रविवार, 21 जुलाई 2019

मॉं-बाप


जब, मॉं-बाप नहीं रहते

तब समझ पाता है आदमी ।

पिता की जिस लाठी से डरता था,

पिता को बुरा मानता था

आज समझ में आया

कि डराने वाली यही लाठी

सहारा बनती थी

गिरने पर,

लड़खड़ाने पर ।

बीवी के जिस आकर्षण में

मॉं के आँचल से दूर हो गया,

उसी से मॉं

चेहरे पर ठंडी हवा मारती थी,

पसीना पोंछ कर सहलाती थी,

छॉंव में चैन से सोता था ।

आज मॉं-बाप नहीं,

बच्चे है।

और मैं खुद हो गया हूँ-

मॉं-बाप ।

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