मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

ऋतु माँ

उस दिन आँख खुली
बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी
बारिश की बूंदे
मेरे घर की खिड़कियाँ पीट रही थीं
मानो कह रही हों-
उठो मेरा स्वागत करो.
मैं उठा,
खिड़की खोलने की हिम्मत नहीं हुई
तेज़ बूंदे अन्दर आकर
घर को भिगो सकती थीं.
इसलिए बालकॉनी पर आ गया
बारिश के धुंधलके के बीच
कुछ देखने का प्रयास करने लगा
तभी बारिश के शोर को चीरती हुई
बच्चे के रोने की आवाज़ कानों में पड़ी
मैंने ध्यान से दखा
सामने के फूटपाथ  पर
एक औरत बैठी थी
उसकी गोद में एक बच्चा था
चीथड़ों में लिपटा हुआ
औरत खुद को नंगा कर
किसी तरह बचा रही थी अपने लाल को
और बच्चा था कि
हाथ पांव फेंकता हुआ
आँचल से बाहर आ जाता
मानों बारिश का स्वागत कर रहा हो
बूंदों को अपनी नन्हे सीने में समेट लेना चाहता हो
कुछ बूंदे चहरे पर पड़ती
तो बूंदों के आघात और ठण्ड के आभास से
बच्चा थोडा सहम जाता और फिर खेलने लगता
बारिश बीती सर्दी आई
औरत कि मुसीबत कुछ ज्यादा बढ़ गयी थी
वह खुद को ढके या लाल को
कहीं से एक फटा कम्बल मिल गया था शायद
वह साबुत हिस्सा बच्चे को उढ़ा देती
मैंने देखा रात में कई बार
वह फटे कम्बल में ठिठुरती रहती थी
मगर बच्चे के लिए
अपनी छातियों की गरमी कम नहीं करती थी.
सर्दी बीती
औरत की मुसीबत थोड़ी कम हुई
पतझड़ में पत्ते झरने लगे
नन्हे बच्चे पर गिरने  लगे
बच्चा ऊपर से गिरते पीले पत्तों को निहारता
पुलकित होकर पकड़ने की कोशिश करता
कोई पत्ता चहरे  पर आ गिरता
वह चेहरा दांये बांये कर  गिराने की कोशिश करता
गिरते पत्तों को हाथों से पकड़ कर खेलना चाहता
औरत अपने नन्हे  खिलाड़ी को
कौतुक भरे नैनों से निहारती
पेड़ हरे हो  गए
बच्चा भी थोडा बड़ा हो गया था
मगर गरमी असहनीय थी
औरत पेड़ की छाया में एक पालना बना कर
बच्चे के सर पर मैले कपडे की छाया कर
काम पर चली जाती
थोड़ी थोड़ी देर में उसे देख भी जाती
जगा होता तो थपकती, कुछ खिलाती
गर्मियों की रातों में
मैंने बच्चे की रोने की आवाज़ सुनी है
गरमी से बिलखते बच्चे को
टूटे पंखे से हवा करती औरत को देखा है
शायद अपने लाल को सुलाने के लिए
वह रात भर पंखा झलती रहती होगी
क्यूंकि,
कुछ समय बाद बच्चा चुप हो जाता था
सर्दी, गरमी, पतझड़ और बरसात में
मैंने बच्चे के लिए
उस औरत के नए नए रूप देखे हैं
इसलिए मैंने उसे नाम दिया है-
ऋतू माँ.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें