लॉकडाउन तोड़ कर कोरोना वायरस फैलाने के लिए बेचैन और मस्जिद में नमाज़ पढ़ने
के लिए आमादा लोगों के पुलिस पर हमलों के बाद, अब उत्तर
प्रदेश पुलिस थोड़ी सक्रिय नज़र आती है. लेकिन, अभी कुछ कमी
लगती है. मुझे याद आ जाती है सत्तर के दशक तक सक्रिय पीएसी की. मुल्लाओं के भूत
भागते थे इस कांस्टेबुलरी से. इस फाॅर्स की खाकी वर्दी को देखते ही मुल्ला,
ठुल्ला और कठमुल्ला की लुंगी, पेंट,
जांघिया, आदि सब गीली हो जाती थी. छात्र आन्दोलन के
दौरान प्रोविंशियल आर्म्स कांस्टेबुलरी का ख़ूब उपयोग किया जाता था. छात्र इन्हें
मामा कह कर चिढाते थे. ऐसे में जब भांजे इनके हत्थे चढ़ जाते थे,
मामा इनकी मामा की तरह नहीं धुनकी की तरह धुनाई करते थे.
अब फिर आता हूँ आज के परिदृश्य पर. देख रहा हूँ भाई लोग लॉक डाउन का पालन
कराने आई पुलिस पर बेहिचक, बेधड़क, बेरहम हमला
करते हैं. पुलिस अधिकारीं को खूनम खून कर देते हैं. दिल्ली में तो इन लोगों के
कारण कितने पुलिस अधिकार चोटिल हुए, कोमा तक
पहुँच गए. ऐसे में सोचता हूँ अगर उत्तर प्रदेश की पुलिस आर्म्स कांस्टेबुलरी यानी
पीएसी होती तो क्या यह पत्थरबाज़ सडकों पर भागते हुए पुलिस वैन में बैठते?
भूल जाइए. इन पिल्लों के बापों ने बताया नहीं होगा. मैं बताता हूँ. एक
पत्थरबाज़ हमलावर गुंडे को चार पांच पुलिस कर्मी घेर लेते थे. इसके बाद लाठियों से
उसका कीर्तन हो जाता था. जब यह कीर्तन ख़त्म होता तो वह उन्मादी जमीन सूंघ चुका
होता था. उसे पीएसी के जवान, मरे हुए
कुत्ते की तरह, अपनी लाठी में टांग कर पुलिस गाडी में बिदा
कर देते थे. पीएसी का नाम सुनते ही मिया भाई मिआऊ बोलने लगते थे. आज मैं अपने
पैरों पर भागते इन धार्मिक गुंडों को देखता हूँ तो पीएसी बहुत याद आती है.
नोट- मेरे सगे मामा पीएसी में थे. वह अपनी ड्यूटी के बारे में बताते थे तो
उनकी दुर्दशा पर हम बच्चों की आँखों में आँसू आ जाते थे. बेचारे पुलिस वाले भूखे
रह कर कठिन ड्यूटी करते हैं. यह कमीने पत्थर बरसाते हैं.
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