शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

2011 को

मैंने 2011 को
अपनी यादों के फ्रेम में
सँजो कर रख लिया है।
क्यूंकि
इस पूरे साल
हर दिन
मुझे याद आता रहा
कि,
एक और एक मिलकर दो नहीं होते
ग्यारह होते हैं।
इसीलिए जब मैं
एक प्रयास में असफल हुआ
तो मैंने अगला प्रयास
ग्यारह गुना जोश से किया
और सफल हुआ।
यही कारण है कि
अगले साल में मेरा
एक अंक बढ़ गया है।

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

ऋतु माँ

उस दिन आँख खुली
बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी
बारिश की बूंदे
मेरे घर की खिड़कियाँ पीट रही थीं
मानो कह रही हों-
उठो मेरा स्वागत करो.
मैं उठा,
खिड़की खोलने की हिम्मत नहीं हुई
तेज़ बूंदे अन्दर आकर
घर को भिगो सकती थीं.
इसलिए बालकॉनी पर आ गया
बारिश के धुंधलके के बीच
कुछ देखने का प्रयास करने लगा
तभी बारिश के शोर को चीरती हुई
बच्चे के रोने की आवाज़ कानों में पड़ी
मैंने ध्यान से दखा
सामने के फूटपाथ  पर
एक औरत बैठी थी
उसकी गोद में एक बच्चा था
चीथड़ों में लिपटा हुआ
औरत खुद को नंगा कर
किसी तरह बचा रही थी अपने लाल को
और बच्चा था कि
हाथ पांव फेंकता हुआ
आँचल से बाहर आ जाता
मानों बारिश का स्वागत कर रहा हो
बूंदों को अपनी नन्हे सीने में समेट लेना चाहता हो
कुछ बूंदे चहरे पर पड़ती
तो बूंदों के आघात और ठण्ड के आभास से
बच्चा थोडा सहम जाता और फिर खेलने लगता
बारिश बीती सर्दी आई
औरत कि मुसीबत कुछ ज्यादा बढ़ गयी थी
वह खुद को ढके या लाल को
कहीं से एक फटा कम्बल मिल गया था शायद
वह साबुत हिस्सा बच्चे को उढ़ा देती
मैंने देखा रात में कई बार
वह फटे कम्बल में ठिठुरती रहती थी
मगर बच्चे के लिए
अपनी छातियों की गरमी कम नहीं करती थी.
सर्दी बीती
औरत की मुसीबत थोड़ी कम हुई
पतझड़ में पत्ते झरने लगे
नन्हे बच्चे पर गिरने  लगे
बच्चा ऊपर से गिरते पीले पत्तों को निहारता
पुलकित होकर पकड़ने की कोशिश करता
कोई पत्ता चहरे  पर आ गिरता
वह चेहरा दांये बांये कर  गिराने की कोशिश करता
गिरते पत्तों को हाथों से पकड़ कर खेलना चाहता
औरत अपने नन्हे  खिलाड़ी को
कौतुक भरे नैनों से निहारती
पेड़ हरे हो  गए
बच्चा भी थोडा बड़ा हो गया था
मगर गरमी असहनीय थी
औरत पेड़ की छाया में एक पालना बना कर
बच्चे के सर पर मैले कपडे की छाया कर
काम पर चली जाती
थोड़ी थोड़ी देर में उसे देख भी जाती
जगा होता तो थपकती, कुछ खिलाती
गर्मियों की रातों में
मैंने बच्चे की रोने की आवाज़ सुनी है
गरमी से बिलखते बच्चे को
टूटे पंखे से हवा करती औरत को देखा है
शायद अपने लाल को सुलाने के लिए
वह रात भर पंखा झलती रहती होगी
क्यूंकि,
कुछ समय बाद बच्चा चुप हो जाता था
सर्दी, गरमी, पतझड़ और बरसात में
मैंने बच्चे के लिए
उस औरत के नए नए रूप देखे हैं
इसलिए मैंने उसे नाम दिया है-
ऋतू माँ.

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

किताब

कुछ लोग
जीवन को किताब समझते हैं,
मैं जीवन को किताब नहीं समझता
क्यूंकि,
किताब दूसरे लोग लिखते हैं,
दूसरे लोग पढ़ते हैं.
फेल या पास होते हैं.
किताब खुद को
खुद नहीं पढ़ती.
मैं खुद को पढ़ता हूँ
कहाँ क्या रह गया
क्या गलत या क्या सही था
समझने की कोशिश करता हूँ.
कोशिश ही नहीं करता
उसे सुधारता भी हूँ
और खुद भी सुधरता हूँ
किताब ऐसा नहीं कर पाती
वह जैसी लिखी गयी है या रखी गयी है,
रहती है.
मैं अपनी कोशिशों से निखर आता हूँ
इसलिए मैं खुद को किताब नहीं पाता हूँ.

