति का एक ऐसा दौर आता है, जब आपका गुड या
सामान्य असेसमेंट किसी काम का नहीं होता. अगर आपको पदोन्नति लेनी है तो आउट
स्टैंडिंग प्रविष्टि लेनी होगी. परन्तु, अगर आप अपने विभागाध्यक्ष के अनुसार आउट
स्टैंडिंग काम नहीं करते तो वह आपको क्यों आउट स्टैंडिंग लिखेगा. मेरे
विभागाध्यक्ष ने भी यही किया.
मैं विभागाध्यक्ष के पास गया. मैंने कहा- सर आपने तो मेरा अपमान कर दिया.
मुझे अच्छा लिख दिया. सर मै या तो उत्कृष्ट हूँ या निकृष्ट नहीं बैड. आपको मेरा आकलन
अच्छा नहीं करना चाहिए था. बैड लिख देते.
वह बिंदास बोले- अरे भाई, तुम लोगों को सजा देने के लिए बैड लिखने की क्या
ज़रुरत है. अच्छा या सामान्य लिख दो. जन्म भर प्रमोशन नहीं होगा. बैड लिख देता तो
आप जवाब देते, मुझे आपके
जवाब का जवाब देना पड़ता. इतना झंझट कौन करता.
मुझे उनकी बेबाकी अच्छी लगी. मैंने कहा- इस साफगोई के लिए धन्यवाद सर.
वैसे अगर आप मुझे बैड लिखते तो मैं वादा करता हूँ कि मैं आपके बैड एंट्री करवा
देता. आपके तमाम कारनामे तो मेरे पास हैं.
जयहिन्द.
पत्नी डायबिटिक हैं. इसलिए उनका कोरोना पॉजिटिव होना खतरनाक हो सकता था. ऐसे समय में मुझे याद आ गई, सेवा काल के दौरान कानपूर में चंद्रशेखर आज़ाद कृषि विश्वविद्यालय की एक घटना. मैं उस समय लखनऊ से लोकल से जाया और आया करता था.
जैसी की यूनिवर्सिटी के कर्मचारी यूनियन और टीचिंग स्टाफ की आदत होती है,
यह लोग अपना सही गलत काम करवाने के लिए भीड़ इकठ्ठा कर धमकाने और डरा कर
काम करवाने की आदत रखते हैं. मेरे यूनिवर्सिटी में कार्यकाल के पहले हफ्ते में ही
वहां की कर्मचारी यूनियन ने मेरा घेराव किया कि हमारे बिल छः महीने से रोक रखे गए
है. मैंने कहा भी कि मुझे हफ्ते भर भी काम सम्हाले नहीं हुए हैं तो मैं कैसे छः
महीने से बिल रोके रख सकता हूँ. पर उन्हें तो शोर मचाना ही था. वह चिल्लाते रहे.
मैं ऊब गया तो मैंने कहा भैये, मैं ऐसे तो
काम नहीं कर सकता. अब तुम्हे मारना कूटना है तो
मार कूट लो. पर घायल कर मत छोड़ना घायल शेर खतरनाक होता है.
बहरहाल, एक बार में ट्रेन से कानपूर जा रहा था. घर
से फ़ोन आया कि तुम्हारी यूनिवर्सिटी से फ़ोन आया था कि साहब कहाँ हैं?
यहाँ (यूनिवर्सिटी) न आये. मारे जायेंगे.
घर में इस धमकी से लोग डरे हुए थे. मैंने कहा चिंता न करो.
फिर में यूनिवर्सिटी पहुंचा. कार से उतरते ही मैंने ललकारते हुए कहा,
"अब मैं आ गया हूँ. कौन मारना चाहता है, आओ मेरे
सामने."
आधे घंटे तक ऑफिस के बाहर खडा रहा. कोई मारने नहीं आया. फिर क्या करता.
कमरे में बैठ कर फाइल करने लगा.
यह किस्सा मुझे याद आया, जब हम लोग
कोरोना से जूझ रहे थे. मैंने इस किस्से को याद करते हुए,
खुद से कहा, मुझे जूझना है. कोरोना से डरना नहीं है. मैं
डरूंगा तो यह पत्थर कॉलेज के कर्मचारियों की तरह मुझे गड़प कर लेगा. मैंने कोरोना
को ललकारा. आज हम लोग कोरोना से जंग जीत चुके हैं.
आप भी डरिये नहीं. आप कोरोना से ज्यादा ताकतवर है. बस हम और आप डर जाते
हैं. जो डर गया, समझो वह मर गया.
पिछले कुछ महीनों से मैं और मेरी पत्नी अहमदाबाद में बेटी के घर में हैं.
कोरोना का कहर कुछ ऐसा टूटा है कि अप्रैल को लखनऊ वापस जाने का टिकट कैंसिल कराना
पडा.
१९/२० मार्च को मैंने और पत्नी ने कोरोना वैक्सीन की पहली डोज़ लगवा ली थी.
