रविवार, 27 दिसंबर 2015

मृतक

मैं मृत हूँ
मृतक को दर्द नहीं होता
शायद इसीलिए मुझे
ज़िन्दों के दर्द का
एहसास नहीं होता।  

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

कविता

कभी
एकांत में मिलो
मैं तुम्हे छूना नहीं चाहूँगा
तुम्हे देखूँगा
महसूस करूंगा
जो एहसास
देखने और महसूस करने में है
वह छूने में कहा

दीपक और उजाला

छोड़ दो उस जगह को
जहाँ उजाला हो
उठाओ एक दीपक
चल दो
जहाँ अँधेरा हो।

२.
बाती की ज़रुरत
अँधेरा
जगमगाने के लिए

३.
ढेरों
बड़े दीपों के बीच
एक छोटा दीपक
उदास- सा
बड़े दीपों की रोशनी
मद्धम कर रही थी
नन्हे दीप की रोशनी
शाम बढ़ी
लोग आये
दीप उठा कर चले गए
अकेला रह गया नन्हा दीप
इधर उधर देखा
एक नन्हा बच्चा
चला आ रहा था उसके पास
नन्हे दीपक को
नन्हीं हथेलियों में उठाया
ले गया
उस अँधेरे कोने में
जहाँ बड़े नहीं पहुंचे थे
दीपक मुस्कुरा रहा था।

४.
बाती जल कर
काली रह जाती है
रोशनी फैलाने के बाद
तेल उड़ जाता है
हवा में
बाती की मदद करने के बाद
रह जाती है दियाली
अपने में समेटे
जले तेल और बाती की
कुरूपता ।

५.
जला तेल
और रुई की बाती
लौ को घमंड क्यों
अपनी रोशनी पर !

राजेंद्र प्रसाद कांडपाल

दस क्षणिकाएं

माँ  की  आँखों में
आंसू नहीं
सूखे की आहट।



होंठों पर
मुस्कराहट आती नहीं
बेटी बिदा कर दी है।


जिस बेटे को
पीठ पर बैठने के लिए
अच्छी लगती थी
पिता की झुकी कमर
आज अच्छी नहीं लगती
बूढी कमर।


उन्हें भीख भी नहीं मिलती
इतनी फैला ली हथेली
लोगों ने पढ़ ली
हाथों की सभी रेखाएं
अभागा है यह।


भूकंप आया
पक्का मकान गिर गया
झोपड़ी नहीं गिरी
फिर भी
गरीब को दुःख
नन्हा दब गया था।


जीभ झूठ बोलती है
तो होंठ क्या करे
दांत क्यों नहीं काटता
जीभ को!


जोड़ घटाने में कमज़ोर है शायद
कि, फिर फिर गलती करता है
बहुत सोचने वाला
दिमाग।


पैर की ठोकरों ने
पत्थर बनाया
फिर भी लुढ़कता रहता
चुपचाप
होता नहीं खतरनाक
जब तक
कोई हाथ फेंकता नहीं।


जीभ ने क्या कहा
कान को सुनाई नहीं दिया
हाथ जो कर रहा था सब।

१०
बाल
काले होते हैं
सफ़ेद होते हैं
बढ़ते और कटते हैं
इसमे सर क्या करे !
मकान मालिक जो है।


शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

सड़क

सड़क अगर सोचती
कि, मैं
रोजाना ही
हजारों-लाखों राहगीरों को
इधर से उधर
उधर से इधर
लाती ले जाती हूँ।
अव्वल तो थक जाती
आदमी के बोझ से
दब जाती
या फिर
राहगीर चुनती
मैं इसे नहीं, उसे ले जाऊँगी
मगर सड़क
ऐसा नहीं सोचती
इसीलिए उसे
रोजाना रौंदने वाले
प्राणी
बेजान सड़क कहते हैं। 

रविवार, 19 अप्रैल 2015

चार क्षणिकाएँ

आसमान
हवा
पानी
और ज़मीन
सब मेरे
फिर भी 
मैं भिखारी
फिर कैसा दाता !
२.
ऎसी घमासान
तू तू मैं मैं
कोई समूह नहीं
सिर्फ मैं
कहीं नहीं 'आप' !

