शुक्रवार, 4 मई 2012

बेचारी भिखारन

मैं बहुत दयालु हूँ 
मेरी दयाद्रता के बारे में जानना हो तो 
मेरे मोहल्लें में आने वाली 
एक भिखारन से पूछो 
वह बताएगी कि मैं कितना दयालु हूँ 
मैं उसे अपने घर के दरवाज़े पर बुलाता हूँ
निकट बिठालता  हूँ  
बेशक उस समय मेरी पत्नी घर नहीं होती 
इन औरतों का क्या कहिये 
बेहद शक्की होती हैं 
भिखारिन को ही क्या कह दें, क्या न कह दें 
मैं भिखारिन को कुछ खाने को देता हूँ 
पानी पिलाता हूँ 
कुछ न कुछ ले जाने के लिए भी देता हूँ 
कभी नकदी भी 
मैं उसका पैनी दृष्टि से निरीक्षण करता हूँ 
मुझे उसकी हालत देखी नहीं जाती 
पूरे वस्त्र भी नहीं है उसके पास 
जब वह ज़मीन पर रखा खाना 
झुक कर उठा रही होती है 
तब उसकी छातिया साफ़ नज़र आती हैं 
मैं सोचता हूँ 
कितनी पुष्ट छातियाँ  हैं 
इन पर तो किसी की भी बुरी नज़र पड़ सकती है 
मैं उससे कहता भी हूँ-
बदन ढाक कर रखा करो 
ज़माना सही नहीं है 
वह सहम जाती, खुद में ही  सिमट जाती 
अपनी छातियों को छुपाने के लिए 
मैं खुश होता 
कोई तो है उस गरीब भिखारन का 
जो उसकी लाज के बारे में सोचता है
मैं उसकी पीठ पर हाथ रख कर हलके से सहलाता हूँ
वह सहमी सी जाती है
मैं जानता  हूँ  कि  फिर भी वह कल आएगी 
उसे  इस प्रकार सांत्वना देते हुए मुझे हार्दिक संतोष होता है  
क्यूँ, दयालू हूँ न मैं !!!

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