दूसरी डोज़ छः हफ्ते बाद लगनी थी. २१ अप्रैल को, दामाद को
कोरोना के लक्षण दिखाई देने लगे. उसने खुद को क्वारंटीन करते हुए,
कोरोना की जांच करवा ली. उसके साथ डॉक्टरों की सलाह पर हम लोगों ने भी
अपना अपना कोरोना टेस्ट करवा लिया. इस टेस्ट में बेटी और पत्नी भी पॉजिटिव आई.
मेरा टेस्ट नेगेटिव आया.
२४ अप्रैल से सबका ईलाज शुरू हो गया. पत्नी को बुखार था. उन्हें बेचैनी सी
हो रही थी. मैं नेगेटिव था. इसे देखते हुए, मुझे अलग
कमरे में रहना चाहिए था. पर पत्नी को इस दशा में छोड़ना मेरे लिए मुमकिन नहीं था.
यह उसके जीवन का सबसे तकलीफदेह रात हो सकती थी. मैंने सोचा अगर यह मर गई तो मुझे
ज़िन्दगी भर अफ़सोस रहेगा कि मैं उसकी आखिरी तकलीफ में साथ नहीं था. अगर मैं भी
पॉजिटिव हो गया तो कोई बात नहीं. या तो दोनों ठीक होंगे या दोनों मरेंगे. मैंने
निर्णय लिया कि मैं पत्नी को छोड़ कर अलग नहीं सोऊंगा. सचमुच २४/२५ की रात काफी
भयानक थी. पत्नी की परेशानी कम करने की कोशिश में रात जागते हुए ही गुजर गई. उनका
बुखार उतर गया. इसके बाद बिलकुल नहीं चढा. लेकिन, मैं तब तक
कोरोना पॉजिटिव हो चुका था. मुझे १०१ तक बुखार पहुंचा.
उस समय मैंने पत्नी से कहा, पॉजिटिव
रहो. बिलकुल यह मत सोचो कि इस बीमारी को हम तुम नहीं हरा सकते. हमें कोरोना कुछ
नहीं कर सकता. निराश बिलकुल न होना. हम सभी लोग, डॉक्टर की
सलाह के अनुसार घर पर रह कर ही, दवा लेते
रहे. एक हफ्ते में हम लोगों की सारी तकलीफ
दूर हो गयी. अहमदाबाद में ऑनलाइन डॉक्टर की सलाह ने हमें घर में रह कर ईलाज करने
में मदद की. आज हम सभी पूर्णतया स्वस्थ है, पर बेहद
कमजोरी है. अलबत्ता, मैंने अपनी दिनचर्या में कोई फर्क नहीं रखा.
जैसा कोरोना से पहले था, वैसे ही रहा.
मैं उपदेश देने की स्थिति में नहीं हूँ. लेकिन,
अनुभव से यह कह सकता हूँ कि कोरोना के बावजूद खुद में निराशा नहीं पैदा
होने दें. कोरोना वायरस ऐसा कोई लाइलाज नहीं है. ८५ प्रतिशत लोग निर्धारित दवा के
सहारे ही ठीक हो जाते है. हाँ, अपने
पॉजिटिव होने पर लापरवाही न बरते. न ही ऑक्सीजन सिलिंडर या हॉस्पिटल के चक्कर में
पड़ें. जितना बढ़िया देख रेख घर में मिल सकती है, उतनी कहीं
नहीं हो सकती.
सरकार को कोसने से कोई फायदा नहीं. क्या हम लोगों को मालूम था कि घर के हम चार बालिग़ सदस्य कोरोना पॉजिटिव हो जायेंगे? जब हम पांच लोगों को नहीं मालूम था, तो एक अकेली सरकार या प्रधान मंत्री कैसे करोड़ों लोगों की जन्मपत्री बांच सकती है! हमने ऑक्सीजन या हॉस्पिटल के लिए भी कोई कोशिश नहीं की. क्योंकि, उसकी ज़रुरत तभी होती, जब हम दूसरी या तीसरी स्टेज पर पहुँच जाते. हम लोगों ने तो पहली स्टेज में ही ठीक होने का निर्णय कर लिया था.
तुमने कल रात
बीते साल को विदाई दी होगी
नए साल का स्वागत किया होगा
फिर झूमते हुए घर वापस आ कर
तान कर सो गए होंगे
देर तक
पर मैं देख रहा हूँ
सामने बन रही बिल्डिंग को
कुछ मज़दूर और मिस्त्री
काम कर रहे हैं
किसी का आशियाना पूरा करना है
अगले साल
किसी साल की विदाई और नए के आगमन के दिन
जश्न मना कर वापस लौटे लोग
आराम से सोयेंगे
दूसरे दिन तक
लेकिन, अगले साल भी
यह लोग
किसी का नया आशियाना
बना रहे होंगे इसी प्रकार ।