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

समय, संदेश और पाँव

क्या समय किसी को छोड़ता है?
बेशक
समय सबको पीछे छोड़ता हुआ
बहुत आगे और आगे निकल जाता है.
हम लाख चाहें उसे पकड़ना,
उसके साथ साथ कदमताल मिलाना,
केवल उसका पीछा ही करते रह जाते हैं
उसके आँखों से ओझल हो जाने तक.
लेकिन समय का हर साथ
हमें एक सबक सिखा जाता है.
उसी ख़ास सबक के कारण
हम याद रखते उस समय को
जब हमें यह सबक मिला था.
         (२)
सुबह सुबह
पक्षियों का चहचहाना
ठंडी ठंडी हवा का बहना
पूरब से उषा की लालिमा का सर उठाना
संकेत है जीवन का
कि उठो,
चल पड़ो कर्तव्य पथ पर
पूरे करो उस दिन के अपने कर्तव्य
प्राप्त कर लो अपना लक्ष्य
इससे पहले कि
शाम हो जाए.
            (३)
जब हम
सड़क पर चलते हैं
हमारे दोनों पैर
ज़मीन पर होते हैं
हमें वास्तविकता का बोध कराते हैं
ताकि
सावधान रहे चलते हुए.
इसीलिए
जब हम गिरते हैं
तब लोग हंसते हैं हम पर
उस समय हमारे पाँव
हवा में होते हैं.

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

पत्थर

जब कोई पत्थर
हवा में उछलता हैं न !
मैं समझ जाता हूँ कि
इसे आम आदमी ने उछाला है.
इसलिए नहीं कि
आम आदमी ही पत्थर चलाते हैं
आम आदमी 
पत्थर क्या चलाएगा
इतनी हिम्मत नहीं।
पत्थर क्या उछालेगा
वह  तो ढंग से मुद्दे उछालना तक नहीं जानता
वह सब कुछ सहता रहता है बेआवाज़
क्यूंकि उसके पास जुबां नहीं है.
उनके कानों तक पहुँच जाये
इतना चीख कर बोलने की ताक़त नहीं
अपनी बात समझाने के लिए
मुहावरेदार भाषा
और मज़बूत शब्द नहीं.
मैं तो बस पत्थर देखता हूँ
और अंदाजा लगाता हूँ
क्यूंकि
इतना कमज़ोर पत्थर
कोई आम आदमी ही उछाल सकता है,
जो उसके सर पर ही वापस गिरे
और खूनम खून कर दे उसे.

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

नया साल पुराना साल

              नया साल
मैंने साल के
हर दिन को गिना है
उन्हें हफ़्तों और महीनों में पिरोया है.
फिर अनुभवों की तिजोरी में बंद कर
बही खाता बनाया है.
इस बही खाते में दर्ज है
हर सेकंड हर मिनट का हिसाब
कि पिछले साल मैंने क्या खोया और क्या पाया.
खोने ने मायूसी दी
और पाने ने ख़ुशी .
आज जब
बही खाता पलट रहा हूँ,
मायूसी से खुशी को घटा रहा हूँ
तो पाता हूँ कि
मुझे मायूसी का लाभ हुआ है
और खुशियों का घाटा
इसीलिए
गए साल की ओर पीठ पलटा कर मैं
नए साल को हैप्पी न्यू इयर कर रहा हूँ.

            पुराना साल
मैं व्यस्त था
नए साल का स्वागत करने
दोस्तों के साथ खुशियाँ मनाने की तैयारी में .
कुछ ही मिनट शेष थे
नए साल के आने में कि
पीछे से कोई फुसफुसाया- सुनो .
मैंने पलट कर देखा
होंठों पर फीकी मुस्कान लिए
उपेक्षित सा खड़ा था पुराना साल.
बोला- याद है
तीन सौ पैंसठ दिन पहले
तुमने इसी तरह
मेरा स्वागत किया था
अपने दोस्तों के साथ.
पर आज मेरी तरफ
तुम्हारी पीठ है.
मैंने कहा- जो बीत गया
जो साथ छोड़ रहा हो
उसे याद करना कैसा
यह तो रीत है.
फिर तुमसे मिला भी क्या?
पुराना साल बोला-
क्या तुम्हे याद है
पिछले साल आज के ही दिन
तुम्हारे साथ खुशियाँ मनाने वाले
कितने दोस्त आज साथ हैं?
कुछ साथ छोड़ गए,
तुमसे तुम्हारा कुछ न कुछ छीन कर.
मगर मैंने तुम्हे
कुछ दिया ज़रूर है
तुम्हे दुःख दिए तो खुशियाँ भी दी
तुम खुशियों में हँसे और दुःख में रोये
लेकिन, हर दुःख के साथ तुमने कुछ सीखा
आज तुम उस सीख के साथ
इस नए साल में कुछ बेहतर कर सकते हो
यह मेरी ही तो देन है
वैसे तुम कैसे कह रहे हो कि
मैं तुम्हारा साथ छोड़ रहा हूँ.
मुझसे मिले खट्टे मीठे अनुभव सदा तुम्हारे साथ हैं,
जो तुम्हे मेरी याद दिलाते रहेंगे.
इतना कह कर साल मुड़ कर चल दिया
जाते हुए साल की पीठ देखता मैं
उसे प्रणाम कर रहा था.

