गुरुवार, 5 जुलाई 2012

ईमानदारी की पोटली

भागता आ रहा एक आदमी
बदहवास, निराश और भयभीत
कुछ लोग पीछे भाग रहे हैं उसके
कृशकाय शरीर वाला वह व्यक्ति
भाग नहीं पाता, गिर पड़ता है
भीड़ उसे घेर लेती है ।
वह गिड़गिड़ाता है-
छोड़ दो मुझे
जीने दो
क्या बिगाड़ लूँगा मैं तुम सबका
अकेले !
लोग चीखने लगते हैं-
मारो नहीं छीन लो इससे पोटली ।
कृशकाया थरथराने लगती है-
नहीं, मुझसे इसे मत छीनो
मैंने इसे परिश्रम से
तिनका तिनका करके बटोरा है
बरसों सँजो कर रखा है
यही तो मेरी पूंजी है ।
उस कमजोर पड़ चुकी काया के
बगल से दबी हुई थी
ईमानदारी की पोटली,
जो थी उसकी प्रतिष्ठा, मान सम्मान
और संपत्ति ।
कैसे यूं ले जाने देता उन्हे ।
भीड़ आरोप लगाती है-
इसने धीरे धीरे चुरा ली है
जमाने की ईमानदारी
और बना ली है
अपनी पोटली
कैसे रख सकता है यह
हम सभी बेईमानों के बीच
सहेज कर अपनी
ईमानदारी की पोटली ?




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