३.
दिन
निकलता है
अँधेरे की गोद से
या अँधेरे को
उगलता है?
४.
बच्चा रोता नहीं
बहल जाता है
झुनझुने से
रोते बड़े हैं
बहलते नहीं
झुनझुने से।








शुक्रवार, 27 मार्च 2015

हैरान सूरज

सूरज हैरान
क्रोध से तपता
जलती धरती
सब बेचैन
वृक्ष मुरझाये से
पशु-पक्षी दुबके हुए
सडकों पर सन्नाटा
तारकोल आँसू बहाता
पर, सबसे निरपेक्ष
एक कृशकाय
सड़क को नापता
पैरों में टायर की टूटी चप्पल
कपडे की डोर से बाँधी हुई
ऊपर समेटी हुई लुंगी 
छिदही बनियाइन से
बह रहा था
पसीने का झरना
आँखों में आते पसीने की बूँद को
एक हाथ से झटक देता
ठेला खड़ा कर
सर से उतारता है
तौलिया
मुंह और हाथ पैर का पसीना पोंछ
ऊपर देखता है
सूरज को
हाथ जोड़ता है -
हे भगवन !
सूरज हैरान है !!

गुरुवार, 22 जनवरी 2015

घरों में

सुबह
जब लोग सोये होते हैं
घर
तब मकान होते हैं। 
२.
रोशनदान
खिड़कियां
और दरवाज़े
सब खुले
सिर्फ
दिल न खुले।
३.
कीमती  सामान
और बड़े बुजुर्ग
सब  कीमती
इसीलिए
सब कोठरी में।
४.
घर में
माँ की इज़्ज़त
बहू इतनी करती है
किसी के आने पर
झाड़ू छीन लेती है। 
५.
घरों में अब
दादी- दादा के किस्से नहीं
किस्सों में दादी-दादा
सुने सुनाये जाते हैं। 

बुधवार, 7 जनवरी 2015

नया साल- पांच विचार


छुटकन ने
नए मकान में
मनाया नया साल
माँ बापू को
मिल गया था
जहाँ काम। 
२-
दिसम्बर में
क्रिसमस होता है
न्यू इयर होता है
खूब ठण्ड पड़ती है
अमीर सेलिब्रेट करते हैं
और गरीब भी
क्योंकि,
मौत के बाद
गरीबों में भी होता है
मृत्यु भोज ।  
३-
सूर्य किरण
मुन्ने ने खोली आँख

नव-वर्ष में

४- 
अतीत की धुंध की
लेकर एक चुस्की
विदा हो गया
साल।
५-
कैलेंडर  पर
जमी थी
अतीत की धूल
साफ़ कर दी
धूल और दीवार भी
नए कैलेंडर के लिए।


लौट आओ माँ

घर की दहलीज़ पर
दीप जला कर
रखती थी माँ
ताकि,
वापस आ जाएँ
भटके हुए पिताजी
लेकिन,
न पिताजी घर वापस आये
न माँ दीप जलाना भूली
एक दिन
माँ भी चली गयी
शायद वहीँ
जहाँ पिता गए होंगे
लेकिन,
घर की दहलीज़ पर
आज भी दीप जलता है 
मैं जलाती हूँ
ताकि, अब लौट आओ माँ !

अकड़ के


हर्ज़ क्या है
खड़े होने में
अकड़ के !
तेरे बाप की नहीं
सड़क
मेरे बाप की है
हनक
कचरा क्यों न फैलाऊँ
गली में, कूचे में
अकड़ के।
खाक तुम इंसान हो
अहमक
अपने से परेशान हो
बेझिझक
दबे रहो, न सर उठाओ

हम आये हैं
अकड़ के।
अपना- पराया कौन
मत बहक
आएगा कौन जायेगा कौन
मत समझ
जीता वही जो रहता है
मुर्ग सा घूमता हुआ 
अकड़ के।