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

त्रिकट

हमारे शरीर में
दो आँखे होती हैं,
जो देखती हैं.
दो कान होते हैं,
जो सुनते हैं.
नाक के दो छेद होते हैं,
जो सूंघते हैं.
दो हाथ होते हैं,
जो काम करते हैं.
दो पैर होते हैं,
जो शरीर को इधर उधर ले जाते हैं.
सब पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं,
शरीर को चौकस रखने के लिए.
लेकिन मुंह
जो केवल एक होता है
वह केवल खाना चबाता नहीं.
वह आँखों देखी को नकारता है.
कान के सुने को अनसुना कर देता है.
हाथ पैरों का किया धरा बर्बाद कर देता है.
पेट अकेला होता है,
जुबान उसकी सहेली होती है.
जुबान स्वाद और लालच पैदा करती है
पेट ज़रुरत से ज्यादा स्वीकार कर
शरीर को बीमार और नकारा बना देते हैं.
और मुंह इसमें सहयोग करता ही है.
हे भगवान् !
यह तीन त्रिकट अकेले अंग
शरीर का कैसा विनाश करते हैं.
मानव को बना देते  हैं वासनाओं का दास.

मेरे पाँच हाइकु

   (१)
पपीहा बोला
विरह भरे नैन
पी कहाँ ...कहाँ.

  (२)
शंकित मन 
गरज़ता बादल
बिजली गिरी .

  (३)
घोर अँधेरा
निराश मन मांगे
आशा- किरण.

  (४)
पीड़ित मन
गरमी में बारिश
थोड़ी ठंडक.

  (५)
रंगीन फूल
हंसती युवतियां
भौरे यहाँ भी.

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

बंदी

क्या आप जानते हो
कि क़ैद क्या होती है?
यही न कि
ऊंची ऊंची दीवारें
मोटी सलाखों के पीछे बना ठंडी सीमेंट का बिस्तर
और ओढ़ने को फटे पुराने कंबल या चादर?
पूरी तरह से ड्यूटी पर मुस्तैद मोटे तगड़े बंदी रक्षक
बात बेबात उनकी गलियाँ और बेंतों की मार?
ठंडा उबकाई पैदा करने वाला भोजन और जली रोटियाँ?
मेरी क़ैद इससे अलग भावनाओं की क़ैद है
जहां शरीर की कोमल दीवारें हैं,
साँसों के बंदी रक्षक है
रिश्ते हैं नाते हैं,
अपने हैं पराए हैं
उनके स्वार्थ हैं और निःस्वार्थ भी।
वह मुझे चाहते हैं और नहीं भी
वह मेरा जो कुछ भी है पाना चाहते हैं
वह मुझसे लड़ते झगड़ते और कोसते भी हैं।
इसके बावजूद मैं
एक कैदी होते हुए भी
खुश हूँ।
मोह के बंदी गृह का बंदी हूँ मैं।

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

बच्चा

बच्चा जब रोता है
चुपके चुपके सुबकता सा
सबसे छुपता छुपाता
क्यूंकि
माँ देख लेगी
या कोई और देख कर माँ को बताएगा
तो माँ डांटेगी-
क्यूँ रोता है
न मिलने वाली हर चीज़ के लिए
जिद्द करते हुए ?
बच्चा
फिर भी रोता रहता है
जानते हुए भी,  कि,
उसे वह चीज़ नहीं मिल सकती
ऐसे में उसे
चीज़ न मिल पाने का दुःख रुलाता है .
बड़े हो जाने के बावजूद
आज भी
वह बच्चा रोता है
चुपचाप सुबकता हुआ
इसलिए नहीं, कि,
उसे
मनचाही चीज़ नहीं मिल सकती
बल्कि इसलिए
कि वह छुपाना चाहता है
अपने दुःख को
जिसे वह सब को दिखा नहीं सकता
इसी व्यक्त न कर पाने की  मजबूरी का दुःख
उसे रुलाता है
एक बच्चे की तरह.